मैं अभी कुछ और जीना चाहता हूं!!
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साहित्यिकी
डा. तारादत्त 'निर्विरोध'
संदली बहकी हवाओ लौट जाओ,
मैं अभी कुछ और जीना चाहता हूं!!
रात कोई पास आकर कह रहा था,
समय से ज्यादा उमर होती नहीं है।
अंत जिसका हो नहीं संसार में आ,
सांस की ऐसी डगर होती नहीं है।
मैं नहीं मानता इस सत्य को अब,
घाव मन के और सीना चाहता हूं।
मैं अभी कुछ और जीना चाहता हूं!!
नीड़ के निर्माण मैंने जो किए हैं,
बहुत संभव रूप उनका बदल जाए।
हाथ में मेरे समय की जो अंगूठी,
एक दिन वह अंगुलियों से निकल जाए।
चमक पर अपनी नहीं वह खो सके फिर
एक मैं ऐसा और नगीना चाहता हूं।
मैं अभी कुछ और जीना चाहता हूं!!
जानता हूं वृक्ष कितने ही सबल हों,
आंधियों के कण गिराते हैं उन्हें भी।
पांव चाहे छोड़ दें पद्चिह्न लेकिन,
पवन के झोंके मिटाते हैं उन्हें भी।
जन्म से पर कंठ विषपायी रहा मैं,
प्रकृति का रस और पीना चाहता हूं।
मैं अभी कुछ और जीना चाहता हूं!!
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