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लोकतंत्र के समक्षसंवैधानिक चुनौतियां-डा. हरवंश दीक्षित

by
Aug 16, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Aug 2012 19:27:45

 

संविधान आजादी और खुशहाली के वायदे का दस्तावेज होता है। संविधान हमें सपने देखने और उसके मुताबिक समाज निर्माण करने की आजादी और जज्बे को भी निरूपित करता है। उसमें केवल काले-सफेद अक्षरों की भरमार नहीं होती बल्कि वह सुशासन के लिए लिपिबद्ध भावपुंज भी होता है। लेकिन उसे मजबूती देने के दायित्व का निर्वहन उसके नागरिकों को करना होता है। हमारे संविधान के माध्यम से हमारे पूर्वजों ने रामराज्य का सपना देखा था जिसमें सभी समान हों। सभी लोग कानून की मर्यादा में रहें। राज्यसत्ता को राम की खड़ाऊं मानकर अपने आपको उसका सेवक मानकर जनता की सेवा करे। कानून का पालन निष्पक्षतापूर्वक हो। निर्णय लेते समय किसी का भय न हो तथा किसी वस्तु का लालच उन्हें स्खलित न कर सके।

बीते सालों में हमने संविधान के तमाम आदर्शों के पालन का प्रयास किया है। अधिकतर मामलों में हमारा शानदार रिकार्ड रहा है। हमारे साथ आजाद हुए करीब 50 देशों में से कहीं भी लोकशाही वहां के जनजीवन में वह पैठ नहीं बना पाई है जो हमारे देश में बनी है। हमारे पड़ोसियों – पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, बंगलादेश जैसे किसी भी देश में लोकतंत्र कभी भी खुली हवा में श्वास नहीं ले पाया। वह हर समय सैनिक तानाशाही की संगीनों से भयभीत रहा। इस बीच हम पंद्रह बार आम चुनावों के माध्यम से केन्द्र की सत्ता के शालीन हस्तान्तरण के गौरवपूर्ण क्षणों के साक्षी रहे हैं। आम आदमी का जीवन स्तर बेहतर हुआ है। भारतीयों ने पूरे विश्व में अपनी क्षमता की छाप छोड़ी है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम सम्मान से देखे जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद कुछ ऐसे क्षण आये हैं जब हमने संविधान की मर्यादा से छेड़छाड़ की है, उसे चोट पहुंचायी है और उसकी अवमानना की है। हमारे इस आचरण ने संविधान की प्रतिष्ठा और हमारे लोकतंत्र को चोट पहुंचायी है। हमें उन पर ध्यान देने की जरूरत है। उन दोषों के निराकरण की आवश्यकता है।

आपातकाल       

हमारी संवैधानिक मर्यादा को पहला गम्भीर झटका 26 मई सन् 1975 को लगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपने को सत्ता में बनाये रखने के लिये संविधान का दुरुपयोग किया। उसकी पृष्ठभूमि चार साल पहले से ही बननी शुरू हो गयी थी जब उनके खिलाफ अधिकार का दुरुपयोग करके 1971 का आम चुनाव जीतने का आरोप लगा। उनके राजनीतिक विरोधी राजनारायण ने अदालत का सहारा लिया। श्रीमती इन्दिरा गांधी के चुनाव को चुनौती दी। 12 जून, 1975 को न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने उनके चुनाव को अवैध ठहराया। जनविरोध को दबाने के लिये उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी। विरोधियों को जेल में बन्द कर दिया गया। संविधान में संशोधन करके अपने को दोषमुक्त करने की पेशबन्दी की गयी, लेकिन इस स्वार्थांधता में एक इतिहास सिद्ध प्रज्ञासूत्र की अनदेखी की गयी कि अधिकार का दुरुपयोग करने वाला व्यक्ति अधिकार विहीन हो जाने के लिये अभिशप्त होता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री के साथ भी यही हुआ। आपातकाल ने वह कर दिखाया जो उससे पहले कभी नहीं हुआ। अत्याचार से उपजे जनाक्रोश ने आपातकाल समाप्त होते ही कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, उनके पुत्र संजय गांधी समेत आपातकाल के उनके सभी सिपहसालार चुनाव हार गये। लेकिन जो सबसे बड़ी क्षति हुई वह इससे कहीं बहुत गहरी थी। आम आदमी के मन में राजनेताआंे के प्रति भरोसा टूट गया। उसे स्वार्थी और मतलबपरस्त मानने की शुरुआत हो गयी। यह हमारी लोकशाही के लिये बहुत बड़ा झटका था।

