मीनार और बुर्के पर पाबंदी के पश्चात् जर्मनी में खतना पर प्रतिबंध
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इस्लाम पर्दे का समर्थन करता है। लेकिन पर्दे के नाम पर मुल्ला-मौलवी इस प्रकार के फतवे जारी करते हैं जिससे मुस्लिम महिलाओं का जीना हराम हो जाता है। इस्लाम के जन्म के समय अरबस्तान में महिलाओं की जो दयनीय स्थिति थी उसे देखते हुए इस्लाम के प्रणेताओं ने पर्दा प्रथा को अपनाया था। लेकिन कट्टरवादियों ने पर्दे के नाम पर मुस्लिम महिला को दूसरे स्तर का नागरिक बना दिया। इसके विरुद्ध मुस्लिम महिलाएं संघर्ष भी कर रही हैं, लेकिन उनकी स्थिति आटे में नमक के समान है। इस कट्टरवादी पहचान के मिथक को यूरोप के अनेक देशों ने अपनी सुरक्षा के लिए चुनौती के समान माना है। इसलिए पिछले दिनों बहुत सारे देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है। फ्रांस इसमें आगे है।
खोखली सोच
पर्दे के समान कट्टरवादियों ने मस्जिद के मीनारों को भी इस्लाम से जोड़ दिया है। मीनार तो स्थापत्य कला का एक अंग है। वह छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। अब कोई इसे इस्लाम का प्रतीक मान ले तो इससे सच्चे और खरे इस्लाम का कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए कट्टरवादियों की यह सोच अत्यंत खोखली और हास्यास्पद है। यूरोप एक ईसाई-बहुल महाद्वीप है। इसलिए मुस्लिम कट्टरवाद को अब वे अपने देशों पर सांस्कृतिक और राजनीतिक हमला समझते हैं।
पिछले दिनों इस सम्बंध में जर्मनी में एक सनसनीपूर्ण घटना घटी है। वहां के एक जिला न्यायालय ने इस प्रकार का आदेश दिया है जिसकी समस्त दुनिया में चर्चा हो रही है। न्यायालय का कहना है कि मजहबी आधार पर बच्चों का खतना (सुन्नत), जिसे अंग्रेजी में 'सिरकमसीजन' कहा जाता है, उनके शारीरिक अंग के विरुद्ध एक अमानवीय कृत्य है। इसलिए इस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। इतना ही नहीं इस अदालत का यह भी आदेश है कि बच्चों की सुरक्षा सभी का पवित्र दायित्व है। इसलिए मजहबी आधार पर होने वाला खतना बच्चों की सुरक्षा के विरुद्ध है। इसलिए जो डाक्टर ऐसा करते हैं वे अपराधी हैं। उनका यह काम बच्चों को यातना देने और उन्हें शारीरिक एवं मानसिक रूप से त्रास देना है। जर्मनी का कोई कानून किसी घरेलू अथवा अपने पारिवारिक सदस्य के शरीर को आघात पहुंचाने का अधिकार अपने संरक्षकों को नहीं देता है। जर्मनी में पैदा होने वाला बालक राष्ट्रीय सम्पत्ति है इसलिए उसके जीवन को यदि किसी कार्य से खतरा है तो यहां का कानून ऐसा करने वालों के विरुद्ध सख्ती से कार्रवाई करेगा। परिवारजन के अतिरिक्त यदि बाहर का कोई भी व्यक्ति बच्चे को मानसिक और शारीरिक रूप से दुखी करने का प्रयास करेगा तो कानून उस पर भी कार्रवाई करेगा। यानी बच्चे की सुन्नत करवाने में परिवार जितना दोषी होगा उतना ही जो सुन्नत करेगा, वह भी समान रूप से अपराधी माना जाएगा। दोनों ही कानून के तहत जर्मनी के अपराधी होंगे।
मुस्लिम-यहूदी साथ-साथ
खतना करवाने के मामले में जितने दोषी मुसलमान हैं, उतने ही यहूदी भी हैं, क्योंकि यहूदियों के यहां भी सुन्नत करवाना मजहबी रूप से अनिवार्य है। इसलिए अदालत का उक्त फैसला आ जाने के बाद जर्मनी के मुस्लिम और यहूदी मिलकर इस लड़ाई को लड़ रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि यहूदी और मुसलमानों में 36 का आंकड़ा है। लेकिन सुन्नत के संकट ने दोनों को संगठित कर दिया है। मध्य एशिया से निकलने वाले तीनों मत के पितामह हजरते इब्राहीम हैं। यहूदी और ईसाई उन्हें अब्राहम के नाम से पुकारते हैं। यहूदियों का कहना है कि यह हमारे पितामह का आदेश है, जिसे वे 'सुन्नते इग्राहीम' के नाम से पुकारते हैं। उनका आदेश उनके अनुयायियों के लिए मजहबी आदेश है तो फिर वे उनका यह आदेश क्यों नहीं मानते हैं? इसका स्पष्टीकरण कोई नहीं देता है। इस्लामी मजहबी कम्युनिटी के चेयरमैन अली वमीर और यहूदियों की सेंट्रल काउंसिल के अध्यक्ष वतरग्रामाओ ने एक जैसी वाणी में इस फैसले को उत्तेजित कर देने वाला एवं अन्य पंथों में हस्तक्षेप करने वाला बताया है। वतरग्रामाओ ने जर्मन संसद से इस मामले में सार्वजनिक रूप से स्पष्टीकरण देने की मांग की है।
