गांधी जी ने कांग्रेस क्यों छोड़ी?-3हरिजन आंदोलन से डरी सरकार
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हरिजन आंदोलन से डरी सरकार
देवेन्द्र स्वरूप
अप्रैल, 1947 में गांधी जी ने राजकुमारी अमृत कौर के नाम एक पत्र में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडानल्ड द्वारा 15 वर्ष पहले 17 अगस्त, 1932 को घोषित 'साम्प्रदायिक निर्णय' को भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध ब्रिटिश साम्राज्यवाद का षड्यंत्र कहा था। इस षड्यंत्र को विफल कराने के लिए उन्हें आमरण अनशन के द्वारा अपने प्राणों की बाजी तक लगानी पड़ी थी, जिसमें से 25 सितम्बर, 1932 का 'पूना पैक्ट' निकला था। इससे हिन्दू समाज के दो फाड़ होने का संवैधानिक खतरा तो फिलहाल टल गया था, पर ब्रिटिश षड्यंत्र अभी चालू ही था। हिन्दू समाज की जाति संरचना में अस्पृश्यता की विभाजन रेखा खोजने और तथाकथित अस्पृश्य जातियों को अलग पहचान देने के लिए वे उनके लिए अलग नामाभिधान खोज रहे थे।
दलित या हरिजन
1901 के आसपास उन्होंने जो 'दलित वर्ग' जैसा शब्द उछाला था, उसे डा.अम्बेडकर व एम.सी.राजा आदि नेताओं ने सिरे से नकार दिया था। प्रथम गोलमेज सम्मेलन के अंत में, 4 नवम्बर, 1931 को, डा.अम्बेडकर ने अपने पूरक प्रतिवेदन में स्पष्ट शब्दों में लिखा, 'दलित वर्ग' के लोगों को इस 'दलित वर्ग' नाम पर सख्त आपत्ति है। इसलिए नए संविधान में हमें 'दलित वर्गों' की बजाय 'गैर-सवर्ण हिन्दू' या 'प्रोटेस्टेंट हिन्दू' या 'शास्त्र-बाह्य हिन्दू' जैसा कोई नाम दिया जाए। पुन: 1 मई, 1932 को लोथियन कमेटी को एक प्रतिवेदन में उन्होंने लिखा कि 'आपकी कमेटी के सामने अधिकतर नेताओं ने इस नाम पर आपत्ति की है। यह नाम भ्रम पैदा करता है कि 'दलित वर्ग' कहलाने वाला समाज पिछड़ा और बेसहारा है, जबकि सच यह है कि प्रत्येक प्रांत में हमारे बीच खाते-पीते और सुशिक्षित लोग भी है…इन सब कारणों से 'दलित वर्ग' शब्द प्रयोग बिल्कुल अनुपयुक्त और अवांछित है।' उधर एम.सी.राजा और उनकी दलित वर्ग एसोसिएशन ने 21-22 फरवरी, 1932 को एक प्रस्ताव पारित कर अपने समाज के लिए 'आदि हिन्दू' नाम स्वीकारने की प्रार्थना की। लेकिन वंचित वर्ग के दो शीर्ष नेताओं की ओर से आने वाली यह मांग अंग्रेज सरकार को क्यों स्वीकार्य होती? क्योंकि जो नाम वे सुझा रहे थे, वे तो उनकी जातियों को 'हिन्दू समाज' का अंग मान रहे थे जबकि ब्रिटिश सरकार की रणनीति उन्हें हिन्दू समाज से तोड़ने की थी, उन्हें अलग पहचान देने की थी।
ब्रिटिश सरकार इस वर्ग के लिए उपयुक्त शब्द खोजने की उधेड़बुन में लगी ही थी कि गांधी जी ने गुजरात के प्रसिद्ध कवि नरसी भगत के अभंगों में से 'हरिजन' शब्द उठाकर तथाकथित दलित वर्ग के लिए देश के सामने प्रस्तुत कर दिया। उस शब्द की पवित्रता और गांधी जी की लोकप्रियता के कारण वह शब्द अल्पकाल में ही सर्वमान्य बन गया । यहां तक कि डा.अम्बेडकर ने भी उसे शिरोधार्य कर लिया। गांधी जी ने 'हरिजन' शब्द को केवल उछाला ही नहीं बल्कि उसे जनमानस पर अंकित करने के लिए प्रबल देशव्यापी 'हरिजन आंदोलन' की कार्ययोजना और रूपरेखा तैयार की। उन्होंने जेल में बैठे-बैठे ही अपने साप्ताहिक पत्रों को 'हरिजन' (अंग्रेजी) और 'हरिजन सेवक' (हिन्दी व गुजराती) नाम दे दिया। 