आपातकाल ने जनमानस में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति भरोसे का संकट पैदा करने की भूमिका तैयार की। आजादी के आन्दोलन की कुर्बानियों से राजनेताओं ने जो प्रतिष्ठा और सम्मान हासिल किया था वह सब मिट्टी में मिल गया। उसकी जगह अब आम आदमी राजनेता को आशंका और तिरस्कार के मिले- जुले भाव से देखने लगा। आपातकाल में सत्ता विरोधियों पर बहुत जुल्म ढाये गये। जब आम जनता तक यह सभी बातें पहुंचीं तो उसे लगा कि जिस राजनेता को अपना प्रतिनिधि मानकर सर्वोच्च सत्ता उसके हाथ में सौंपते हैं वह सत्ता में बने रहने के लिये घोर अत्याचारी और नृशंस भी बन सकता है। जनता के भरोसे पर पहुंची चोट ने लोकशाही की नींव को हिला कर रख दिया। इसने पूरे लोकतंत्र के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। अधिकारों के दुरुपयोग की एक परम्परा शुरू हो गयी।

राज्यों में राष्ट्रपति शासन

संविधान के अनुच्छेदों 356 के मामले में भी हमारा राजनीतिक नेतृत्व बेईमान होने की सीमा तक स्वार्थी रहा है। इस उपबन्ध को देश की अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिये बनाया गया था। डा. अम्बेडकर ने तो यहां तक उम्मीद की कि संविधान में यह उपबन्ध निष्प्राण अक्षरों का समूह बना रहेगा और उसका इस्तेमाल नहीं किया जायेगा। इसमें कहा गया है कि यदि राष्ट्रपति का समाधान हो जाता है कि किसी राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के मुताबिक नहीं चलाया जा सकता तो केन्द्र इस अधिकार का उपयोग करते हुए राज्य सरकारों तथा विधानमण्डल के अधिकार अपने हाथ में ले सकते हैं। आजादी के बाद यह बदला लेने के निरंकुश अस्त्र के रूप में इस्तेमाल होने लगा। डा. अम्बेडकर की उम्मीदों से अलग इस अनुच्छेद का सबसे अधिक दुरुपयोग किया गया। जवाहर लाल नेहरू से लेकर आपातकाल का दंश झेलने वाले मोरारजी देसाई भी इस दोष से मुक्त नहीं हो सके। सन् 1959 में कांग्रेस ने केरल की बहुमत वाली साम्यवादी सरकार को पदच्युत किया तो सन् 1977 में संविधान की रक्षा के लिये चुनी गयी जनता सरकार ने भी 9 कांग्रेस शासित राज्यों को बर्खास्त कर दिया। यह सब संविधान की रक्षा के लिये नहीं, अपितु अपने क्षुद्र दलगत स्वार्थों के लिये किया गया। संविधान के लागू होने के शुरुआती 57 वर्षो में इस अधिकार का 117 बार उपयोग किया गया। डा. अम्बेडकर की उम्मीदों पर पानी फेर दिया गया। जिसे वे निर्जीव अक्षर बने रहने देना चाहते थे, वह व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति के घातक अस्त्र बन गया लेकिन यह बहुत महंगा सौदा साबित हुआ। राजनेताओं को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। धीरे-धीरे आम जनता की निगाह में तस्वीर साफ होने लगी। उनकी नीयत में खोट नजर आने लगा। शुरू में तो अदालत ने इसे राजनीतिक मामला मानते हुए उस पचड़े से अपने आपको दूर रखा लेकिन जब राजनीतिक स्वार्थ जगजाहिर हो गया और जन विश्वास मद्धिम होते-होते समाप्त प्राय हो गया तो अदालतों ने दखलअंदाजी शुरू कर दी और अन्ततोगत्वा 1994 में एस.आर. बोम्मई बनाम राज्य संघ में 9 न्यायाधीशों की पीठ ने अपने निर्णय में कहा कि अदालत अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग की जांच कर सकती है। इसका दूरगामी असर पड़ा। बिहार, झारखण्ड तथा उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन को असंवैधानिक घोषित किया गया। जनता की निगाह में न्यायपालिका संविधान के रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुई किन्तु हमारे राजनीतिक नेतृत्व की पराजय हुई। जो काम राजनीतिक नेतृत्व को करना चाहिये था वह उसके हाथ से छीन लिया गया। किन्तु उसके लिये राजनेता स्वयं जिम्मेदार थे।

