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आतंकी जिहाद की जीत?

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Jul 21, 2012, 12:00 am IST
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आतंकी जिहाद की जीत?

दिंनाक: 21 Jul 2012 15:47:42

तुष्टीकरण आधारित अलगाववादी रपट-4

सुरक्षा बलों को हटाने की सिफारिश

कर क्या वार्ताकारों नेे सुनिश्चित कर दी

 नरेन्द्र सहगल

तीनों वार्ता-कारों ने कश्मीर समस्या के लिए एक तरह से भारत की संसद और सुरक्षा बलों को जिम्मेदार मान लिया है। इसीलिए भारतीय संसद के कानूनों की समीक्षा करने और सुरक्षा बलों और उनके विशेषाधिकारों को वापस लेने जैसे सुझाव दिए गए हैं। कश्मीर समस्या के असली गुनाहगारों पाकिस्तान, अलगावादी संगठनों और जिहादी आतंकियों को वार्ताकारों ने कटघरे में खड़ा करने के बजाए उन्हें महत्व देने की अनैतिक, देशघातक और असंवैधानिक कुचेष्टा की है।

आतंकवाद को प्रोत्साहन

जम्मू-कश्मीर में गत 22 वर्षों से आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है। इन वार्ताकारों ने आतंकी अड्डों को समाप्त करने, हिंसक आतंकियों को सजाएं देने और प्रशासन में घुसे पाकिस्तानी तत्वों को पकड़ने की कोई भी सिफारिश नहीं की। वार्ताकार यह भूल गए कि युद्ध अथवा युद्ध जैसी परिस्थितियों में लड़ रहे भारतीय जवानों को अलगाववादी सहन नहीं कर रहे हैं।

सरकारी वार्ताकारों ने आतंकग्रस्त प्रदेश से भारतीय सेना की वापसी और अर्धसैनिक सुरक्षाबलों के उन विशेषाधिकारों को समाप्त करने की सिफारिश की है जिनके बिना आधुनिक अधिकारों से सुसज्जित और प्रशिक्षित आतंकियों का न तो सफाया किया जा सकता है और न ही सामना।

अलगाववादी, आतंकी संगठन और स्वायत्तता तथा स्वशासन के झंडाबरदार तो चाहते हैं कि भारतीय सुरक्षा बलों को कानून के तहत इतना निर्बल बना दिया जाए कि वे मुजाहिद्दीन (स्वतंत्रता सेनानियों) के आगे एक तरह से समर्पण कर दें। विशेषाधिकारों की समाप्ति के बाद आतंकियों के साथ लड़ते हुए शहीद होने वाले सुरक्षा जवानों के परिवारों को उस आर्थिक मदद से भी वंचित होना पड़ेगा जो सीमा पर युद्ध के समय शहीद होने वाले सैनिक को मिलती है।

विशेषाधिकार की जरूरत

वार्ताकारों ने संभवत: इस सिफारिश के खतरनाक परिणामों पर गहराई से विचार नहीं किया। जम्मू-कश्मीर की विशेष और विपरीत परिस्थितियों के मद्देनजर सेना के विशेषाधिकारों (कानून 1958) को जम्मू-कश्मीर में 1990 में लागू किया गया था। 1989 से लेकर आज तक भारतीय सेना और सीआरपीएफ ने आतंकवाद से लोहा लेने में विशेष भूमिका निभाई है। इन दोनों बलों के अतिरिक्त अन्य अर्धसैनिक बलों की टुकड़ियों ने भी आतंकवाद का सामना किया है।

