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तेरहवीं शताब्दी के जिस कालखण्ड में योगीराज ज्ञानेश्वर का मराठा भूमि पर अवतरण हुआ, उस समय वौदिक धर्म पर कर्मकांड़ों और आडम्बरों का बहुत प्रभाव था। कुलीन ब्राह्मण वर्ग स्वयं को ही श्रेष्ठ और धर्म व समाज का दिशा-निर्धारक मान बैठा था। धर्म के नाम पर अनेक तरह की कुरीतियां और प्रथाएं प्रचलित थीं, जिसे मानने के लिए लोग बाध्य थे। ऐसे समय में संत ज्ञानेश्वर ने न केवल धर्म का वास्तविक अर्थ लोगों को बताया बल्कि समाज कल्याण का, भागवत धर्म के प्रचार का, जाति, वर्ण और वर्ग की दीवारें तोड़ने का संकल्प लिया। 27 वर्ष के अपने लघु जीवनकाल में ही उन्होंने समाज को धार्मिक कुरीतियों और आडम्बरों से मुक्त होकर जीवन के मूल उद्देश्य को समझने का आह्वान किया। वास्तव में ज्ञानेश्वर केवल संत, ज्ञानी और कवि ही नहीं थे बल्कि समाज को अंधकर से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देने वाले दिव्यात्मा भी थे।
उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को औपन्यासिक कलेवर में हाल में ही मराठी की सुप्रसिद्ध लेखिका शुभांगी भडभडे ने लिपिबद्ध किया, जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ समय पूर्व 'योगीराज ज्ञानेश्वर' शीर्षक से प्रकाशित होकर आया है। इसमें संत ज्ञानेश्वर के जीवन के अनेक पक्षों को बहुत ही सरल और सहज तरीके से प्रस्तुत किया गया है। कुल 22 अध्यायों में विभाजित इस जीवनगाथा में लेखिका ने संत ज्ञानेश्वर के लौकिक जीवन की लगभग सभी मुख्य घटनाओं को कथारूप में पिरोया है। योगीराज ज्ञानेश्वर का जीवन केवल इसलिए प्रेरक नहीं है कि उन्होंने 'ज्ञानेश्वरी' की रचना की, या फिर धर्म-कर्म-भक्ति के गूढ़ अर्थों को सरल शब्दों में व्याख्यायित किया, बल्कि उनका जीवन इसलिए भी अनुकरणीय है कि उन्होंने एक करुणामय मनुष्य बनने की प्रेरणा दी। इस उपन्यास से ज्ञात होता है कि उनके जीवन में अनेक ऐसे प्रसंग घटित हुए जब उन्हें घोर अपमान, उपेक्षा और व्यंग्यात्मक टिप्पणियों को सहन करना पड़ा। बावजूद इसके उनके शब्दों से, आचरण से और लेखन से कभी भी कोई कटु वचन किसी के लिए नहीं निकला। वास्तव में वह शांत प्रकृति की एक दिव्यात्मा थे, जिन्हें पता था कि व्यक्ति दुर्व्यवहार या कुकर्म अज्ञानतावश ही करता है। इसीलिए हर तरह की उपेक्षा, प्रताड़ना सहने के बाद भी वे सभी के लिए विश्वेश्वर से प्रार्थना करते रहे। सभी की सुख-समृद्धि और कल्याण के लिए ईश्वर की स्तुति करते रहे।
इसके साथ ही संत ज्ञानेश्वर अपनी लौकिक यात्रा पर्यन्त सगुण भक्ति का प्रसार भी करते रहे। कर्म को ही ईश्वर मानने वाले संत ज्ञानेश्वर के जीवन की अनेक घटनाएं हमें सहज जीवन जीने का संदेश देती हैं। लेखिका ने संत ज्ञानेश्वर के जीवन का बहुत गहराई से अध्ययन और मनन करने के बाद ही इस कृति की रचना की है, इस बात को पुस्तक पढ़कर समझा जा सकता है। संपूर्ण कथा में एक लयात्मकता के साथ सतत् प्रवाह और सहजता व्याप्त है। पढ़ते हुए ऐसा अनुभव होता है जैसे लेखिका के समक्ष ही सारे घटनाक्रम घटित हुए हैं। नि:संदेह धर्म में आस्था रखने वालों के लिए ही नहीं, जनसामान्य के लिए भी यह पुस्तक बहुत लाभप्रद और प्रेरक सिद्ध होगी।
पुस्तक का नाम – योगीराज ज्ञानेश्वर
लेखिका – शुभांगी भडभडे
प्रकाशन – प्रभात प्रकाशन
4/19, आसफ अली रोड़
दिल्ली-110002
मूल्य – 400 रुपए पृष्ठ – 360
स्वामी विवेकानंद के अमूल्य विचार
