लूट सके तो लूट…
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जनता दल को दगा देकर समाजवादी पार्टी बनाने वाले मुलायम सिंह यादव खुद को डा. राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह का शिष्य बताते हैं, पर उनकी राजनीति और समाजवाद, उनसे विपरीत नजर आते हैं। देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के सूत्रधार रहे लोहिया और चरण सिंह राजनीति में परिवारवाद के मुखर विरोधी थे, लेकिन खुद को 'नेताजी' कहलवाना पसंद करने वाले मुलायम की समाजवादी पार्टी है ही उनके परिजनों और रिश्तेदारों का जमावड़ा। मुलायम के बाहुबली प्रेम के किस्से तो अनंत हैं, उनके मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश यादव भी पिता के ही नक्शेकदम पर चल रहे हैं। हत्या समेत अनेक संगीन आरोपों से घिरे रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया उनके जेल मंत्री हैं। नतीजा सामने है-सौ दिन के ही शासन में उत्तर प्रदेश में अपराध के ग्राफ ने पूर्ववर्ती मायावती सरकार को बहुत पीछे छोड़ दिया है। भ्रष्टाचार की चर्चाएं भी चल ही निकली हैं। अब बारी करदाताओं की कमाई से बनने-बढ़ने वाले सरकारी खजाने की लूट की छूट की है। मुलायम के 'युवराज' ने फैसला सुनाया कि निर्वाचन क्षेत्र के विकास के नाम पर मिलने वाली राशि से विधायक अपने लिए 20 लाख रुपये तक महंगी कार खरीद सकेंगे। जिस राज्य में आम आदमी को बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर सुरक्षा तक कुछ भी उपलब्ध नहीं है, उस राज्य के माननीय विधायक क्षेत्र विकास निधि से बड़ी राशि महंगी कारों पर उड़ाते, पर उत्तर प्रदेश की जनता को उन दलों का आभारी होना चाहिए, जिन्हें नकार कर उसने सपा को चुना, क्योंकि उनके विरोध के चलते ही अखिलेश को 24 घंटे के अंदर अपना फैसला वापस लेना पड़ा। बहुजन समाज पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के विधायकों ने सरकारी खजाने की इस लूट में हिस्सा लेने से मना कर दिया और मीडिया ने भी तीखी प्रतिक्रिया जतायी। तब कहीं जाकर सरकारी खजाने से 'माननीयों' की सवारी पर लुटाये जाने वाली 100 करोड़ रुपये से भी ज्यादा रकम बच गयी।
'युवराज' का जवाब नहीं
कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी का भी जवाब नहीं। तीन साल से उत्तर प्रदेश में कांग्रेसी लहर का दावा करते रहे थे, पर जब विधानसभा चुनाव परिणाम आये तो कांग्रेस जस की तस, हाशिये पर पड़ी थी। अब 'युवराज' के एजेंडे पर हिमाचल प्रदेश है। वैसे यह सुरक्षित लक्ष्य इसलिए चुना गया है कि वहां मुख्यत: दो ही दल हैं-भाजपा और कांग्रेस। सो, दिल्ली की गर्मी से निजात पाने कुल्लू पहुंचे राहुल ने कांग्रेसजनों को एकता का उपदेश देते हुए यह भी बता दिया कि हिमाचल प्रदेश की जनता तो दिल से चाहती है कि अगली सरकार कांग्रेस की ही बने, पर उसके लिए पार्टी में एकता जरूरी है। 'युवराज' ने भले ही यह बड़बोलापन पस्तहाल कांग्रेसियों में जान फूंकने के लिए किया हो, लेकिन अब राजनीतिक गलियारों में सवाल पूछा जाने लगा है कि आखिर उन्हें जनता के दिल की बात पता कैसे चली? जिस शिमला नगर निगम पर कांग्रेस दशकों तक काबिज रही, वहां से भी जनता ने उसे खदेड़ दिया। फिर कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदार वीरभद्र सिंह को भ्रष्टाचार और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप तय हो जाने के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देना पड़ा। इसके बावजूद 'जनता का मन कांग्रेस के साथ' बताकर तो 'युवराज' देवभूमि हिमाचल के मतदाताओं का अपमान ही कर रहे हैं।
पसंद या मजबूरी?
देश का तेरहवां राष्ट्रपति कौन बनेगा, यह तो 19 जुलाई को मतदान के बाद 23 जुलाई को मतगणना से ही पता चलेगा, लेकिन केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेसी गठबंधन संप्रग के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी को लेकर खुद कांग्रेसी आश्वस्त नहीं हैं कि वह सोनिया गांधी की पसंद हैं या मजबूरी। दरअसल सोनिया गांधी के कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से ही उनके सिपहसालारों की रणनीति महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे व्यक्तियों को बिठाने की रही है, जो बहुत ज्यादा राजनीतिक महत्वाकांक्षा न रखते हों और किसी भी सूरत में नेहरू परिवार के हितों के विरुद्ध न जायें। अब प्रणव मुखर्जी तो इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते, वरना ऐसा नहीं होता कि वह संकटमोचक ही रहे और अराजनीतिक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गये। जरा याद करिए कि वर्ष 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने पर किस तरह प्रणव ने कांग्रेस छोड़ अलग पार्टी बना ली थी। कांग्रेसियों को लगता है कि अगर ममता बनर्जी मीडिया के समक्ष सोनिया गांधी की पहली पसंद के रूप में मुखर्जी के नाम का खुलासा नहीं कर देतीं तो शायद राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी कोई और ही होता। तो क्या दीदी की बगावत ने ही दादा के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खोल दिये?
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