गवाक्ष
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गवाक्ष
शिवओम अम्बर
महाकवि कालिदास ने अपने विश्वविश्रुत ग्रन्थ 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में महर्षि कण्व के एक शिष्य के द्वारा एक विशिष्टि श्लोक कहलवाया है, जो तत्कालीन समाज में प्रचलित गान्धर्व-विवाह पर उनकी टिप्पणी के रूप में उद्धृत किया जा सकता है। इस श्लोक के अवतरण की पृष्ठभूमि इस प्रकार है – महर्षि कण्व की अनुपस्थिति में महाराज दुष्यन्त का आश्रम में आगमन होता है। शकुन्तला उनका अतिथि-सत्कार करती है। दोनों एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं। इस आकर्षण की परिणति गान्धर्व विवाह में होती है। दुष्यन्त शीघ्र ही शकुन्तला को राजधानी बुलवा लेने का वचन देकर तथा अपनी अभिज्ञान-मुद्रिका उसे प्रदान कर विदा हो जाते हैं। महर्षि प्रवास के बाद आश्रम में आते हैं किन्तु दुष्यन्त का रथ शकुन्तला को लेने नहीं आता। (महाकवि ने महाभारत से लिये गये इस कथानक में दुर्वासा के शाप की संकल्पना संयुक्त करके अपने नायक के धीरोदात्त व्यक्तित्व को बचाने की चेष्टा की है!) अन्तत: महर्षि अपने शिष्यों के साथ शकुन्तला को पति-गृह हेतु विदा कर देते हैं और आशीर्वाद देते समय यह संकेत भी कर देते हैं कि अब उसका चतुर्थ आश्रम अर्थात् वृद्धावस्था में ही पुन: यहां आना उचित होगा, वह भी वानप्रस्थ के लिये, पति के साथ! उधर, राजसभा में अभिज्ञान-मुद्रिका प्रस्तुत न कर पाने पर शकुन्तला दुष्यन्त के द्वारा अस्वीकृत तथा अवहेलित होती है। आश्रम वह लौट नहीं सकती। पति के राजभवन के दरवाजे उसके लिए बन्द हैं। ऐसे अवसर पर कण्व के शिष्य द्वारा आश्रम लौटने से पहले सर्वपरित्यक्ता शकुन्तला को सम्बोधित कर यह श्लोक पढ़ा जाता है –
अत: परीक्ष्य कर्त्तव्यं विशेषात् संगतं रह :,
अज्ञातहृदयेष्वेव वैरी भवति सौहृदम्।।
(ऐकान्तिक रागात्मक सम्बन्ध पर्याप्त परीक्षा के बाद ही निर्मित होने चाहिये अन्यथा अज्ञात हृदयों के साथ जुड़ी ऐसी मैत्री अन्तत: शत्रुता ही सिद्ध होती है।)
अनुमान लगाया जा सकता है कि रंग मंच पर जब विषम स्थितियों में पड़ी शकुन्तला के समक्ष यह अमर्षभरी वाणी गूंजती होगी तब प्रेक्षागार में उपस्थित तत्कालीन युवतियां अपनी उच्छृंखलता के परिणाम के प्रति अनायास सजग हो जाती होंगी। महाकवि ने कलात्मक ढंग से अपने युग के लिये ही नहीं, हर युग के लिये एक स्वस्तिकर सन्देश दिया।
महाकवि कालिदास का यह श्लोक मेरी स्मृति में बार-बार तब उठा जब पिछले दिनों मैंने कोलकाता से प्रकाशित होने वाली मासिक हिन्दी पत्रिका 'द वेक' (25 ए, चितरंजन एवेन्यू, कोलकाता – 72, मूल्य-7 रु. मात्र) में डा. महेश द्विवेदी की कहानी 'लव जेहाद' पढ़ी। सबसे पहले साधुवाद देना चाहता हूं पत्रिका की प्रधान सम्पादिका श्रीमती शकुन त्रिवेदी को, जिन्होंने बहुसंख्यक विद्वेषी भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में बिरादरी से खारिज किये जाने का खतरा उठाकर भी इस कहानी को प्रकाशित करने का साहस किया। एक सजग सम्पादक के अतिरिक्त वह स्वयं एक संवेदनशील साहित्य-साधिका भी हैं, कदाचित् इसी कारण ऐसा सम्भव हो सका। फिर हार्दिक सराहना पाने के हकदार हैं कथाकार डा. द्विवेदी, जो उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं और अपने कार्यकाल के दौरान भी अपनी साहित्यिकता के कारण पर्याप्त चर्चित रहे हैं। पुलिस विभाग में रहने के कारण उनके पास ऐसी तमाम जानकारियां सहज ही उपलब्ध रही हैं जिन तक एक सामान्य व्यक्ति नहीं पहुंच सकता। इस कहानी के माध्यम से उन्होंने हिन्दू समाज की भावुक युवतियों को उनके आस-पास बुने जा रहे एक भ्रामक जाल की जानकारी प्रदान की है।
