मनमोहन की मुश्किलें/'युवराज' की मर्जी/कांग्रेस की कथनी-करनी
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बात बेलाग
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मुश्किलें कम होती नहीं दिखतीं। हैरत की बात यह है कि ये मुश्किलें उन लोगों की ओर से खड़ी की जा रही हैं, जिन्हें उनका शुभचिंतक माना जाता रहा है। यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि मनमोहन सिंह भारतीयों से ज्यादा अमरीका और यूरोप के लाड़ले रहे हैं। इस लाड़ के कारणों पर बहस हो सकती है, पर सच से इंकार नहीं किया जा सकता। एक दौर था, जब दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान माने जाने वाले अमरीका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा भी मनमोहन का गुणगान करते नहीं थकते थे, लेकिन अब ऐसा वक्त आ गया है कि जब अमरीका की ही चर्चित पत्रिका 'टाइम' ने उन्हें 'अंडरएचीवर' यानी फिसड्डी करार दे दिया है। दरअसल मनमोहन की मुश्किल सिर्फ यही नहीं है, उनकी मुश्किलें यहां से शुरू होती हैं। 'टाइम' के बाद अब प्रतिष्ठित विदेशी समाचार पत्र 'द इंडिपेंडेंट' ने तो मनमोहन को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का 'पालतू' और 'अक्षम' तक करार दे दिया है। जाहिर है, अतरराष्ट्रीय मीडिया की इन टिप्पणियों से कांग्रेस और सरकार बुरी तरह बौखलाई हुई है। मीडिया की आलोचना करते समय शालीनता की नसीहत भी दी जा रही है, लेकिन मनमोहन की असल मुश्किल यह है कि स्वदेश में इनके प्रशंसक पहले ही नहीं थे, अब विदेश में भी नहीं बचे। उनके नाम पर देश में तो वोट पहले भी नहीं मिलते थे, अब विदेशों से नोट यानी निवेश भी नहीं मिलेगा। ओबामा का वक्तव्य तो यही दर्शाता है। ऐसे में मुश्किल में कांग्रेस भी है, जिसके अंदर से सवाल उठने लगे हैं कि आखिर अब मनमोहन सिंह की प्रासंगिकता क्या रह गयी है पार्टी के लिए?
'युवराज' की मर्जी
कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र को लेकर गलतफहमी तो कभी किसी को नहीं रही, पर अब पार्टी दिखावटी परदे को भी तार-तार करने पर आमादा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ही साफ-साफ कह दिया है कि पार्टी संगठन में बड़ी भूमिका निभाने का फैसला खुद राहुल गांधी करेंगे। बेशक उनकी यह टिप्पणी दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल और बेनीप्रसाद वर्मा सरीखे कांग्रेसियों के इस कोरस के बीच आयी है कि 'राहुल को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाए', पर सोनिया की टिप्पणी से अब नया सवाल उठ खड़ा हुआ है। सवाल यह है कि क्या देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल कांग्रेस नेहरू परिवार की 'प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी' है कि राहुल जब चाहें, अपनी भूमिका तय कर लें, बदल लें? राजनीतिक दल में अगर आंतरिक लोकतंत्र नाम की कोई चीज है तो यह फैसला विचार प्रक्रिया और निर्वाचन प्रक्रिया के जरिए होना चाहिए। पर जब खुद सोनिया रिकार्ड समय से कांग्रेस की निर्विरोध अध्यक्ष बन कर मनोनयन के जरिए संगठन चला रही हैं तो फिर अपने लाड़ले को मुंहमांगा पद देने में ही कोई समस्या क्यों होनी चाहिए? वैसे 'युवराज' के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी यही हाल है। वह खुद कई बार कांग्रेस के 'युवराज' से केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल होने का अनुरोध कर चुके हैं, पर उन्होंने अभी तक हां नहीं की है। उधर कई कांग्रेसी हैं जो राहुल को सीधे प्रधानमंत्री बनवाना चाहते हैं, पर 'युवराज' हैं कि कोई फैसला ही नहीं कर पा रहे।
कांग्रेस की कथनी–करनी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के खात्मे का इरादा जताते नहीं थकते। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी पार्टीजनों को भ्रष्टाचार से बचने की नसीहत अकसर दोरहाती रहती हैं, पर असलियत क्या है.. सब जानते हैं। मनमोहन सिंह के इस दूसरे प्रधानमंत्रित्वकाल में ही तीन केबिनेट मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में इस्तीफा देना पड़ा है। पहले दो: राजा और मारन तो द्रमुक के थे, लेकिन तीसरे वीरभद्र सिंह कांग्रेसी हैं। वैसे एक राज्य मंत्री को शशि थरूर को भी पद के दुरुपयोग के आरोप में इसी दौरान जाना पड़ा। नसीहत के बावजूद फजीहत का यह आलम दरअसल इसलिए है कि आचरण उपदेश के ठीक विपरीत है। भ्रष्ष्टाचार और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप तय हो जाने के बाद इस्तीफा देने को मजबूर हुए वीरभद्र सिंह को कांग्रेस आलाकमान ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया है, तो फिर भला कोई कांग्रेसी भ्रष्टाचार करने से क्यों बचेगा-डरेगा? यह तो एक तरह से पुरस्कार है। समदर्शी
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