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तीन साल में तीन गए

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Jun 30, 2012, 12:00 am IST
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बात बेलाग

दिंनाक: 30 Jun 2012 14:57:18

बात बेलाग

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी राजनीतिक उपयोगिता उनकी ईमानदार छवि बतायी जाती है तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी यह दोहराते नहीं थकतीं कि भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। पिछले दिनों ही मनमोहन सिंह सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के तीन साल पूरे किए तो देश में चौतरफा बदहाली के बावजूद शानदार जश्न मनाया गया। जनता के नाम कथित रपट कार्ड में उपलब्धियों का बखान भी किया गया, लेकिन यह नहीं बताया कि ईमानदार प्रधानमंत्री की सरकार में बेईमान मंत्रियों की कतार कितनी लंबी है। भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए सशक्त लोकपाल की लड़ाई लड़ रही टीम अण्णा की मानें तो एक-दो नहीं, पूरे 14 मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। पर कांग्रेस और सरकार को ये आरोप अपने विरुद्ध साजिश नजर आते हैं। लेकिन सच है कि छुपाये नहीं छुपता। असल में ये आरोप कितने गंभीर हैं, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल के तीन वर्षों में तीन कैबिनेट मंत्री भ्रष्टाचार के अरोपों में ही इस्तीफा देने को मजबूर हो चुके हैं। सबसे पहले पौने दो लाख करोड़ रुपए के घोटाले में ए.राजा विदा हुए थे, जिन्हें प्रधानमंत्री और कांग्रेस आखिर तक 'क्लीन चिट' देती रही थी, लेकिन 'कैग' रपट के बाद उन्हें जाना पड़ा। उसी घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय के सख्त रवैये के चलते दयानिधि मारन भी गए। ये दोनों सहयोगी दल द्रमुक के कोटे से कैबिनेट मंत्री थे। राजा प्रकरण पर प्रधानमंत्री ने सफाई दी थी कि गठबंधन राजनीति की कुछ मजबूरियां होती हैं, लेकिन अब तीसरा विकेट वीरभद्र सिंह के रूप में गिरा है, जो पुराने कांग्रेसी हैं। उन्हें भी शिमला की विशेष अदालत द्वारा भ्रष्टाचार और आपराधिक साजिश के आरोप तय कर देने के बाद मनमोहन मंत्रिमंडल से मजबूरी में इस्तीफा देना पड़ा है। जाहिर है कि मामला गठबंधन राजनीति की मजबूरियों का नहीं है। दरअसल भ्रष्टाचार को कांग्रेस ने अपना शिष्टाचार बना लिया है।

मुलायम कांग्रेस

एक हैं राशिद अल्वी। कभी मायावती की बहुजन समाज पार्टी में हुए करते थे। फिर पाला बदल कर कांग्रेस में आ गए। मुस्लिम नेतृत्व के अकाल से ग्रस्त और मुस्लिम मतों के लिए छटापटा रही कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा सदस्य के साथ-साथ पार्टी प्रवक्ता भी बना दिया। अब प्रवक्ता हैं तो कुछ न कुछ बोलते भी रहते हैं। कांग्रेस की प्रेस वार्ताओं में तो शायद ही उन्होंने कोई सुर्खियां बन सकने लायक खबर दी होगी, लेकिन उत्तर प्रदेश के नगर निगम चुनावों में मंच से ऐसा बोले कि राष्ट्रीय मीडिया में छा गए और दिल्ली में कांग्रेस की बोलती बंद हो गयी। जो समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी को दगा देकर राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस की बैसाखी बन रहे हैं, उन्हें ही अल्वी ने भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ा एजेंट करार दे दिया। जैसे ही टीवी चैनलों पर यह खबर चली, कांग्रेस मुख्यालय के गलियारों में सनसनी फैल गई और सपा नेताओं के मुंह फूल गए। सो एक बार फिर मीडिया विभाग के प्रमुख जनार्दन द्विवेदी की ड्यूटी लगायी गयी। मास्टर जी ने अल्वी को डांटते हुए हुक्म दिया कि अपना बयान वापस लें। उन्हें लेना पड़ा। इससे पहले ममता पर तल्ख टिप्पणी के लिए कांग्रेस अपने राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह को किनारे कर चुकी है। अब बेचारे प्रवक्ताओं को समझ नहीं आ रहा कि कौन कांग्रेस का मित्र है और कौन शत्रु, किसके विरुद्ध बोलना है और किसा गुणगान करना है। भ्रमित प्रवक्ताओं को लग रहा है कि ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के ही विरुद्ध विषवमन कर अपनी कुर्सी सुरक्षित रखी जा सकती है।

चोरी भी, सीनाजोरी भी

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन देश का मुख्य विपक्षी गठबंधन है, जिसका नेतृत्व भाजपा कर रही है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग ने प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया तो राजग ने पी.ए. संगमा का समर्थन करने का फैसला किया, जिन्हें अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल ने उम्मीदवार बनाया है। गठबंधन धर्म का तकाजा था कि कम  से कम राजग के तो सभी घटक दल संगमा का समर्थन करते, लेकिन शिव सेना और जनता दल (यूनाइटेड) उन प्रणव मुखर्जी के समर्थन में जा जाकर खड़े हो गये, जिनकी बतौर वित्त मंत्री आर्थिक नीतियों का विरोध वे संसद से सड़क तक करते रहे हैं। समाजवादी पार्टी के बाद इन दोनों दलों की इस पलटी का राज भी जानने वाले तो बखूबी जानते हैं कि कहां से किसका रिमोट काम कर रहा है। लेकिन चोरी और सीनाजोरी के अंदाज में शिव सेना और जद (यू) ने उलटे भाजपा को नसीहत देनी शुरू कर दी, ताकि उनकी कारगुजारियों की चर्चा आम न हो जाए। समदर्शी

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