सुरक्षा बलों को दिए जाने वाले विशेषाधिकारों में किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार करने, किसी भी स्थान पर तलाशी लेने, आतंकग्रस्त क्षेत्रों का घेराव करने, छापामार सैन्य कार्रवाई करने और गिरफ्तार व्यक्तियों से सख्ती के साथ पूरी पूछताछ करने के अधिकार शामिल हैं। अन्यथा यह सब कार्रवाई करने के लिए स्थानीय 'मजिस्ट्रेट' की अनुमति लेनी होती है। जरा कल्पना करें कि वह स्थिति कितनी खतरनाक होगी जब किसी आतंकी द्वारा गोली चलाने अथवा बम विस्फोट करने पर सुरक्षा बल जवाबी कार्रवाई करने के लिए स्थानीय मजिस्ट्रेट को खोजते फिरेंगे।

स्थानीय जनता में आतंकवादियों को शरण देने और उनकी सहायता करने वाले तत्व सुरक्षा बलों के रास्ते में अनेक व्यवधान भी पैदा करते हैं। इन विपरीत परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए सुरक्षा जवानों को विशेषाधिकारों की जरूरत होती है। इन विशेषाधिकारों में यह प्रावधान भी है कि यदि कोई सैनिक थोड़ी-बहुत गलती कर भी देता है तो उसकी जांच पड़ताल सेना के अधिकारी करेंगे, न कि स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी। इसी प्रकार सैनिकों के मामले की सुनवाई आम अदालतों में नहीं होगी। इसके लिए बकायदा सैन्य कोर्ट मार्शल की व्यवस्था होगी।

अलगाववाद बनाम सुरक्षा बल

जम्मू-कश्मीर के अलावा भारत के अन्य आतंकग्रस्त क्षेत्रों मणिपुर सहित पूर्वोंत्तर के कुछ राज्यों में भी भारतीय सुरक्षा बलों को ऐसे ही विशेषाधिकार प्राप्त हैं। सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार आतंकग्रस्त क्षेत्रों में तैनात सुरक्षाबलों को तब तक हटाना अथवा उनके खास अधिकारों को वापस ले लेना ठीक नहीं होता, जब तक कि वह क्षेत्र आतंकवाद से पूर्णतया मुक्त न हो जाए। जम्मू-कश्मीर जैसे सीमांत प्रदेश, जिसमें पाकिस्तान प्रायोजित आतंक का बोलबाला है, से सुरक्षा बलों को हटाने का अर्थ होगा पाकिस्तानी सशस्त्र घुसपैठियों को प्रोत्साहन देना।

वार्ताकारों को पूरे डेढ़ वर्ष तक माथापच्ची करने के बाद इतना भी समझ में नहीं आया कि जम्मू-कश्मीर में तैनात भारतीय सुरक्षा बलों का विरोध वही लोग कर रहे हैं जो या तो पाकिस्तान समर्थक हैं अथवा कट्टर अलगाववादी नेता हैं, जो कभी भी जम्मू-कश्मीर में भारत अथवा भारतीयों को देखना नहीं चाहते। कश्मीर को पूर्णत: हिन्दू-विहीन करके अब सैन्यविहीन करने की अलगाववादी साजिशें अंतिम चरम में पहुंच चुकी हैं।

नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसे कश्मीर केन्द्रित राजनीतिक दल सुरक्षा बलों और उनके विशेषाधिकारों का विरोध इसलिए कर रहे हैं ताकि कट्टरवादी एवं अलगाववादी संगठन प्रसन्न रहें और बहुमत वाले समाज के थोक वोट उनकी झोली में चले जाएं। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी का हिन्दू बहुमत वाले जम्मू संभाग और बौद्ध बहुमत वाले लद्दाख में कोई वजूद नहीं है। इसलिए इनके द्वारा अलगाववादियों को खुश किया जाना इनकी राजनीतिक मजबूरी भी कहा जा सकता है। इन दोनों दलों को अपने राजनीतिक उद्देश्य स्वायत्तता और स्वशासन की पूर्ति में भारतीय सुरक्षा बल सबसे बड़ी बाधा नजर आते हैं।

