गांधी जी नेकांग्रेस क्यों छोड़ी?
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कांग्रेस क्यों छोड़ी?
देवेन्द्र स्वरूप
इतिहास की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिन गांधी जी ने अस्पृश्यता निवारण को भारत की धरती पर कदम रखते ही अपना मुख्य कार्यक्रम बनाया, जिसे वे हिन्दू समाज की आंतरिक सामाजिक समस्या के रूप में देखते रहे, और जिसके लिए हिन्दू समाज की तथाकथित उच्च जातियों को जिम्मेदार मानकर उनके हृदय परिवर्तन का प्रयास करते रहे, उन्हीं गांधी जी को 'दलित वर्ग विरोधी' कहा जाए?
26 जनवरी, 1931 की सायंकाल जब गांधी जी यरवदा जेल से बाहर आये तब वे अपनी लोकप्रियता के चरम शिखर पर थे। नमक सत्याग्रह के अखिल भारतीय विराट रूप और उसमें नारी शक्ति के साहस भरे भारी योगदान ने पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया था। पर तीन वर्ष से भी कम समय में 29 अक्तूबर, 1934 को गांधी जी ने अपने द्वारा गढ़ी गई कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र की सार्वजनिक घोषणा करके भारत और विश्व को चौंका दिया। इन तीन वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि गांधी जी को इतना बड़ा निर्णय लेना पड़ा? 29 अक्तूबर के अपने सार्वजनिक वक्तव्य में गांधी जी ने इस त्यागपत्र के पीछे कांग्रेसजनों की अहिंसा, चरखा कातने और स्वदेशी के प्रति अनुराग और अस्पृश्यता निवारण के प्रति उनकी (गांधीजी की) जीवन निष्ठा के प्रति उत्साह के अभाव को कारण बताया। साथ ही उन्होंने युवा पीढ़ी में समाजवादी विचारधारा के प्रति रुझान और कांग्रेस के भीतर समाजवादी गुट के गठन के प्रति भी भारी चिंता प्रगट की।
बढ़ता प्रभाव
कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से गांधी जी का त्यागपत्र एक प्रकार से अंग्रेजों की कूटनीतिक विजय का प्रतीक था। 1857 की महाक्रांति की विफलता के साथ भारत में अंग्रेजों की सैनिक और राजनीतिक विजय अपनी पूर्णता पर पहुंच गयी थी और अब वे इस विजय को बौद्धिक और सांस्कृतिक विजय का रूप देने के लिए सक्रिय हो गये थे। भारतीय समाज को उन्होंने नि:शस्त्र कर दिया था। भारत 1857 की विफलता से कुछ समय के लिए सुन्न पड़ा था। भारत के भावी राजनीतिक एजेंडे की दशा-दिशा का निर्धारण अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्थाओं से अभिभूत, अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों के हाथों में चला गया था। 9 जनवरी, 1915 को भारत वापसी के बाद गांधी जी ने वह राजनीतिक पहल अंग्रेजों से छीनकर अपने हाथों में ले ली थी। उन्होंने ब्रिटेन के साथ भारत के संघर्ष को राजनीतिक धरातल से उठाकर दो सभ्यताओं के संघर्ष के धरातल पर बैठा दिया था। 1909 में उन्होंने 'हिन्द स्वराज' लिखकर यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत को आधुनिक-पाश्चात्य सभ्यता स्वीकार नहीं है क्योंकि उसमें लेने लायक कुछ नहीं है, वह मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने की क्षमता नहीं रखती। गांधी जी ने मशीन चालित शहरी सभ्यता को पूरी तरह ठुकरा दिया था। नेहरू के साथ उनका अक्तूबर, 1945 का पत्राचार इसका प्रमाण है कि स्वतंत्रता के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर भी वे स्वाधीन भारत के इस कल्पना चित्र पर अडिग थे। स्वराज के अपने चित्र को साधन बनाने के लिए ही उन्होंने 1920 में कांग्रेस का नया संविधान बनाया, उसकी प्राथमिक सदस्यता के नये नियम निर्धारित किये, सामूहिक सत्याग्रहों एवं रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी कल्पना के भारत की आधारभूमि तैयार करने की कोशिश की।
सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और सादगी जैसे उदात्त नैतिक मूल्यों पर आधारित समाज की रचना का अधिष्ठान खोखला शब्दाचार या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं हो सकता था, इसलिए उन्होंने अपने स्वयं के जीवन को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने की कठोर साधना की। वस्तुत: 1915 में वे एक आध्यात्मिक शक्ति पुंज बनकर भारत वापस लौटे थे। भारत आने से पूर्व ही उनकी ख्याति भारत पहुंच चुकी थी। 1909 की लाहौर क्रांति में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा उनका स्तुतिगान और 1915 में उनकी भारत वापसी का स्वागत करते हुए समाचार पत्रों के सम्पादकीय व अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रस्ताव इस बात का प्रमाण है कि भारतीय समाज ने उनके आगमन को किसी देवदूत के अवतरण के रूप में देखा था। अपनी जीवन शैली, अपनी शब्दावली और लम्बे उपवासों व सत्याग्रह की संघर्ष विधि से उन्होंने राजनीतिक एजेंडों की पहल अंग्रेजों से छीन ली थी। उनकी जीवन शैली के भारतीय समाज पर नैतिक प्रभाव, उनकी शब्दावली से भारतीय मानस में जाग्रत स्पंदन और उनके संघर्षों की भावी रूपरेखा को समझने में अंग्रेज स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। तभी से गांधी जी और अंग्रेजों के बीच एक कूटनीतिक युद्ध छिड़ा हुआ था। अंग्रेज अपनी तथाकथित संवैधानिक सुधार प्रक्रिया के माध्यम से भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को राजनीतिक परिधि में सीमित रखने के लिए प्रयत्नशील थे, जबकि गांधी जी पूरे समाज को उससे जोड़ने की कोशिश में लगे थे और उसे एक व्यापक सामाजिक आधार देने में लगे हुए थे। अत: ब्रिटिश कूटनीति का एकमात्र लक्ष्य इस सामाजिक आधार को विखंडित करना बन गया था।
अचानक सब विखर गया
5 मार्च, 1931 का तथाकथित गांधी-इर्विन समझौता नामक कूटनीतिक युद्ध में अंग्रेजों को बड़ी सफलता मिली। किसी भी समझौते में दोनों पक्षों के बीच लेन-देन होता है, पर यह पूरी तरह एक पक्षीय समझौता था। गांधी जी ने जो ग्यारह मांगें वायसराय को लिखित रूप में भेजीं, उनमें से एक भी मांग स्वीकार नहीं की गयी। जबकि गांधी जी ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में लिये गये संकल्पों को उलटकर वायसराय की प्रत्येक बात मान ली। इस समझौते से ब्रिटिश सरकार जिन तीन उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहती थी, वे तीनों ही उसे प्राप्त हो गये। पहला- सविनय अवज्ञा आंदोलन, जो उस समय व्यापकता और लोकप्रियता के चरम को छू रहा था, गांधी जी ने स्थगित कर दिया। दूसरा- गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के सहभाग को स्वीकार कर लिया, जबकि लाहौर अधिवेशन में गोलमेज सम्मेलन के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित हुआ था और लार्ड इर्विन के इशारे पर तेज बहादुर सप्रू और एम.आर.जयकर जैसे उदार नेताओं के बहुत प्रयास करने पर भी गांधी जी स्वयं व अन्य 6 वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की सहमति से गोलमेज सम्मेलन के बहिष्कार पर दृढ़ रहे थे। भारतीय राष्ट्रवाद की एकमात्र प्रतिनिधि कांग्रेस की अनुपस्थिति में गोलमेज सम्मेलन पूरी तरह अर्थहीन बन गया था और उसके पीछे ब्रिटिश सरकार का शकुनि दांव व्यर्थ जा रहा था। पर अब एकाएक उन्होंने दूसरे सम्मेलन में कांग्रेस के सहभाग पर सहमति दे दी। तीसरा- गांधी जी ने केवल सहभाग को ही स्वीकार नहीं किया था बल्कि प्रथम सम्मेलन के अंत में 19 जनवरी, 1931 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडानल्ड द्वारा घोषित सीमाओं के बंधन को भी गांधी जी ने ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुसार भावी सुधारों का अंतिम लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य न होकर औपनिवेशिक स्वराज्य होगा। भावी ढांचा संघात्मक होगा न कि एकात्मक। अल्पसंख्यकों एवं वर्ग विशेष हितों के लिए विशेषाधिकार की सुरक्षात्मक व्यवस्था रहेगी। कट्टर गांधी भक्त क.मा.मुंशी भी आश्चर्यचकित थे कि गांधी जी ने इन सब बंधनों को क्यों स्वीकार कर लिया?
