गांधी जी ने कांग्रेस क्यों छोड़ी?-4श्रीनिवास शास्त्री का ऐतिहासिक पत्राचार
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श्रीनिवास शास्त्री का ऐतिहासिक पत्राचार
देवेन्द्र स्वरूप
अस्पृश्यता उन्मूलन एवं हरिजनोद्धार गांधी जी के लिए जीवन-निष्ठा का विषय थे। वे उसे हिन्दू समाज की आंतरिक सामाजिक समस्या के रूप में देखते थे और अस्पृश्यता का व्यवहार करने वाले सवर्ण हिन्दुओं के हृदय परिवर्तन को इसके एकमात्र स्थायी हल के रूप में देखते थे। 1915 की जनवरी में भारत वापसी के क्षण से ही वे इस दिशा में सक्रिय हो गए थे। किन्तु ब्रिटिश सरकार हरिजन समस्या के द्वारा हिन्दू समाज को तोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने का हथियार बनाने पर तुल हुई थी। गोलमेज सम्मेलनों, ब्रिटिश प्रधानमंत्री के 'साम्प्रदायिक निर्णय' में हरिजनों को पृथक मताधिकार की घोषणा करके और 'पूना पैक्ट' के द्वारा उसका आंशिक निराकरण होने से गांधी जी को लग गया कि अब उन्हें हरिजन आन्दोलन को प्राथमिकता देना होगी। अत: 'पूना पैक्ट' के बाद उन्होंने हरिजन आंदोलन को ही अपना मुख्य कार्यक्रम बना लिया, किन्तु गांधी जी उसे स्वतंत्रता आंदोलन के अंग के रूप में देखते थे।
'सविनय अवज्ञा' या 'हरिजन आन्दोलन'
विचित्र बात यह है कि जिस वायसराय लार्ड विलिंग्डन ने एक कठोर दमननीति अपनाकर स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी, उसने भी गांधी जी के हरिजन आंदोलन में रुचि दिखाई और गांधी जी को सत्याग्रह का मार्ग छोड़कर हरिजन आंदोलन पर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित करने की दिशा में प्रवृत्त करने का कूटनीतिक जाल बिछाया। 25 सितम्बर, 1932 को 'पूना पैक्ट' सम्पन्न होने के कुछ समय बाद ही 2 नवम्बर, 1932 को वायसराय विलिंग्डन ने नरमदलीय नेता श्रीनिवास शास्त्री को एक रहस्यमय पत्र लिखा कि 'यद्यपि मैं गांधी जी के तौर-तरीकों को पसंद नहीं करता किन्तु दलित वर्गों के हितों को बहुत आगे बढ़ाया गया है, इसका पूरा श्रेय उन्हें देना ही होगा। क्यों नहीं वे दुष्ट 'सविनय अवज्ञा' का रास्ता छोड़ देते? यदि वे उसे छोड़ दें तो उन्हें दलित वर्गों के लिए काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी जा सकती है। किन्तु जब तक वे यह नहीं करते, मैं उन पर कभी विश्वास नहीं करूंगा।…एक बहुत पुराने मित्र होने के नाते मैं आपको यह लिख रहा हूं क्योंकि मैं आप पर पूरी तरह भरोसा कर सकता हूं। मैं शांति चाहता हूं, किन्तु प्रशासक के नाते 'सविनय अवज्ञा' की अनुमति नहीं दे सकता, क्योंकि वह कानून तोड़ने की नीति है।' श्रीनिवास शास्त्री ने वायसराय के इस पत्र को गंभीरता से लिया और 12 नवम्बर को उत्तर लिखा कि, 'इस काम में गोपनीयता बहुत आवश्यक है। सौभाग्यवश पूना मेरी संस्था 'फ्रेंडस आफ इंडिया सोसायटी' का मुख्यालय होने के कारण मैं किसी प्रकार का संदेह आकर्षित किए बिना वहां रह सकता हूं। किन्तु इसके लिए मुझे दो सुविधाएं दी जानी आवश्यक हैं। एक, जेल सुपरिटेंडेट एवं अन्य औपचारिकताओं से गुजरे बिना गांधी जी से भेंट की सुविधा। और दूसरे, आवश्यक होने पर आपसे तार द्वारा सम्पर्क। इसके लिए या तो मुझे गुप्त कोड देना होगा या बम्बई सचिवालय के गोपनीय विभाग का माध्यम अपनाना होगा।'
विलिंग्डन का दमन चक्र