निर्दोष हैं सुरक्षा जवान

सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और सभी अलगाववादी संगठन भारतीय सुरक्षा बलों पर तरह-तरह के एकतरफा आरोप लगाकर कश्मीर के आवाम को बरगलाने का काम करते रहते हैं। जबकि यह सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि भारतीय सुरक्षा बलों का वैसा घटिया और गैर इंसानी व्यवहार कश्मीर में नहीं है, जैसा पाकिस्तानी सेना का पाक अधिकृत कश्मीर, बलूचिस्तान, वजीरिस्तान और सिंध प्रांत में है। यह भी एक सच्चाई है कि आज तक गठित किए गए प्राय: सभी जांच आयोगों ने भारतीय सुरक्षा बलों को कठघरे में नहीं खड़ा किया है।

यहां तक कि एक समय पर गठित कथित मानवाधिकारवादी वर्गीज समिति ने भी भारतीय सुरक्षा बलों को निर्दोष ही पाया था। अफसोस इस बात का है कि आतंकवादियों की मौत पर आंसू बहाने वाले अनेक मानवाधिकार संगठनों ने शहीद होने वाले भारतीय सुरक्षा बलों के जवानों पर कभी एक भी आंसू नहीं बहाया। यह सुरक्षा जवान जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की सुरक्षा हेतु अत्यंत दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों तक तैनात रहकर पाकिस्तानी सशस्त्र घुसपैठियों का सामना करते हैं।

भारतीय सेना पर कश्मीरियों को गुलाम बनाने और बहू-बेटियों की इज्जत लूटने जैसे बेबुनियाद आरोप लगाने वाले अलगाववादी नेता और अब यह सरकारी वार्ताकार इतना भी नहीं समझ सके कि जिस दिन भारत की सेना कश्मीर से हटेगी, उसी दिन पाकिस्तान का खतरा बढ़ जाएगा और आतंकवाद जोर पकड़ लेगा।

पुनर्जीवित हो जाएगा आतंकवाद

ऐसी हालत में कश्मीर का आम नागरिक अपने आपको असुरक्षित महसूस करेगा। पाकिस्तान प्रशिक्षित घुसपैठियों द्वारा कश्मीर के शहरों, कस्बों और गांवों में मां-बहनों की इज्जत लूटने और उनकी हत्याओं के ढेरों उदाहरणों से कश्मीरी नेताओं और हमारे वार्ताकारों को सबक सीखना चाहिए। ऐसे असंख्य अवसरों पर भारतीय सेना के जवानों ने कश्मीरी समाज की रक्षा की है।

दुर्भाग्य से अगर भारत सरकार ने वार्ताकारों की बात मानकर कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों के शिविरों और उनके विशेषाधिकारों को समाप्त करने का राष्ट्रविरोधी कदम उठा लिया तो पूरा जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान समर्थित तत्वों के हाथों में पहुंच जाएगा। भारतीय सुरक्षा जवानों की मेहनत और कुर्बानियों के फलस्वरूप दम तोड़ रहा आतंकवाद पुन: जीवित हो उठेगा।

जम्मू-कश्मीर की जिस पुलिस बल को शांति व्यवस्था के सारे अधिकार सौंपने की सिफारिश की जा रही है उसमें अलगाववादी तत्वों की मौजूदगी कई बार सामने आ चुकी है। पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध जारी है। वार्ताकारों को यह पता होना चाहिए कि युद्ध का मुकाबला सेना को ही करना है न कि पुलिस को। पिछले 22 वर्षों से पाकिस्तान प्रशिक्षित घुसपैठिए जम्मू-कश्मीर में आपरेशन टोपक के तहत जम्मू-कश्मीर के नागरिकों और भारतीय सुरक्षा बलों के साथ छद्म युद्ध जारी रखे हुए हैं।

