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स्वामी जी के विचार वर्तमान भारत, विशेषकर उसकी युवा पीढ़ी में देशाभिमान और धर्म में आस्था के पुनर्जागरण की दृष्टि से प्रासंगिक और अनुकरणीय हैं।
12 जनवरी, 1863 को बंगाल में जन्मे नरेन्द्र नामक बालक ने देश के आध्यात्मिक-सांस्कृतिक आकाश में छाये कुहासे को सूर्य की भांति अपने प्रखर तेज से विनष्ट कर दिया और हिन्दुत्व के नवजागरण की आधारशिला रखी। स्वामी विवेकानंद के नाम से जग-प्रसिद्ध हुए इस महान संन्यासी के पथ प्रदर्शक रहे श्री रामकृष्ण परमहंस ने उनकी युवावस्था में ही भविष्यवाणी कर दी थी कि वे अपनी विद्वता और आध्यात्मिक शक्ति से समस्त विश्व को चमत्कृत कर देंगे। सच ही, उनके ज्वलंत विचारों ने न केवल उनके जीवनकाल में ही भारत की आलस्य-निद्रा भंग कर दी बल्कि जन्म के 150 वर्ष बाद भी वर्तमान संदर्भों में वे उतने ही खरे उतर रहे हैं। स्मरणीय है कि उनके परलोक गमन के काफी समय पश्चात रोम्या रोलॉ जैसे विद्वान एवं प्राच्य विद्याविद् को लिखना पड़ा था कि स्वामी विवेकानंद के विचार उनकी शिराओं में विद्युत संचार कर देते हैं।
भारत के मूर्तिमान स्वरूप
स्वामी विवेकानंद केवल अध्यात्मवादी ही नहीं थे बल्कि उन्हें अपनी जन्मभूमि भारत से उत्कट प्रेम भी था। उनका यह भाव उनके विचारों, कथनों और लेखों में स्थान-स्थान पर छलकता हुआ दिखता है। उनकी शिष्या भगिनी निवेदिता ने लिखा है कि वे सपने में भी भारत के बारे में सोचते थे। सच तो यह है कि वे स्वयं में भारत के मूर्तिमान स्वरूप थे। भगिनी निवेदिता ने उन्हें भारत तीर्थ भी कहा है। इस दृष्टि से स्वामी जी के दर्शन को यदि आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की संज्ञा दी जाए तो अनुचित न होगा। उल्लेखनीय है कि उन्होंने धर्म को राष्ट्र का मूलाधार बताया था और यह भी कहा था कि इस भावना को आत्मसात करने पर ही देश और समाज का सशक्तिकरण हो सकता है। स्वामी जी के ये विचार वर्तमान भारत, विशेषकर उसकी युवा पीढ़ी में देशाभिमान और धर्म में आस्था के पुनर्जागरण की दृष्टि से प्रासंगिक और अनुकरणीय हैं। उनका आध्यात्मिक राष्ट्रवाद निश्चित रूप से देश को वह शक्ति और सामर्थ्य प्रदान कर सकता है जो काल के प्रवाह में सुप्त हो चुका है।
ऐसा हो हिन्दू धर्म
इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने ऊर्जस्वी और संघर्षशील हिन्दुत्व की कल्पना की और देशवासियों का आह्वान किया कि वे हिन्दू धर्म से भटके हुए लोगों को वापस लेने में हिचकें नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के दायरे में नये लोगों को लाने का भी प्रयत्न करें। यही नहीं, राजस्थान की एक सभा में बोलते हुए उन्होंने यह भी कहा- 'मैं ऐसा धर्म चाहता हूं जो हम लोगों में आत्मविश्वास तथा अपनी मर्यदाओं के प्रति निष्ठा जगाने और जन-जन को अन्न, वस्त्र तथा शिक्षा देने के साथ ही हमारे चारों ओर के सभी दु:खों को दूर करने की शक्ति दे। यदि भगवान का साक्षात्कार करना चाहते हो तो मनुष्य की सेवा करो।' आज ईसाई मत प्रचारकों के हथकंडों और युवा पीढ़ी में धर्म के प्रति बढ़ती उदासीनता से सतत् क्षीण होती हिन्दुत्व की शक्ति के पुनरुत्थान के लिये ये विचार मूल मंत्र सिद्ध हो सकते हैं। आज टेलीविजन चैनलों के कार्यक्रमों में बहुधा हिन्दू परम्पराओं और साधु-संतों का मजाक उड़ाने वाले जो दृश्य दिखाए जाते हैं (विशेषकर विज्ञापनों में), उनका प्रतिरोध भी जाग्रत और संघर्षशील हिन्दुत्व से ही संभव है।