शाहबानो का मामला

संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग के अलावा हमारे रीढ़विहीन राजनेताओं के स्वार्थपूर्ण तुष्टीकरण ने भी संविधान को बहुत चोट पहुंचायी। शाहबानो का प्रकरण इसमें से एक था, इसने राजनेताओं की असफलता की एक नयी इबारत लिखी। इस मामले में राजनीतिक नेतृत्व ने जिस तरह मुट्ठी भर आक्रामक लोगों के सामने समर्पण किया उससे समाज को यह संदेश गया कि दबाव डालकर सरकार से कुछ भी करवाया जा सकता है। मामले की शुरुआत भरण-पोषण के एक छोटे से मुकदमे से हुई। इन्दौर की 62 वर्षीय शाहबानो को उसके पति ने तलाक दे दिया था। दूसरी महिला की तरह उन्होंने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अन्तर्गत भरण-पोषण का मुकदमा दायर किया। तमाम दूसरे मामलों की तरह अदालत ने उनके पूर्व पति को शाहबानो के लिये भरण-पोषण देने का आदेश दिया। यह एक सामान्य आदेश था जो महिला को आर्थिक सुरक्षा करने वाले समाज में एक अकेली वृद्ध महिला की आर्थिक सुरक्षा के मद्देनजर दिया गया था। लेकिन कुछ लोगों को यह स्वीकार नहीं था। इसके विरोध के लिये मजहब का सहारा लिया। इस निर्णय को मजहबी मामले में हस्तक्षेप बताकर खूब प्रचारित-प्रसारित किया गया। इसको इस्लाम के खतरे के रूप में निरूपित किया गया। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने शुरू में तो इस निर्णय का समर्थन किया। उच्च न्यायालय के निर्णय के समर्थन में सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष तथा तेज-तरर्ार सांसद मुहम्मद आरिफ जैसे लोगों को आगे किया किन्तु अन्ततोगत्वा सरकार ने समर्पण कर दिया। जब उस निर्णय के विरोध में पूरे देश में मुस्लिमों के प्रदर्शन शुरू हो गये तो सरकार को मुस्लिम समुदाय के मतों की चिन्ता सताने लगी। आसन्न आम चुनाव ने सरकार को अतिवादियों के सामने घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। सरकार ने ‘¨ÉÖκ±É¨É महिला अधिकार संरक्षण अधिनियम 1986’ नामक कानून पारित करके मुस्लिम महिलाओं को शेष महिलाओं को मिलने वाले गुजारे भत्ते से वंचित कर दिया। इस कानून का सबसे विवादास्पद उपबन्ध यह है कि मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से केवल इद्दत के दौरान (तीन महीने) ही भरण-पोषण पाने का अधिकार है। उसके बाद उसके गुजारे भत्ते का दायित्व महिला के रिश्तेदारों और वक्फ बोर्ड का है। इस तरह पंथ-निरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम महिलाओं का जीवन-यापन का वह अधिकार समाप्त कर दिया गया जो पंथ-निरपेक्ष विधि के अन्तर्गत दूसरी महिलाओं को है।