इस पत्राचार को ऊपर से देखने पर लगता है कि क्या श्रीनिवास शास्त्री जैसा श्रेष्ठ और बुद्धिमान नेता ब्रिटिश वायसराय का हस्तक बन गया होगा। पर, श्रीनिवास शास्त्री की राष्ट्रभक्ति और संस्कृतिनिष्ठा संदेहातीत थी। यह सत्य है कि उन्हें ब्रिटिश न्यायप्रियता और लोकतंत्रवादिता पर अंधश्रद्धा थी और वे स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आंदोलन के बजाय संवाद को ज्यादा प्रभावी उपकरण मानते थे। किन्तु इस पत्राचार के पीछे वायसराय विलिंग्डन की नीयत को समझना आवश्यक है। गांधी जी के गोलमेज सम्मेलन में रहते ही विलिंग्डन ने अपना दमन चक्र आरंभ कर दिया था। आठ अध्यादेश जारी किये जा चुके थे। 'गांधी-इर्विन समझौते' को मृत घोषित कर दिया गया था। उस समझौते के अनुसार न तो किसानों की जब्त की गई जमीनों को वापस किया जा रहा था न ही नौकरी से बर्खास्त किए गये कर्मचारियों को नौकरी पर वापस लिया जा रहा था। खान अब्दुल गफ्फार खां व जवाहरलाल नेहरू जैसे शीर्षस्थ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। पूरे देश में आतंक का वातावरण पैदा कर दिया गया था। उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत के 'खुदाई खिदमतगार आंदोलन' को कुचलने के लिए अमानुषिक तरीके अपनाये गये। इंग्लैण्ड से वापस लौटते ही गांधी जी ने 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' के पुनरुज्जीवन का बिगुल बजा दिया। किन्तु विलिंग्डन ने गांधी जी को तुरंत कारागार में बंद कर दिया। कांग्रेस कार्यसमिति पर प्रतिबंध लगा दिया, देश भर में कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार कर लिया गया। मीडिया पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिये गये। पिछले आठ अध्यादेशों के अतिरिक्त चार नए अध्यादेश लागू कर दिये गये। इस दमनकारी नीति में वायसराय विलिंग्डन को लंदन स्थित भारत सचिव सर सेमुअल होर का पूरा समर्थन प्राप्त था। होर ने हाउस आफ कामन्स में अपनी दमन नीति का वर्णन करते हुए अंत में कहा कि 'कुत्ते भौंकते रहेंगे, हम आगे बढ़ते रहेंगे।'
कांग्रेसियों की मनोदशा
राष्ट्रीय आन्दोलन का जनाधार खत्म करने के लिए सरकार ने किसान वर्ग और शहरी मध्यम वर्ग को मुख्य निशाना बनाया। लगान न देने पर किसानों की भूमि को तुरंत जब्त कर लिया जाता, मध्यमवर्गीय सत्याग्रहियों की सम्पत्तियों को नीलाम कर दिया जाता। एक सीमा के आगे इस दमन नीति के सामने टिका रहना सत्याग्रहियों के लिए कठिन हो गया। उधर गांधी जी स्वयं को असहाय पा रहे थे। उनके बार-बार प्रयास करने पर भी विलिंग्डन उन्हें भेंट का समय नहीं दे रहा था। उसे लगता था कि वायसराय की भेंट से गांधी का महत्व बढ़ता है, जनता उन्हें वायसराय के बराबर मानने लगती है, इसलिए उसने और सेमुअल होर ने गांधी जी को भेंट का समय न देने को अपनी दमन नीति का अंग बना लिया और वे गांधी जी की प्रार्थनाओं को कड़े शब्दों में ठुकराने का प्रचार करके जनमानस पर गांधी जी का प्रभाव खत्म करने का सफल उपाय मानने लगे। स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि गांधी जी को विलिंग्डन से भेंट का समय पाने के लिए श्रीनिवास शास्त्री की सहायता लेनी पड़ी। शास्त्रीजी ने 22 जून, 1933 को अपने सहकारी टी.आर.वेंकटराम शास्त्री को गोपनीय सूचना दी कि आज गांधीजी ने मुझसे लंबी बात की और वायसराय से भेंट का समय दिलाने का अनुरोध किया। शास्त्रीजी ने उसी दिन लंदन स्थित सेमुअल होर और लार्ड इर्विन को पत्र लिखे। उनके उत्तर भी आये, पर वे भी समय नहीं दिला पाये। इसके पूर्व गांधी जी 8 से 29 मई, 1933 तक हरिजन आंदोलन के लिए अनशन कर चुके थे, जिसके कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया किन्तु शीघ्र ही उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में रहते हुए हरिजन आंदोलन चलाने की गांधी जी की मांग को सरकार को स्वीकार करना पड़ा।
