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संस्कार ऐसे होते हैं

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Jul 14, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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संस्कार ऐसे होते हैं

दिंनाक: 14 Jul 2012 17:15:56

बाल कहानी

हरिशंकर काश्यप

प्राचीन काल की बात है। कहा जाता है कि तब पशु-पक्षी मनुष्यों की तरह बातें करते और बोलते थे। एक राजा के यहां एक घोड़ी थी बड़ी सुन्दर, तेज दौड़ने वाली और स्वामिभक्त। उसकी एक बेटी भी थी। वह भी अपनी मां की तरह सब प्रकार से स्वस्थ और बलिष्ठ थी। किन्तु उसकी एक आंख खराब थी। उसे सब कानी कह कर चिढ़ाते थे। एक दिन उसने अपनी मां से कहा, 'मां, तुम्हारी ही तरह मैं सुन्दर, तन्दुरुस्त और बलवान हूं, पर क्या कारण है कि मेरी एक आंख फूटी है? मैं कानी क्योंकर हुई?'

पहले तो घोड़ी ने बात बदलने की, टालने की बहुत कोशिश की पर उसकी हठ देख कर उसने बताया, 'बेटी, जब तू मेरे पेट में पल रही थी, राजा मुझे लेकर शिकार को गया। एक हिरन के पीछे मैं दौड़ी, राजा मेरी पीठ पर बैठा था। हिरन पलटा और तेज भागा पर मुझे पलटने में तनिक देर लग गई। राजा को गुस्सा आ गया। उसने सटाक्‌ से एक चाबुक मुझे लगा दिया। उस चाबुक की मार के कारण तेरी एक आंख फूट गई। इस कारण तू कानी पैदा हुई।'

वह बोली, 'मां, यह तो राजा ने बहुत बुरा किया। यह तो सरासर अन्याय है। मैं इस अन्याय का बदला अवश्य लूंगी।' बच्ची की बात सुन कर मां ने कहा, 'बेटी, ऐसी बात नहीं है। हमारा राजा, हमारा मालिक है। वह बहुत अच्छा आदमी है। वह हमारी सब प्रकार देख भाल करता है। खूब अच्छा-अच्छा खाने को देता है। हमारी कई पीढ़ियां यहीं, इसी राजा के परिवार में पलीं, बढ़ीं और मरी हैं। राजा के हमारे वंश पर बड़े उपकार हैं। हमें उसका अहित नहीं सोचना चाहिए।'

पर वह न मानी। वह अपनी हठ पर अड़ी रही। तब मां ने उसे समझाया और कहा, 'बेटी, शिकार में ऐसा होता ही है। राजा को यह  पता भी न था कि तू मेरे पेट में है। अन्यथा वह मुझे शिकार में ले ही न जाता। हम राजा के ऋणी हैं। हम राजा के उपकारों को कभी नहीं भूल सकते। हम कई जन्मों में भी उसका ऋण नहीं चुका सकते। हमें कृतघ्न नहीं होना चाहिए। ऐसा दयालु और उदार राजा तो खोजने पर भी कहीं नहीं मिलेगा। तू बदले की बात अपने मन से निकाल दे। ऐसा सोचना भी पाप है। ऐसा परोपकारी राजा बड़े भाग्य से ही प्राप्त होता है। हमें जन्म भर उसकी सेवा करनी चाहिए।'

पर उस नन्हीं घोड़ी ने निश्चय कर लिया, 'मैं इस राजा से अपने अपमान का बदला अवश्य लूंगी।' मां सदा उठते-बैठते, खाते-पीते खेलते और सोते समय बच्ची के कानों में  राजा के उपकार की गाथा सुनाती और कहती, 'बेटी, राजा को हानि न पहुंचाना वरना हमारा उद्धार नहीं होगा। इस राजा के बड़े उपकार हमारे ऊपर हैं।'

कई वर्ष बीत गए। घोड़ी अब अशक्त और बूढ़ी हो चली थी। पर यह बच्ची अब जवान घोड़ी बन गई थी। पड़ोस के दूसरे राजा ने इस राजा के राज्य पर चढ़ाई कर दी। राजा युद्ध के लिए इस नई घोड़ी पर जाने को तैयार हुआ। चलते समय बूढ़ी मां ने समझाकर कहा, 'बेटी, आज तेरी परीक्षा की घड़ी है। मैंने तुझे आज के दिन के लिए ही जन्म दिया था। तू राजा की सब प्रकार से रक्षा कर उसे विजयी बनाकर लाना।' उसने कोई उत्तर न दिया, वह चुप रही।

नई घोड़ी ने अपना बदला लेने का यही सबसे अच्छा अवसर समझा। उसने मन ही मन कहा, 'आज मैं बिना बदला लिए नहीं रहूंगी। मैं राजा को उसके किए का दण्ड अवश्य दूंगी।' राजा घोड़ी पर बैठ कर युद्ध के लिए चल दिया। दोनों ओर की सेनाएं एक-दूसरे से भिड़ गईं। बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। मार-काट मची थी। कई बार घोड़ी ने मन में सोचा, अच्छा रहे, राजा गिर कर मर जाए। उसने गिराने की सोची भी पर प्रत्येक बार उसके कानों में मां के स्वर गूंज उठते, 'बेटी, हमारे वंश पर राजा के अनेक उपकार हैं। उसे विजयी बना कर ही लाना। आज तेरी परीक्षा का दिन है। मैंने तुझे आज के दिन के लिए ही जन्म दिया है।'