भारतीय धर्म-संस्कृति के नायक और सजग प्रहरी स्वामी विवेकानन्द पहले ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने भारत की आध्यात्मिक चेतना और सांस्कृतिक महानता को पश्चिमी देशों के समक्ष प्रस्तुत कर भारत की गरिमा को संवर्धित किया। धर्म-संस्कृति के प्रति गहन आस्थावान होने के बावजूद उन्होंने कभी इसके आडम्बरों और रूढ़िवादिता को स्वीकार नहीं किया। उनकी धार्मिक मान्यता मानव मात्र के कल्याण और उसके उत्थान से जुड़ी हुई थी। यही वजह है उन्हें हर पंथ, वर्ग और संप्रदाय में आदर-सम्मान मिला। राष्ट्र, मानवीयता, कर्तव्य, धर्म, ज्ञान, अहिंसा, ईश्वर, पवित्रता, भक्ति, प्रेम, विचार, विज्ञान, सत्य और शिक्षा जैसे अनेक विषयों पर उनके विचार न केवल उस दौर में बल्कि आज कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं। भारतीय वेदों-उपनिषदों में विद्यमान ज्ञान की अमूल्य निधि को उन्होंने पहली बार सरल भाषा में आम लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। स्वामी जी के ऐसे ही विषयों पर कुछ अमूल्य विचारों को संकलित कर गिरिराज शरण ने पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत किया है।
'मैं विवेकानन्द बोल रहा हूं' शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक के द्वारा उस महामानव के अमूल्य विचारों को जाना जा सकता है। आज के दौर में जब सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर इस देश में रहने वाला आम आदमी बेहद अशक्त और अनेक तरह की समस्याओं में उलझा हुआ स्वयं को महसूस कर रहा है, तब स्वामी जी के ये विचार एक आलोक स्तंभ के रूप में हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। जरूरत है तो बस इन उक्तियों को ईमानदारी से आत्मसात करने की।
कर्तव्य को परिभाषित करते हुए स्वामी जी कहते हैं,'अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनाने वाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है।' अगर उनकी इस परिभाषा को ही गहराई से देखें तो स्पष्ट होता है कि स्वामी जी की दृष्टि व्यक्तिवादी न होकर समष्टिवादी है। वह हर व्यक्ति को केवल उसी तरह के कार्य करने का उपदेश देते हैं जो स्वकल्याण के साथ ही सर्वकल्याण की भावना से जन्मा हो। कह सकते हैं कि अगर हम सभी अपने हर कार्य को करने से पहले केवल अपना ही नहीं बल्कि अपने समुदाय और पूरे समाज के कल्याण का ध्यान रखें तो मानव समाज का उत्कर्ष होना निश्चित है। पर विडम्बना यही है कि आज के अर्थ-प्रधान युग ने हम सभी को आत्मसुख और स्वहित तक ही केन्द्रित कर दिया है। पूरे समाज की तो बात ही क्या करें, हम अपने ही परिवार, अपने ही भाई, मां-बाप के सुख की परवाह नहीं करते, उनके प्रति अपने दायित्वों को पूरा करने से बचने का प्रयास करते हैं। यही वजह है कि पारिवारिक मूल्यों का विघटन ही हमें वृहद् स्तर पर सामाजिक विखराव के रूप में दिखाई पड़ता है।
पुस्तक में संकलित स्वामी विवेकानंद का प्रत्येक कथन गूढ़ निहितार्थों को समेटे हुए है। इन्हें पढ़ने, समझने और अपने जीवन में उतारे जाने की सख्त जरूरत है, तभी इस समाज, देश और संपूर्ण मानव समाज का कल्याण संभव है। इस दृष्टि से यह पुस्तक हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणास्रोत का काम कर सकती है, दिशा-निर्देशक का काम कर सकती है, जिसके मन में समस्त मानव जाति के लिए करुणा की भावना है, जो सर्वहित में ही आत्महित समझता है।
पुस्तक का नाम – 'मैं विवेकानंद बोल रहा हूं'
सम्पादक – गिरिराज शरण
प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान
1161, दखनीराय स्ट्रीट
नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली-110002
मूल्य – 200 रु.
पृष्ठ – 144
विभूश्री
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