अंग्रेजों की चालें
गांधी-इर्विन समझौते के बाद राजनीतिक पहल गांधी जी के हाथों से खिसक कर पुन:अंग्रेजों के पास चली गयी और गांधी जी उनके कूटनीतिक जाल में उत्तरोत्तर फंसते चले गए। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में पहुंचकर गांधी जी ने स्वयं को एक विषम चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाया। भौगोलिक राष्ट्रवाद को अस्वीकार करने वाली इस्लामी विचारधारा की पृथकतावादी प्रवृत्तियों का सूक्ष्म अध्ययन करके अंग्रेजों ने 1909 के 'इंडिया काउंसिल एक्ट' में मुसलमानों को पृथक निर्वाचन का अधिकार देकर और मुस्लिम लीग नाम से एक राजनीतिक मंच का गठन करवा कर मुस्लिम पृथकतावाद को एक संवैधानिक रास्ता प्रदान कर दिया था। उन्नीसवीं शताब्दी से ही सिख पंथ को उसके हिन्दू स्रोत से अलग पहचान देने की प्रक्रिया उन्होंने प्रारंभ कर दी थी और 1919 के एक्ट में उन्हें भी पृथक मताधिकार प्रदान कर सिख समाज में एक पृथकतावादी नेतृत्व की निर्माण प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। पर, भारत की मिट्टी में अपनी जड़ें होने के कारण सिख समाज भारतीय राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग बना रहा और देश की स्वतंत्रता के आंदोलन की अग्रिम पंक्ति में खड़ा रहा। पंजाब की विशिष्ट स्थिति के कारण सिख समाज मुस्लिम कट्टरवाद को ही अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानता था। देसी रियासतों के विशाल क्षेत्र और जनसंख्या को ब्रिटिश भारत के साथ जोड़ने की आकांक्षा से प्रथम गोलमेज सम्मेलन में संघीय ढांचे को स्वीकृति मिल गयी। आगे चलकर पृथकतावादी मुस्लिम नेतृत्व ने इन रियासतों की जनसंख्या हिन्दू बहुमत होने के कारण संघीय ढांचे का विरोध करके यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय राष्ट्रवाद उनका समर्थन पाने की आशा नहीं कर सकता। भारतीय नरेशों का स्वर गोलमेज सम्मेलन में भी भारत-भक्ति से ओत-प्रोत था। यद्यपि ब्रिटिश नीतिकार उनका भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध इस्तेमाल करने की ही बिसात बिछा रहे थे।
खतरनाक दांव
गोलमेज सम्मेलन के शकुनि खेल में जो सबसे खतरनाक पासा अंग्रेजों ने चला, वह था भारतीय राष्ट्रवाद की मुख्य आधारभूमि 'हिन्दू' नाम से अभिहित समाज को दो फाड़ करना। इसके लिए उन्होंने अव्याख्यायित 'दलित वर्गों' के प्रतिनिधि के रूप में डा.भीमराव अम्बेडकर को गोलमेज सम्मेलन में खड़ा कर दिया। उन दिनों डा.अम्बेडकर का जनाधार महाराष्ट्र की महार जाति के एक वर्ग तक ही सीमित था। यह महार जाति सबसे अधिक सम्पन्न, प्रगत और प्रभावशाली थी, लम्बे समय से अंग्रेजों की सेना में उन्हें स्थान मिलता आ रहा था। स्वयं डा.अम्बेडकर के पिता श्री राम सिंह ब्रिटिश सेना में सूबेदार रह चुके थे। पूरे भारत में बिखरे विशाल वंचित समाज में डा.अम्बेडकर के नाम को जानने वालों की संख्या अंगुली पर गिनी जा सकती थी। इसलिए जब गोलमेज सम्मेलन में अंग्रेजों ने डा.अम्बेडकर को भारत के वंचित वर्गों के एकमात्र प्रतिनिधि और प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत किया और ब्रिटिश मीडिया ने गांधी जी व कांग्रेस विरोधी अपनी मानसिकता के कारण डा.अम्बेडकर के गांधी-विरोधी उद्गारों का बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार किया तो गांधी जी ने बहुत संयम अपनाते हुए मात्र इतनी प्रतिक्रिया दी कि यहां आप डा.