वह बदला लेने की बात भूल कर अपने स्वामिभक्त होने का ही परिचय देती रही। घोड़ी ने बड़े साहस, अद्भुत पराक्रम और कुशलता को ही दर्शाया। वह सचमुच राजा को विजयी बना कर बड़ी शान और अभिमान से लौटा लाई। यद्यपि घोड़ी को कई जगह चोटें आईं पर उसने राजा का बाल भी बांका नहीं होने दिया। राजा ने आते ही घोड़ी के उपचार आदि की व्यवस्था की।

मां, आज प्रसन्न थी। उसने घोड़ी (बच्ची) के शरीर पर तीरों और भालों के घाव देखकर कहा, 'तू तो राजा से बदला लेने वाली थी, पर तू तो आज उसे सुरक्षित और विजयी बना कर लौटा लाई है। सचमुच तूने वंश की लाज रख ली।' बच्ची, जवान घोड़ी ने कहा, 'मां, जब भी मैंने बदला लेने को सोची, तेरे कहे शब्द मेरे कानों में गूंजने लगते। मां, मुझे क्षमा कर और आशीर्वाद दे कि मैं कर्तव्य न भूलूं।' सच है संस्कार ऐसे ही होते हैं। हम संस्कारों के महत्व को समझें।

वीर बालक

साहसी सांवल्या

होनहार बिरवान के होत चीकने पात। किसी ने सच कहा है कि वीरता किसी आयु, जाति अथवा वर्ग से बंधी नहीं होती। सांवल्या महाराष्ट्र के एक निर्धन परिवार में जन्मा था। पर उसकी रगों में मालवों का सच्चा रक्त था। वह बचपन से ही तलवार का शौकीन था। भारतवर्ष में उस समय क्रूर मुगलों का शासन था।

महाराष्ट्र में शिवाजी का उदय हो चुका था। छत्रपति शिवाजी हिन्दू पद पादशाही की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने देशभक्त, बहादुर और सच्चे वीरों का संगठन कर एक बड़ी सेना तैयार की। हिन्दुस्थान में हिन्दू धर्म, गोरक्षा और स्त्री जाति के सम्मान की रक्षा के लिए वे वचनबद्ध थे।

सांवल्या किसी भी तरह शिवाजी महाराज की सेना में शामिल होना चाहता था। पर वह अभी छोटा था। उसने निश्चित कर लिया था कि वह शिवाजी महाराज की सेना में शामिल होकर अपने देश, धर्म और समाज की रक्षा करेगा। वह शिवाजी से मिलने के लिए लालायित था।

शिवाजी वेश बदलकर प्राय: राज्य की सुरक्षा व्यवस्था तथा प्रजा की दशा देखने रात्रि के समय निकला करते थे। एक बार ऐसे ही अवसर पर जब शिवाजी घोड़े पर सवार होकर राज्य की सीमा के पास चक्कर लगा रहे थे… तभी एक छोटा बालक हाथ में तलवार लिए उनके पास गया।

उसने तलवार निकालकर तान ली और जोर से ललकारा तुम कौन हो? हमारे राज्य की सीमा पार करने की तुमने हिम्मत कैसे की? क्या तुम्हें पता नहीं यह शिवाजी महाराज का राज्य है? यहां का बच्चा-बच्चा देश की रक्षा में प्राण देना जानता है।

उस काल में मुगल प्राय: चोरी-छिपे घुसकर लूट-पाट करते तथा मूर्तियों को नष्ट किया करते थे। सांवल्या ने ऐसा ही सुन रखा था। उसने शिवाजी महाराज को कभी भी नहीं देखा था। शिवाजी महाराज इस बालक की परीक्षा लेने के लिए घोड़े से उतरे और खड्ग खींच ली। सांवल्या तनिक भी नहीं घबराया और बोला खबरदार एक पग भी आगे बढ़ाया तो शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। भला चाहते हो तो लौट जाओ।

उसने बड़ी फुर्ती से शिवाजी पर वार किया। शिवाजी ने बचाकर ऐसा काट मारा कि सांवल्या की तलवार हाथ से दूर जा गिरी। सांवल्या ने बिजली की फुर्ती से तलवार उठा ली और क्रुद्ध होकर शिवाजी पर झपटा। शिवाजी पलक झपकते घोड़े पर बैठकर अदृश्य हो गये। सांवल्या धूल उड़ती देखता रह गया। वह पछताता रह गया।

शिवाजी ने दुर्ग में पहुंचकर सांवल्या को बुलवाया और उसे अपनी सेना में ऊंचा पद प्रदान किया। सांवल्या यह देखकर कि उस दिन वह जिस व्यक्ति से भिड़ा था, वे ही महाराज शिवाजी थे, वह उनके चरणों में गिर पड़ा। बाद में स्वराज्य स्थापना के लिए युद्ध में वीरगति पाकर सांवल्या सदैव के लिए अमर हो गया।

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प्यारा गांव

शहर से गांव बहुत है दूर,

वहां तो हैं खुशियां भरपूर।

धुआं मिले न वहां पे काला,

मिलता वहां खेत हरियाला।

भीनी–भीनी हवा सुहानी,

नदी, कुंओं का मीठा पानी।

नहीं वहां पर शहर सा शोर,

वहां तो नाच दिखाता मोर।

पेड़ों पर इठलाए गिलहरी,

भाए कोयल की स्वर लहरी।

गांव मुझे है बहुत लुभाता,

सारी छुट्टी वहीं मनाता।

आशीष शुक्ला

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