'हरिजन सेवक संघ' की स्थापना की, 'हरिजन फंड' के लिए अपील जारी कर दी, 8 मई से 29 मई तक जेल में ही 'अस्पृश्यता उन्मूलन' के लिए 21 दिन का उपवास रखा, जेल में बैठे-बैठे ही 'अस्पृश्यता उन्मूलन' के लिए एक के बाद एक 9-10 लेखों की श्रृंखला लिख डाली, शास्त्रकारों एवं धर्माचार्यों को अस्पृश्यता के विरुद्ध निर्णय देने का अनुरोध किया। अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए उनकी यह छटपटाहट जवाहर लाल नेहरू और उनके जैसी सोच रखने वाले अधिकांश कांग्रेसजनों को सहन नहीं थी। वे कांग्रेस को स्वतंत्रता प्राप्ति के एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में देखते थे और अस्पृश्यता निवारण के लिए 'हरिजन आंदोलन' को वे विशुद्ध धार्मिक और सामाजिक प्रश्न समझते थे। वे गांधी जी के 'हरिजन आंदोलन' को राजनीति में धार्मिक हस्तक्षेप के रूप में देखते थे।
गांधी जी का अन्तर्मन
अपनी सोच को स्पष्ट करने के लिए गांधी जी ने अनशन प्रारंभ करने से एक सप्ताह पहले 2 मई, 1933 को यरवदा जेल से पं. नेहरू को एक निजी पत्र लिखा। यह पत्र गांधी जी के अन्तर्मन को समझने में ऐतिहासिक महत्व रखता है। गांधी जी ने लिखा, 'जब मैं आने वाले उपवास के विरुद्ध जूझ रहा था, तब तुम मानो हाड़-मांस में मेरी आंखों के सामने खड़े थे। मेरी प्रबल कामना थी कि तुम इस उपवास की नितांत आवश्यकता को अनुभव कर पाओ। 'हरिजन आंदोलन' को केवल बौद्धिक प्रयास से समझना संभव नहीं है। दुनिया में इससे खराब कुछ और नहीं हो सकता। फिर भी मैं हिन्दू धर्म से पल्ला नहीं झाड़ सकता। यदि हिन्दू धर्म ने मुझे निराश किया तो मेरा जीवन ही मेरे लिए भार बन जाएगा। हिन्दू धर्म के द्वारा ही मैं ईसाइयत, इस्लाम एवं अन्य मत-पंथों से प्रेम करता हूं। इसको मुझसे ले लो तो मेरे पास कुछ नहीं रह जाता। किन्तु तब भी मैं इसे अस्पृश्यता और ऊंच-नीच की भावना के साथ स्वीकार नहीं कर सकता। सौभाग्य से हिन्दू धर्म के अंदर ही इस बुराई का अचूक इलाज उपलब्ध है और उसी इलाज को मैं आजमा रहा हूं। मैं चाहता हूं कि यदि हो सके तो तुम यह सब अनुभव करो।…यदि तुम अन्तरात्मा से सत्य को नहीं देख पा रहे तो मैं तुम्हें तर्क द्वारा नहीं समझा सकता।…'
वर्ण व्यवस्था– सिद्धांत और विकृतियां
नेहरू जी एवं अन्य कांग्रेस जनों की यह सोच गांधी जी के लिए कितनी पीड़ादायक रही होगी, यह सहज ही समझा जा सकता है। पर गांधी जी अस्पृश्यता के विरुद्ध 'हरिजन आंदोलन' को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते रहे। 1933 में ही उनकी प्रेरणा से 'सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली' में दो गैरसरकारी विधेयक हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश की कानूनी अनिवार्यता के लिए प्रस्तुत किये गये। प्रारंभ में वायसराय विलिंग्डन ने उन विधेयकों को पेश करने की अनुमति नहीं दी, किन्तु गांधी जी के खुले समर्थन के कारण अंतत: अनुमति दे दी गई। सरकार तो थोड़ा झुकी, पर अब डा. अम्बेडकर तनकर खड़े हो गये। वे वर्षों से हरजनों के मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन कर रहे थे, इसलिए स्वाभाविक अपेक्षा थी कि वे इन विधेयकों का स्वागत व समर्थन करेंगे। पर समर्थन करना तो दूर, उन्होंने पूरी तरह चुप्पी साध ली। गांधी जी ने दो वक्तव्य देकर उन्हें उनकी पुरानी मांग का स्मरण दिलाया और इन विधेयकों का समर्थन करने का अनुरोध किया। गांधी जी के अनुरोध को ठुकराते हुए डा.