सत्ता के विश्वास
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साहित्यिकी
डा. दयाकृष्ण विजय 'वर्गीय'
कोटि कुटीर अंधेरे डूबे मांगें आज उजास,
भ्रम ही सिद्ध हुए अब तक के सत्ता के विश्वास।
गये प्रतीक्षा करते – करते
वर्ष पैंसठ बीत,
धनिकों से ही लोकतंत्र ने
अब तक जोड़ी प्रीत;
दिया योजनाओं तक ने वंचित को वनवास।
भ्रम ही सिद्ध हुए अब तक के सत्ता विश्वास।
वचनों से तो कभी न लगती
सत्ता हुई दरिद्र,
मसली किन्तु न क्वारे हाथों
में जा सकी हरिद्र;
मीठे स्वप्न देखते मन के सपने हुए उदास।
भ्रम ही सिद्ध हुए अब तक के सत्ता के विश्वास।
बदला प्रथम योजनाओं के
चिन्तन का गन्तव्य,
जोड़ें डाल – पात को बिसरा
धरती से मन्तव्य,
पीछे–पीछे दौड़ चलेगा अपने आप विकास।
भ्रम ही सिद्ध हुए अब तक के सत्ता के विश्वास।
* हरिद्र– पीला चंदन
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