सुरक्षा बलों को छूट जरूरी

भारतीय सुरक्षा बलों का आतंकवादियों पर दबाव बढ़ रहा है। और किसी हद तक आतंकवादी हताश हो चुके हैं। आतंकवादियों के आका पाकिस्तान की अपनी भीतरी हालत बिगड़ रही है। कश्मीर घाटी की जनता रोज-रोज की हिंसा से तंग आ चुकी है। इन परिस्थितियों में सुरक्षा बलों को खुलकर कार्रवाई करने के अधिकार देकर आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने की रणनीति भारत सरकार को बनानी चाहिए।

आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट के निरस्त होते ही जम्मू-कश्मीर की हालत 1989 जैसी हो जाएगी। उस समय भी जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की गठबंधन सरकार और केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों की तैनाती घटाने की भयंकर भूल कर डाली थी। परिणामस्वरूप आतंकवाद ने पांव पसार लिए। इतिहास साक्षी है कि जब भी जम्मू-कश्मीर में फौजी टुकड़ियां हटाई गईं अथवा कम हो गईं, तब आतंकी संगठन मजबूत हुए और हिंसक घटनाएं बढ़ीं।

पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकी घुसपैठियों का भारत में घुसने के लिए पहला प्रवेश द्वार है कश्मीर घाटी। पिछले दो-तीन दशकों में भारत में जितनी भी आतंकी घटनाएं हुई हैं उन सबके तार कश्मीर से जुड़े हुए पाए गए हैं। लिहाजा जम्मू-कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों की मजबूती सारे देश की सुरक्षा के लिए जरूरी है।

जीवित है पाक प्रेरित दैत्य

जम्मू-कश्मीर पुलिस बल पाक प्रेरित आतंकवाद से निपटने में पूर्णत: अक्षम है। स्वयं मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के अनुसार सीआरपीएफ की 72 बटालियनें जम्मू-कश्मीर के भीतरी इलाकों में तैनात हैं। जबकि जम्मू-कश्मीर पुलिस बल की संख्या मात्र 32 बटालियनों तक सीमित है। इस बल के पास आधुनिक हथियारों और प्रशिक्षण की भी कमी है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सारी सुरक्षा व्यवस्था इस बल के हाथों सौंपने के कितने खतरनाक नतीजे होंगे।

यह ठीक है कि जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद को मिटाने के लिए भारतीय सुरक्षा बलों ने बहुत हद तक सफलता प्राप्त कर ली है, तो भी पाक प्रेरित दैत्य पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। सरकारी सुरक्षा एजेंसियों के आंकड़ों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में अभी भी 800 से ज्यादा आतंकी मौजूद हैं। पाकिस्तान तथा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चल रहे 100 से भी ज्यादा प्रशिक्षण शिविरों में हजारों आतंकी तैयार होकर कश्मीर में घुसने का मौका तलाश रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों के पास आधुनिक हथियारों के जखीरे हैं। आतंकियों के कब्जे से बड़ी मात्रा में पाकिस्तान और चीन में बने हथियार पकड़े गए हैं। यह आतंकवादी यदा-कदा भारतीय सुरक्षा बलों के शिविरों और गाड़ियों पर गुरिल्ला विस्फोट करते रहते हैं। सुरक्षा जवान इनसे लोहा लेकर कश्मीर के नागरिकों की सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर        रहते हैं।

कश्मीर के संबंध में कांग्रेसी सरकारों द्वारा 1947 से लेकर आज तक की गईं सैकड़ों भयंकर भूलों में एक और भूल, जम्मू-कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के विशेषाधिकारों का अंत और भारतीय सैन्य टुकड़ियों की वापसी जुड़ने जा रही है। यदि भारत की जनता और राजनीतिक दलों ने दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर पूरी ताकत से एकजुट होकर इन सरकारी वार्ताकारों की रपट का विरोध न किया तो पूरा जम्मू-कश्मीर पाक-परस्त अलगाववादियों के कब्जे में चला जाएगा। भारत को बचाने के लिए कश्मीर को बचाना जरूरी है।

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