अम्बेडकर ने कहा कि अपने मंदिर अपने पास रखो, हम उनके बिना भी जीवित रह सकते हैं। अस्पृश्यता की जड़ें वर्ण व्यवस्था में हैं, और यदि गांधी वर्ण व्यवस्था को जड़-मूल से समाप्त करने को तैयार हों तो मैं इन विधेयकों का समर्थन करने की सोच सकता हूं। डा.अम्बेडकर की इस चुनौती पर गांधी जी और उनके बीच जो लम्बा पत्राचार चला, वह पठनीय है। गांधी जी ने उत्तर दिया कि मैं जातियों में छुआछूत और ऊंच- नीच की भावना को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए भी वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को अस्वीकार नहीं कर सकता। जिस दार्शनिक आधार पर वर्ण व्यवस्था का जन्म व विकास हुआ था, वह हिन्दू धर्म की विश्व सभ्यता को अनुपम देन है। हमें उसे समझने और कालक्रम से उसमें आयी विकृतियों को दूर करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए, और मैं उसी में लगा हुआ हूं।
अस्पृश्यता निवारण के प्रयोग
मंदिर प्रवेश विधेयकों के साथ-साथ गांधी जी केरल के गुरूवायूर मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के लिए केलप्पन के सत्याग्रह को खुला समर्थन दे रहे थे। उधर, बम्बई प्रांत की रत्नागिरि जेल में गांधी जी के 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' में बंदी बनाये गए अप्पा साहेब पटवर्धन और उनके ब्राह्मण साथियों ने जेल अधिकारियों से जेल में शौच साफ करने की अनुमति मांगी। उनका कहना था कि जेल अधिकारी अन्य प्रांतों से कैदियों को लाकर उन्हें शौच उठाने के लिए बाध्य करते हैं, उन्हें अलग पंक्ति में बैठाकर भोजन कराते हैं, उनके प्रति छुआछूत अपनाते हैं। यदि मल की सफाई का पेशा ही छुआछूत का कारण है तो हम भी वह पेशा अपनाने को तैयार हैं। पर जेल अधिकारी उन्हें यह अनुमति देने को तैयार नहीं थे, क्योंकि वे जन्म से ब्राह्मण थे। इस पर अप्पा साहेब और उनके साथियों ने अनशन पर जाने का निश्चय किया। गांधी जी दूसरी जेल में थे। उन्हें जब यह पता चला तो उन्होंने उसमें हस्तक्षेप किया। उन्होंने अपने साथियों के समर्थन में अनशन पर जाने की सूचना दी, जिससे घबराकर ब्रिटिश सरकार ने अप्पा साहेब एवं अन्य ब्राह्मण सत्याग्रहियों को जेल में अन्य कैदियों के भी मल को साफ करने की अनुमति दे दी। अप्पा साहेब पटवर्धन के इस आग्रह के पीछे गांधी जी का यह विचार था कि यदि मल सफाई के पेशे को अपनाने के कारण ही समाज के एक अंग को अस्पृश्य माना जाता है तो क्यों उच्च जातियों के लोग अपना मल स्वयं साफ नहीं करते? उन्होंने अपने आश्रम में यह प्रयोग आरंभ भी कर दिया था। गांधी जी ने स्वयं मल साफ करने का उदाहरण आश्रमवासियों के सामने रखा।
'हरिजन आंदोलन' का प्रभाव
