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अवसरवादी गठबंधन

by
Jul 30, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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अवसरवादी गठबंधन

दिंनाक: 30 Jul 2012 12:33:09

यह जीव ईश्वर के समान स्वतंत्र नहीं है, अत: अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं कर सकता। काल इसे इधर–उधर खींचता रहता है।

–वाल्मीकि (रामायण, अयोध्याकाण्ड, 105/15)

कांग्रेस की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे संप्रग में खलबली है। मानो प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह लगातार एक के बाद एक घटक दलों का दबाव झेलने को अभिशप्त हैं। अब तक ममता ही संप्रग का सिरदर्द बनी हुई थीं, लेकिन अब शरद पवार ने भी मोर्चा खोल दिया। हालांकि मान–मनौव्वल से शरद पवार ठंडे पड़ गए हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सब ठीक–ठाक हो गया। दरअसल जब गठबंधन का आधार दलगत स्वार्थ हों और मोल–भाव व लेन–देन की राजनीति उसके मूल में हो तो अंदर तिरकन बनी रहती है। ऐसा ही कुछ संप्रग का स्वरूप है, जहां सभी घटक दल अपना दबदबा बनाए रखने को आतुर हैं। ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस की सांसें अटका रखी थीं, लेकिन अंत में ममता के प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने की घोषणा से संप्रग की जान में जान आई। परंतु प.बंगाल को पैकेज का मुद्दा दोनों के बीच अभी भी फंसा है और ममता की घोषणा, कि वे प.बंगाल में एकला चलेंगी, से कांग्रेस के सामने राज्य में अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। इसी तरह शरद पवार ने पहले सरकार में नं.2 की जगह पाने के लिए मुंह फुला लिया और अब महाराष्ट्र में राकांपा–कांग्रेस की गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री द्वारा राकांपा कोटे से पवार के चहेते दो मंत्रियों के विभागों से संबंधित जांच को हरी झंडी दी तो पोल खुलने के डर से संप्रग को तेवर दिखा दिए। लेकिन समस्या दोनों की है, कांग्रेस और घटक दलों के रिश्ते 'तोकों और न मोकों ठौर' वाले हैं, क्योंकि संप्रग की सारी राजनीति सत्ता केन्द्रित है। सभी घटक दलों के सत्ता स्वार्थ हैं, वे परस्पर टकराते हैं तो 'उसे ज्यादा मुझे कम क्यों' की तर्ज पर विवाद बढ़ता है, लेकिन लड़ेंगे तो सत्ता जाएगी, की सोच उन्हें एक–दूसरे की मजबूरी में बांधे रखती है। इसीलिए प्रधानमंत्री हर समस्या की जड़ में गठबंधन की मजबूरी का राग अलापते हैं।

एक समय करुणानिधि की दबाव की राजनीति ने भी कांग्रेस की नाक में खूब दम किए रखा। लेकिन राष्ट्रहित को दरकिनार कर घटक दलों को साधने और सत्ता में बने रहने की लिप्सा से ही कांग्रेस घिरी है। इसी कारण देश में सुरसा के मुंह की तरह फैलते गए भ्रष्टाचार की अनदेखी भी संप्रग सरकार ने की और प्रधानमंत्री 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुख्य सूत्रधार तत्कालीन संचार मंत्री ए.राजा को दूध का धुला बताते रहे। संप्रग में बिखराव की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने खुलकर आरोप लगाया कि घटक दलों में तालमेल न होने के लिए कांग्रेस दोषी है। राकांपा नेताओं के गुस्से का आलम यह था कि पार्टी के तीनों मंत्रियों ने अपने मंत्रालयों के कामकाज तक का बहिष्कार कर दिया, सरकारी गाड़ियां लौटा दीं और नवनिर्वाचित राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी को बधाई देने अपनी निजी कारों से गए। प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित भोज का भी पवार व उनकी टीम ने बहिष्कार कर दिया। इतना गुस्सा यकायक कैसे शांत हो गया? जाहिर है सौदेबाजी ही इसके पीछे है। सारा झगड़ा सत्ता की मलाई का है, उसमें बराबर की भागीदारी सभी चाहते हैं। कांग्रेस भी दबाव बनाए रखने के लिए सीबीआई और केन्द्रीय मदद का राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से इस्तेमाल करती है। लेकिन घटक दल भी जानते हैं कि कांग्रेस की साख लगातार गिर रही है और उसे आगामी लोकसभा चुनाव में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं दिख रहा, इसलिए वे भी यदा-कदा दबाव की राजनीति अपनाकर अपने लिए सत्ता समीकरणों में बढ़ा रुतबा चाहते हैं। संप्रग से बाहर के दल व नेता भी इसी मानसिकता से कांग्रेस के साथ रिश्तों में नरमी-तल्खी बरतते हैं, विशेषकर मुलायम सिंह व मायावती, लेकिन सीबीआई का कोड़ा सबको रास्ते पर ले आता है। राष्ट्रपति चुनाव में तो यह साफ-साफ दिखा। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ऐसी अवसरवादी और सत्तालोलुप राजनीति देश का क्या भला करेगी?

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