इतना ही नहीं, उन्होंने इस बात को भी याद दिलाया है कि 1990 में जर्मनी की अदालत ने मजहबी स्वतंत्रता के पक्ष में अपना निर्णय दिया था। उस समय संसद ने भी कहा था कि जर्मनी में किसी भी पंथ के प्रति भेदभाव नहीं होगा। यहां किसी की भी आस्था को कोई चोट नहीं पहुंचाएगा। ईसाई और मुस्लिम नेताओं ने यह भी सवाल उठाया कि भविष्य में तो यह भी मुद्दा विवादास्पद बन जाएगा कि बालकों को कितनी आयु में और कब मजहबी शिक्षा दी जाए। नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाले उर्दू साप्ताहिक 'नई दुनिया' (9 से 15 जुलाई 12 का अंक) ने भी जर्मनी की अदालत के इस फैसले पर तीखी टिप्पणी की है। उसका कहना है कि खतना मुस्लिम और यहूदियों का बुनियादी मजहबी अधिकार है। जर्मनी के मुस्लिमों का यह सवाल है कि आज जो प्रश्न उठाए जा रहे हैं वे इससे पहले क्यों नहीं उठाए गए? क्या जर्मनी सहित सम्पूर्ण यूरोप में मुस्लिम पहली बार मस्जिदों का निर्माण कर रहे हैं? इससे पहले न तो कभी मीनारों का सवाल उठा था और न ही कभी बुर्के का। इसी प्रकार जर्मन मुस्लिम और यहूदी वर्षों से खतना भी करवाते रहे हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि जर्मनी में यहूदी और मुसलमानों को एक विशेष राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रताड़ित किया जा रहा है। इस सम्बंध में जर्मन के दैनिक समाचार पत्रों में 'सम्पादक के नाम पत्र' स्तम्भ में जर्मन नागरिक यह कारण बता रहे हैं कि इससे पूर्व उनका यह साम्प्रदायिक और अलगाववादी दृष्टिकोण उन्हें देखने के लिए नहीं मिला था। लेकिन जब मुस्लिम अपने संस्कारों के नाम पर कट्टरवाद फैला रहे हैं तो उनके मन में भय पैदा होना स्वाभाविक बात है। जर्मनियों के पंथ और संस्कृति को यदि खतरा पहुंचता है तो फिर अपने देश और संस्कृति के लिए उन्हें पलटवार करने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रह जाता है। खतना की परम्परा कब से प्रारम्भ हुई? इसके इतिहास की खोज करते हैं तो पता चलता है कि सदियों से यह परम्परा यमन एवं फिलीस्तीन के आदिवादियों में थी। आज भी विश्व के कुछ समाज में यह प्रथा जारी है। इसका पता तब चला जब विश्व मानव अधिकार आयोग के सम्मुख कुछ प्रगतिशील लोगों ने प्रदर्शन किया और उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। अधिकांश लोगों का यह मानना है कि यह रिवाज एशिया और अफ्रीका के कुछ आदिवासियों में आज भी प्रचलित है।
खतना के समर्थकों का कहना है कि इससे पुरुषों में होने वाली अनेक बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है। एड्स के लिए यह सबसे प्रभावी इलाज है। इसलिए अनेक डाक्टर सुन्नत कराने का परामर्श देते हैं। साप्ताहिक नई दुनिया लिखता है कि राष्ट्रसंघ ने अफ्रीका सहित दुनिया के बहुत सारे देशों में अपने विशेषज्ञ भेजे हैं जो एड्स की रोकथाम के लिए काम करते हैं और लोगों को खतना कराने की सलाह देते हैं। पत्र का यह भी कहना है कि अमरीकियों को इस सम्बंध में गंभीरता से विचार करना चाहिए, क्योंकि सेक्स से जुड़ी सबसे अधिक बीमारियां अमरीका में हैं। अमरीका में अब सुन्नत का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। खतना के सम्बंध में पिछले दिनों अमरीका में एक सम्मेलन हुआ था जिसमें 80 राष्ट्रों ने भाग लिया था।
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