सरकार की इस दमन नीति के फलस्वरूप सामान्य जनों और कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं का मनोबल खंडित होने लगा। उन्हें देश भर से पत्र आने लगे कि 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' को वापस लिया जाए। गांधी जी ने राजगोपालाचारी से परामर्श करके किसानों को सत्याग्रह से मुक्त कर दिया। सामूहिक सत्याग्रह को छह सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया गया। उन दिनों एम.एस.(बापू) अणे कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष थे। 1934 में केन्द्रीय लेजिसलेटिव असेम्बली के चुनाव होने थे। कांग्रेस जनों का बड़ा वर्ग असेम्बली के इन चुनावों में भाग लेने के लिए ललचाने लगा। गांधी जी के पास अनेक पत्र आने लगे। अंतत: गांधी जी ने 12 से 14 जुलाई, 1933 को पूना में ऐसे कांग्रेसियों का अनौपचारिक सम्मेलन बुलाया जो उस समय जेल के बाहर थे। इस सम्मेलन में उन्होंने श्रीनिवास शास्त्री और एन.सी.केलकर को कांग्रेस का सदस्य न होते हुए भी व्यक्तिगत निमंत्रण भेजकर बुलाया, जिस पर कांग्रेस जनों ने आपत्ति उठायी। तीन दिन के इस सम्मेलन में गांधी जी ने पाया कि कांग्रेस जनों की मन:स्थिति इस समय न तो सत्याग्रह करके जेल जाने की है, न वे रचनात्मक कार्यक्रम के लिए गांवों में जाने को तत्पर हैं। वे अपने को थका हुआ अनुभव कर रहे हैं, वे विराम चाहते हैं, जिस कांग्रेस का उन्होंने 1920 में कायाकल्प करके, अपने खून-पसीने से सींचा था, वह उनके सांचे में नहीं ढल पायी। उसका मन काउंसिल प्रवेश के लिए ललक रहा था। वह संघर्ष नहीं, आराम-कुर्सी पर राजनीति करना चाहती थी।
शास्त्री जी का ऐतिहासिक पत्र
इस कालखंड में गांधी जी जिस वेदना और अंतर्द्वंद्व से गुजर रहे थे उसको गहराई से समझने की आवश्यकता है। उस समय के गांधी जी के पत्राचार को पढ़ने से हमें अपने समाज के चरित्र और मानस को समझने में मदद मिल सकती है। गांधी जी अपने पत्रों में लिखते हैं कि, 'कांग्रेस को लकवा मार गया है, उसे इस लकवे से बाहर निकालने का उपाय खोजना होगा।' जब गांधी जी इस मन:स्थिति से गुजर रहे थे तभी उन्हें श्रीनिवास शास्त्री का 11 अगस्त, 1933 का लिखा एक लम्बा ऐतिहासिक पत्र मिला। गांधी जी के आगामी निर्णयों की कुंजी इस पत्र में विद्यमान है, परन्तु पता नहीं क्यों इस महत्वपूर्ण पत्र को इतिहासकारों एवं गांधी जी के जीवनीकारों द्वारा अब तक उपेक्षित रखा गया। यह पत्र श्रीनिवास शास्त्रीजी की दूरदृष्टि, स्पष्टवादिता और निर्भीकता की अद्भुत मिसाल है।
श्रीनिवास शास्त्री पत्र में लिखते हैं, 'सरकार के साथ आपके संघर्ष के पीछे और आगे देश का भविष्य छिपा हुआ है। कांग्रेस उस भविष्य को कैसे प्राप्त करे? आपका उत्तर स्पष्ट है (यानी सत्याग्रह), पर लोगों के मस्तिष्क में दूसरा उत्तर उभर रहा है। वह उत्तर है कि 'सविनय अवज्ञा' को, चाहे वह सामूहिक हो या व्यक्तिगत, अब त्याग देना चाहिए। रचनात्मक कार्यक्रम से भी आगे बढ़कर प्रशासन, वित्त और विधायिका के द्वारा राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता मिलना चाहिए। कांग्रेस के बाहर और कांग्रेस के भीतर भी यह विचार बल पकड़ता जा रहा है। यह आपकी वर्तमान नीति से इतना भिन्न और विरोधी लगता है कि संदेह होता है कि क्या आप इसे अपना सकते हैं। आपकी पूरी तैयारी और मानसिकता भिन्न दिशा में जाती है। दुर्भाग्य से कोई भी व्यक्ति, वह चाहे जितना महान हो, अपनी सीमाओं को हमेशा जान सके यह संभव नहीं है। उसकी अपनी महानता ही परिवर्तन का रास्ता रोक लेती है। मैं आपको कई बार कह चुका हूं कि आप अन्य नेताओं की तुलना में इतनी अधिक ऊंचाई पर इतने लम्बे समय से निर्णायक तौर पर पहुंच गये हैं कि तुरंत आपकी जगह लेने वाला कोई अन्य व्यक्ति अब दिखायी ही नहीं पड़ता। कितना अच्छा होता कि आप स्वयं को नये युग के लिए बदल सकते और नये सांचे में ढाल लेते।…'