अम्बेडकर को चाहे जिस दृष्टि से देखें किन्तु यदि हम दोनों को एक साथ उत्तर भारत के किसी भी गांव में ले जाकर देखें कि वहां 'दलित वर्गों' के लोग किसे पहचानते हैं-डा.अम्बेडकर को या मुझे, तब सत्य सामने आ जायेगा। लंदन में आयोजित सम्मेलन की एकमात्र भाषा अंग्रेजी थी। सौभाग्य से अमरीका और इंग्लैण्ड में शिक्षित हुए डा.अम्बेडकर का इस भाषा पर अच्छा अधिकार था। विधाता ने उन्हें श्रेष्ठ बौद्धिक प्रतिभा और वकील की तर्क-बुद्धि प्रदान की थी, जिसका पूरा प्रयोग उन्होंने गांधी जी के विरुद्ध किया। ब्रिटिश मीडिया कितना भारत विरोधी था, यह साइमन कमीशन के भारत दौरे के समय प्रकट हो गया था। श्री वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री ने उन्हीं दिनों लंदन के एक पत्र में लिखा था कि पूरे भारत में साइमन कमीशन के व्यापक वहिष्कार के समाचारों पर ब्रिटिश मीडिया ने पूरी तरह चुप्पी साध ली है। स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस या गांधी जी को यह मीडिया अपना सहज शत्रु मानता है। अम्बेडकर के प्रशंसक जीवनीकार धनंजय कीर ने भी स्वीकार किया है कि डा.अम्बेडकर द्वारा गांधी जी की आलोचना से जो लोग बहुत प्रसन्न हो रहे थे वे भी गांधी जी की निंदा की अति हो जाने पर असहज अनुभव करने लगे थे। कीर लिखते हैं कि डा.अम्बेडकर द्वारा अपनी तीखी आलोचनाओं के समक्ष गांधी जी ने जिस संयम और धैर्य का परिचय दिया उसके लिए उन्हें असामान्य आत्मबल जुटाना पड़ा होगा।
विडम्बना
यदि गोलमेज सम्मेलन का आयोजन भारत में हुआ होता तो यह स्थिति कदापि उत्पन्न न होती। गांधी जी और डा.अम्बेडकर के जनाधार में भारी अंतर से भलीभांति परिचित भारतीय मीडिया डा.अम्बेडकर को अपनी अभिव्यक्ति में संयम बरतने के लिए विवश कर देता। गांधी-निंदा की भारतीय मीडिया में प्रतिकूल प्रतिक्रिया होने पर संभवत: वंचित वर्गों की ओर से भी उसका विरोध होता। पर वैसा नहीं हो पाया और गांधी जी ब्रिटिश कूटनीति के जाल में फंसते चले गये। ब्रिटिश कूटनीति ने वंचित वर्गों के उद्धार और अस्पृश्यता निवारण की समस्या को एकमात्र पृथक मताधिकार से जोड़कर उसे संवैधानिक राजनीति के अखाड़े में घसीटने का जाल बिछाया और गांधी जी ने राष्ट्रीय एकता के हित में हिन्दू समाज के विभाजन की ब्रिटिश कूटनीति को विफल करने के लिए अपनी पूरी ताकत वंचित वर्गों के लिए पृथक मताधिकार के विरोध पर केन्द्रित कर दी। और इसके लिए एक ओर तो मुस्लिमों व सिखों के लिए पृथक मताधिकार को ऐतिहासिक कारणों से स्वीकार कर लिया, दूसरी ओर मुस्लिम और सिख प्रतिनिधिमंडलों को डा.अम्बेडकर की मांग से दूर रहने की मुहिम चलाई, जिसको डा.अम्बेडकर ने गांधी जी की वंचित वर्ग विरोधी मानसिकता के रूप में प्रक्षेपित किया और उन पर सवर्ण हिन्दू नेता की छवि आरोपित कर दी। इतिहास की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिन गांधी जी ने अस्पृश्यता निवारण को भारत की धरती पर कदम रखते ही अपना मुख्य कार्यक्रम बनाया, जिसे वे हिन्दू समाज की आंतरिक सामाजिक समस्या के रूप में देखते रहे, और जिसके लिए हिन्दू समाज की तथाकथित उच्च जातियों को जिम्मेदार मानकर उनके हृदय परिवर्तन का प्रयास करते रहे, उन्हीं गांधी जी को 'दलित वर्ग विरोधी' कहा जाए?
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