पश्चिमीकरण से बचाव
बढ़ती पश्चिमीकरण की आंधी का सामना करने का मंत्र भी स्वामी विवेकानंद के दर्शन में निहित है। उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए यह भी कहा था कि नकलची सभ्यता कभी भी उन्हें विश्व में आदर का पात्र नहीं बना सकती। आज देश की भाषाओं का बढ़ता 'हिंग्लिशकरण', सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाले देश में बेतहाशा 'मशीनीकरण', विकास का पूर्णत: 'पश्चिमी मॉडल' (जैसे-जल के निजीकरण एवं खुदरा व्यापार को 'वालमार्ट' जैसे भीमकाय अन्तरराष्ट्रीय समूहों को सौंप देने की योजनाओं तथा विकास के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़) कभी भी भारत को गरीबी, बेरोजगारी और प्रदूषण जैसी समस्याओं से मुक्ति नहीं दिला सकते। स्वामी विवेकानंद का आह्वान ही हमें एक बार फिर भारतीयता की ओर लौटने को प्रेरित कर सकता है और वेदों एवं उपनिषदों में वर्णित कथनों पर आधारित विकास का वैकल्पिक मॉडल हममें आत्मविश्वास की सृष्टि कर भारत को समस्त विश्व के लिये आदर्श बना सकता है।
शिक्षा का प्रभाव
शिक्षा के बारे में तो स्वामी विवेकानंद का चिंतन सार्वकालिक है। वे शिक्षा को एक जीवंत विद्या के रूप में देखते हैं, जिसका उद्देश्य केवल विभिन्न विषयों की जानकारी को छात्र के मस्तिष्क में ठूंस-ठूंस कर भरना नहीं हो सकता। ऐसी शिक्षा उनके विचार में 'ऋणात्मक शिक्षा' कही जायेगी। और यदि विद्यालयों का उद्देश्य केवल यही हो (जैसा कि आजकल है) तब तो पुस्तकालय और विश्वकोष सबसे बड़े विद्वान कहे जाएंगे। उनकी दृष्टि में बहुआयामी सकारात्मक शिक्षा ही विद्यार्थी को एक आदर्श चरित्र वाला बनाएगी और संस्कारी जीवन जीने की कला भी सिखाएगी। इसीलिए शिक्षा में अध्यात्म और धर्म का पुट आवश्यक है। अच्छी शिक्षा, आदर्श जीवन जीने की कला सिखाने वाली शिक्षा, अध्यात्म आधारित शिक्षा तो धर्मसापेक्ष और सर्वपंथसमभाव के चिंतन वाली ही हो सकती है। आज समाज में अधिकतर विकृतियों का मूल नकारात्मक शिक्षा में ही ढूंढ़ा जा सकता है। 'सेकुलर' का नकारात्मक अर्थ और धार्मिक शिक्षा से परहेज आज के शिक्षार्थी को राम और कृष्ण के जीवन के संदेशों से अपरिचित बना रहा है। फिर नकल, गुरुजनों की अवहेलना, व्यक्तित्व में स्वार्थपरता, समाज द्रोह आदि की प्रवृत्तियां यदि उसमें घर बना लेती हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
स्वामी विवेकानंद अपने समय के भारत को एक सुप्त सिंह के रूप में देखते थे, जिसे जाग्रत करने के लिए ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता थी जो अपने समाज के हित में प्रत्येक कार्य को, चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो, बिना किसी हिचक के करना जानता हो। ऐसा नेतृत्व, केवल दृढ़ चरित्र वाला व्यक्ति ही प्रदान कर सकता है, जो राष्ट्र हित में स्वयं के बलिदान के लिये तत्पर हो। यदि आज के भारत को आतंकवाद से प्रभावी रूप से लड़ना है और विश्व के समक्ष अपनी एक सशक्त, समर्थ और क्षमतावान छवि प्रस्तुत करनी है तो ऐसे ही नेतृत्व की आवश्यकता है, न कि ऐसे नेतृत्व की जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हो और सेकुलरवाद के नाम पर घुटनाटेक नीति का समर्थक हो।
आज के संदर्भों में विवेकानंद की प्रासंगिकता निर्विवाद है। केवल उनका चिंतन ही आज भारत मां की सिंहवाहिनी छवि को अर्थ दे सकता है।
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