'लव जेहाद' कहानी की नायिका का नाम श्रद्धा है, जो इलाहाबाद से अलीगढ़ विश्वविद्यालय में 'सिविल इन्जीनियरिंग' में प्रवेश लेने जा रही है। ट्रेन में संयोग से वह एक युवक के सम्पर्क में आती है जो उस समय उसे अपना नाम समीर बताता है। वह भी उसी विश्वविद्यालय में 'इलेक्ट्रानिक्स' के अन्तिम वर्ष का छात्र है। आगे चलकर प्रवेश पत्र भरते समय वह उसकी सहायता कर देता है। कभी-कभी भेंट होती रहती है। श्रद्धा को अपनी 'रूम मेट' के रूप में जो छात्रा मिलती है, उसका नाम आयशा है। आयशा की एक बड़ी बहन (बाजी) उससे मिलने 'हॉस्टल' आती रहती हैं। श्रद्धा को पता ही नहीं चलता कि संयोग के सहारे शुरू हुई एक सामान्य परिचयात्मक घटना कब एक सुविचारित षड्यन्त्र के नियन्त्रण में आ जाती है। वह आयशा के साथ हर सप्ताहान्त उसकी बाजी के घर बिताती है, जहां समीर से उसकी प्रायोजित मुलाकातें होती हैं और वह जब आकर्षण के उद्दाम आवेग में होती है, समीर उसे अपनी भावी पत्नी बनने को मना लेता है। समीर अपनी परीक्षा उत्तीर्ण करके दिल्ली में नौकरी लगने का समाचार देता है, मां-बाप से विद्रोह करके प्रणय-विवाह करने की रोमांचकता के ताने-बाने बुने जाते हैं, और अन्तत: 'कोर्ट मैरिज' के बाद श्रद्धा समीर के द्वारा लिये हुए किराये के मकान में रहने दिल्ली आ जाती है। वहां से वह एक भावविह्वल पुत्री के रूप में अपने पिताजी को अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर प्रणय-विवाह करने की सूचना देती है तो उधर से एक गहरी नि:श्वास के साथ 'रिसीवर' रखकर सम्बन्धों के एक अध्याय को समाप्त कर दिया जाता है। समीर के प्रति अन्धी- आसक्ति श्रद्धा की वैचारिकता को जड़ कर चुकी है। यहां लेखक के शब्दों में – 'श्रद्धा समीरमय होकर सातवें आसमान पर थी।' लेकिन उसे पहला धक्का तब लगता है जब एक दिन उसके फोन पर कोई स्त्री स्वर प्रश्न करता है – 'शमी खान हैं? 'आप गलत नम्बर मिला रही हैं' कहने वाली श्रद्धा को वह स्त्री स्वर जानकारी देता है- 'श्रद्धा मैं रशन खान हूं- समीर की तीसरी पत्नी। विवाह से पहले मैं भी तुम्हारी तरह हिन्दू थी- पूजा बत्रा।' वह शान्त-शान्त किन्तु रुआंसी आवाज श्रद्धा के लिये समय को ठहरा-सा देती है और वह अपने पथरीले वर्तमान की त्रासद चुभन को महसूस करने लगती है, किन्तु अब स्थितियां उसके हाथ में नहीं हैं। शाम को शमी खान एक मौलवी तथा कुछ अन्य पुरुषों के साथ आता है, 'कोर्ट मैरिज' के बाद अब श्रद्धा को नासिरा बनाकर निकाह पढ़वाया जाता है। नासिरा जब अपनी इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाती, उसे मौलवी महोदय समझाते हैं – 'बेटी, खुदा अपनी दुनिया में हर बच्चा उस पर ईमान रखने वाला यानी 'मोमिन' पैदा करता है। यह तो उसकी बदकिस्मती होती है कि हिन्दू मां-बाप उसे अनगिनत देवी-देवताओं की बुतपरस्ती सिखाकर 'काफिर' बना देते हैं। उसको 'मोमिन' बना देना तो बड़े 'सवाब' (पुण्य) का काम है और खुदा की खिदमत (सेवा) में लग जाने से खुद उसका परलोक भी तो सुधर जाता है। फिर तुम तो बड़ी खुशकिस्मत हो कि तुम्हें जिहाद (मजहब के लिए विधर्मियों से युद्ध) से मुस्लिम बनाया गया है और शमी जैसा नेक 'खाविन्द' (पति) मिला है।'……. नासिरा के मुख से प्रतिकार का स्वर उभरते ही उसे शमी खान के द्वारा एक जोरदार झापड़ खाना पड़ता है। उसका प्रतिरोध धीरे-धीरे उसकी प्रताड़ना की मात्रा बढ़वाता जाता है और एक दिन वह अपनी सारी कहानी कुछ पन्नों पर लिखकर उसे खिड़की के नीचे फेंक देती है। (क्योंकि उन दिनों उसके कमरे पर बाहर से ताला लगाकर ही उसका पति कहीं जाता है।) ये पन्ने एक पत्रकार के हाथ पड़ते हैं। वह नजदीकी थाने तक जाकर सूचना देता है। जब प्रभारी अधिकारी वहां जाकर मकान का ताला तुड़वाते हैं, फन्दे से लटकती श्रद्धा की मूर्च्छित देह उपलब्ध होती है! ….. 'लव जेहाद' इस प्रकार एक और कन्या के लिये त्रासदी बन जाता है!
अभिव्यक्ति मुद्राएं
मां चन्दन की गन्ध है मां रेशम का तार,
बंधा हुआ जिस तार से सारा ही घर–द्वार।
– अशोक अंजुम
स्याही कलम दवात औ' खाते बही मुनीम,
कम्प्यूटर क्या आ गया सब हो गये यतीम।
टीवी ही माता–पिता टीवी दे गुरु ज्ञान,
नये कपोतों को मिली भटकन भरी उड़ान।
– दिनेश रस्तोगी
तुलसी का बिरवा करे हमसे करुण पुकार,
घर के आंगन में कभी खड़ी न हो दीवार।
ख़बर नहीं कल की हमें सच है केवल आज,
जाने कितने दिन बजे ये धड़कन का साज़।
– गौरव गोयल
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