ऐसे छुटपुट प्रयोगों के साथ-साथ गांधी जी अस्पृश्यता और ऊंच-नीच के विरुद्ध देशव्यापी अभियान छेड़ने की योजना मन ही मन तैयार कर रहे थे। इसी तैयारी के अन्तर्गत उन्होंने 13 अक्तूबर, 1933 को पूरे भारत का दौरा करने की घोषणा की और इस दौरे को हरिजन दौरे का नाम दिया। 7 नवम्बर को वर्धा से निकलकर उन्होंने नागपुर से यह दौरा प्रारंभ किया। 1934 के पूरे वर्ष यह दौरा चलता रहा। इस दौरे में वे उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक भारत के प्रत्येक प्रांत में गये। प्रत्येक प्रांत में छोटे-बड़े सब नगरों, कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण किया। हरिजनों में जागृति पैदा करने के लिए उनकी बस्तियों में गए, वहां सभाएं कीं, उनके नेताओं से बात की, शेष समाज को अस्पृश्यता को मिटाने का संकल्प लेने की प्रेरणा देने के लिए विशाल जनसभाएं सम्बोधित कीं। धर्माचार्यों एवं शास्त्रज्ञों से भेंट की, सवर्ण नेताओं से मिले, 'हरिजन फंड' इकट्ठा किया, जगह-जगह 'हरिजन सेवक संघ' की शाखाएं स्थापित कीं। अस्पृश्यता उन्मूलन का इतना बड़ा अभियान संभवत: इसके पूर्व कभी नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार इस अभियान से घबरा उठी। भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने प्रत्येक प्रांतीय गवर्नर को आदेश भेजा कि इस 'हरिजन दौरे' के अन्तर्गत गांधी जी जहां-जहां जाएं, वहां की विस्तृत रपट केन्द्र सरकार को भेजी जाए। उस रपट में गांधी जी के सब सार्वजनिक कार्यक्रमों की पूरी जानकारी हो। प्रत्येक स्थान पर उनकी प्रत्येक गतिविधि का वर्णन हो। प्रत्येक नगर में कौन लोग व संस्थाएं गांधी जी का विरोध करती हैं, कौन सक्रिय सहयोग देते हैं, और कौन तटस्थ रहते हैं, इसका सूक्ष्म वर्णन हो। गांधी जी के दौरे का वहां क्या प्रभाव पड़ा है, इसका आकलन हो। हरिजनों और सवर्णों पर उनके आगमन की क्या प्रतिक्रिया रही, यह बताया जाए।
प्रत्येक प्रांत और जिलों से भेजी गयी इन रपटों की मोटी-मोटी फाइलें नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध हैं, जिन्हें हमने देखा है। ब्रिटिश सरकार गांधी जी के इस 'हरिजन दौरे' में दो संभावनाएं खोज रही थी। उसे लगता था कि इससे सवर्ण हिन्दू समाज, जो गांधी जी के स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तरह उनका साथ दे रहा था, अस्पृश्यता के प्रश्न पर विभाजित हो जाएगा। कट्टरपंथी प्रभावशाली नेतृत्व उनके विरुद्ध खड़ा हो जाएगा। समाज पर अभी भी उसका भारी प्रभाव है, इस कारण गांधी जी की स्वतंत्रता की लड़ाई कमजोर पड़ेगी। अस्पृश्यता के प्रश्न पर गांधी से असहमति रखने वाले वर्ग को ब्रिटिश सरकार अपने साथ लाने का प्रयास करेगी। दूसरे, हरिजन कहलाने वाला वर्ग, जो स्वाधीनता आंदोलन के प्रति सहानुभूति का भाव रखने पर भी अपनी गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन के कारण उसमें सक्रिय योगदान नहीं कर पा रहा है, वह सनातन धर्म और कट्टरपंथी सवर्ण नेतृत्व के गांधी विरोधी रुख के कारण उनसे दूर रहेगा और हिन्दुओं के प्रति कटुता का भाव अपनाएगा। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार गांधी जी के इस सुधार आंदोलन को अपने लिए वरदान बनाने के अवसर ढूंढ रही थी। पर साथ ही, उसे हिन्दू एकता का डर भी सता रहा था।
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