शाहबानो प्रकरण पर सरकार की बेचारगी में भारतीय लोकशाही के लिए बहुत दुर्भाग्यजनक संदेश दिया। लोगों को लगने लगा कि मुट्ठीभर आक्रामक प्रकृति के लोग एकजुट होकर सरकार से जो चाहे मनवा सकते हैं। यह भी कि हमारी लोकशाही शिष्ट और सलीकेदार बात करने वालों की चिन्ता नहीं करती। वह इतनी कमजोर है कि वह तार्किक बात कहने वालों को सुरक्षा नहीं दे सकती, उसे अपने अस्तित्व के लिए दबंग और जिद्दी होना जरूरी है।

अनुच्छेद 370

भारतीय संविधान के मर्मस्थल में कश्मीर का जो कांटा उसके जन्मकाल से चुभा वह आज बहुगुणित होकर भारतीय लोकतंत्र को तहस-नहस करने पर आमादा है। पाकिस्तान समर्थित कबाइली आक्रमण की पृष्ठभूमि में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा ने 26 अक्टूबर, 1947 को भारत संघ में शामिल होने के दस्तावेज पर दस्तखत किये। हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री के कश्मीर के प्रति ढीले-ढाले रुख के कारण जम्मू-कश्मीर ने केवल रक्षा, विदेश तथा संचार जैसे विषयों पर ही भारत सरकार के नियंत्रण को स्वीकार किया, शेष विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार अपने पास रखा। एक ओर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे, जो कश्मीर का अपना रास्ता खुद तय करने का अधिकार देने के हिमायती थे तो दूसरी ओर सरदार बल्लभ भाई पटेल और डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे लोग, जो अन्य दूसरे राज्यों की तरह कश्मीर का भारत संघ में पूर्णरूप से विलय चाहते थे। इसी तरह के मतभेदों के कारण डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अन्तत: केन्द्र सरकार से त्यागपत्र देकर अलग हो गए। वे कश्मीर को धारा 370 के अंतर्गत विशेष दर्जा देने और देश के दूसरे हिस्से में रहने वाले लोगों को वहां जाने के लिए परमिट लेने के विरोधी थे। इसी मिशन को पूरा करने के लिए पूरे देश में जनजागरण अभियान चलाया, परमिट व्यवस्था को तोड़ने के लिए कश्मीर में प्रवेश करते समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा संदेहास्पद परिस्थितियों में वह जेल में ही बलिदान हो गए। किन्तु हमारे राजनेताओं पर उनके बलिदान का कोई असर नहीं हुआ। नतीजा हमारे सामने है। विघटनवादी तत्व आज भी अनुच्छेद 370 को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। लाखों हिन्दू कश्मीर से पलायन कर चुके हैं और अब तो एक बार फिर 1952 के पूर्व की स्थिति की मांग की जा रही है। जिसमें वहां के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाएगा, उनका अलग झंडा होगा और लोगों को उस राज्य की सीमा में प्रवेश करने के लिए परमिट लेना पड़ेगा। अनुच्छेद 370 का अभी तक बने रहना राजनीतिक तौर पर हमारी सबसे बड़ी पराजय है।

डा. भीमराव अम्बेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिये गये अपने भाषण में कहा था कि किसी भी देश के संविधान की सफलता उस देश के नागरिकों तथा संविधान को चलाने वालों के चरित्र और उनकी नीयत पर निर्भर करती है। उन्होंने आगे कहा कि चाहे जितना अच्छा संविधान क्यों न हो यदि उसके चलाने वालों में संविधान के मूल्यों के प्रति समर्पण और उसे लागू करने का जज्बा नहीं है तो संविधान निर्जीव अक्षरों का समूह मात्र बना रहेगा। इसके उलट यदि किसी संविधान में कोई कमी रह गयी हो किन्तु उसका पालन करने वाले लोग संविधान के उद्देश्यों के प्रति निष्ठावान हैं तो उन कमियों को दूर करके जीवंत समाज का निर्माण करंेगे। पिछले 65 वर्षों के हमारे अनुभव ने डा. अम्बेडकर के कथन को अक्षरश: सही होते हुए देखा है। हम केवल वहीं असफल हुए हैं जहां हमारे नागरिकों और शासक वर्ग ने संविधान के मूल्यों की अनदेखी की है और अपने निहित स्वार्थों के लिए राष्ट्रहित की बलि दी है।

(लेखक महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद के प्राचार्य हैं)

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