'इस विषम स्थिति में देश अपेक्षा करता है कि आप पहले से भूमिका को अपनायें। सरकार को छकाने के लिए आप सत्याग्रह का चाहे जो रूप अपनायें किन्तु, आप कांग्रेस को नया मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र कर दीजिए। आपको स्मरण होगा कि पिछली बार जब मैं पर्णकुटी में आपके साथ था तब भी मैंने आपसे यह रास्ता चुनने की याचना की थी। आपने मुझे कहा था कि आप इस विचार को कार्यसमिति के सामने रखेंगे परन्तु वे इसे कदापि नहीं मानेंगे, और यह उसके लिए स्वाभाविक व उचित भी होगा। वह आपको त्यागने का लांछन अपने सिर पर क्यों लेगी? कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें ऐसा कोई विचार मात्र ही भयावह लगे। समय आ गया है, और मेरे विचार से बहुत पहले आ गया था, कि आप यह कह दें कि 'मैं कांग्रेस को अपने लिये नये रास्ते चुनने के लिए मुक्त करता हूं। राष्ट्र कल्याण के लिए हरिजन आन्दोलन जैसा बहुत-सा ईश्वरीय कार्य मुझे करने को है।' सत्य को जैसा मैंने देखा, आपके सामने रखा। आशा है कि आप समस्या को नये दृष्टिकोण से देखेंगे।…'
गांधी जी का मंतव्य
कांग्रेस रूपी अपने बच्चे को ही छोड़ देने का आग्रह करने वाला यह पत्र गांधी जी को खला नहीं, बल्कि 30 अगस्त को अपने उत्तर में उन्होंने शास्त्री जी को लिखा 'आपके पत्र को मैं बहुमूल्य समझता हूं। मैं प्रसन्नता से कांग्रेस से सेवानिवृत्त हो जाऊंगा और कांग्रेस के बाहर 'सविनय अवज्ञा' को आगे बढ़ाने व हरिजन कार्य में अपने को लगा लूंगा। समस्या यह है कि इसे कैसे किया जाए? क्या मैं कांग्रेस से अलग होकर यह कर सकता हूं? यह प्रश्न मेरे सामने अनौपचारिक सम्मेलन (12-14 जुलाई, 1933) के समय भी खड़ा था और आज भी खड़ा है। मैं रोशनी खोज रहा हूं। जैसे ही मैं अपने भीतर पर्याप्त शक्ति पाऊंगा, मैं पुन: कांग्रेसजनों के मन टटोलूंगा और यदि मैं कांग्रेस को छोड़ सकता हूं, तो मैं प्रसन्नतापूर्वक ऐसा करूंगा।…यह सच है कि काफी सारे कांग्रेसजन थक चुके हैं। वे बड़ा परिवर्तन चाहते हैं। किन्तु मैं किसी निर्णय पर पहुंचने की जल्दी में नहीं हूं। मैं आपको यह भरोसा दे सकता हूं कि राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में जो भी कदम उठाने आवश्यक होंगे, मैं उनसे पीछे नहीं हटूंगा। गुमनामी का मुझे कोई डर नहीं है। कर्तव्य पालन को मैंने हमेशा बड़ा सुख माना है। ज्यादा कठिन बात है यह जानना कि कर्तव्य कहां है?…'
गांधी जी के इस पत्र के उत्तर में शास्त्री जी ने 4 सितम्बर, 1933 को लिखा, 'मैं पुन: अनुरोध करता हूं कि कांग्रेस को अपने शासन से मुक्त कर दीजिए। यदि आप कांग्रेस की अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हो तो बहुत देर हो जाएगी। आप उसे तुरंत स्वतंत्र कर दीजिए।' शास्त्री जी ने विलम्ब होने के खतरे भी गिनाए- (1) इंग्लैंड में टोरी पार्टी का लम्बा वर्चस्व काल (2) भारतीय राष्ट्रवाद के सामने अल्पसंख्यकों के हाथ में सत्ता जाने का खतरा, क्योंकि उनकी पीठ पर ब्रिटिश सरकार का हाथ है। शास्त्री जी ने इस लम्बे पत्र का समापन इन शब्दों के साथ किया, 'यदि मेरी योजना में कोई दम हो तो उसे मौका दीजिए। दो शर्ते आवश्यक हैं-सविनय अवज्ञा समाप्त हो और तानाशाही (गांधी की?) खत्म हो।
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