व्यंग्य वाण
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व्यंग्य वाण
विजय कुमार
बहुत सालों तक मैं गरीबी की रेखा को खोजता रहा। इस चक्कर में फिल्म अभिनेत्री रेखा और उससे मिलते-जुलते नाम वाली राखी गुलजार और राखी सावंत की फिल्में भी देख डालीं, पर गरीबी की रेखा नहीं मिली।
गणित को प्रेमचंद ने पहाड़ की वह चोटी बताया है, जिस पर वे कभी नहीं चढ़ सके। उनकी ही तरह मुझे भी गणित से सदा तकलीफ ही रही है, और गणित में भी रेखागणित, तौबा-तौबा। उसमें नंबर देते समय हमारे अध्यापक रेखाएं खर्च करने की बजाय दो शून्य से ही काम चला लेते थे। यद्यपि कापी कोरी छोड़ने के कारण सफाई के दो नंबर का मेरा हक बनता था।
गणित की ही तरह भूगोल में भी कर्क, मकर और विषुवत् रेखा का चक्कर मुझे कभी समझ नहीं आया। जब बहुत सिर मारने पर भी मुझे ग्लोब पर कर्क रेखा नहीं मिलती थी, तो भूगोल के अध्यापक मुझे मैदान के चक्कर लगाने भेज देते थे। इस चक्कर में मेरे पैर की रेखाएं तो मजबूत हो गयीं, पर हाथ की रेखा कमजोर रह गयी।
आप जानते ही हैं कि मनुष्य का भाग्य पैर की नहीं, हाथ की रेखाओं से ही बनता और बिगड़ता है। मैंने कई ज्योतिषियों को अपने पैर की रेखाएं दिखानी चाहीं, पर कोई तैयार नहीं हुआ। मेरी समझ में नहीं आता कि हाथ और पैर दोनों में ही चार उंगलियां और एक अंगूठा होता है। हाथ की उंगलियों में अंगूठी पहनते हैं, तो पैर की उंगली में बिछुवे। संकट के समय जान बचाकर भागते समय पैर ही काम आते हैं। फिर भी हाथ की रेखाओं को न जाने क्यों अधिक महत्व दिया जाता है ? यदि हस्तरेखा की तरह पदरेखा विज्ञान का भी अध्ययन हो, तो ज्योतिषियों का कारोबार रातोंरात दुगना हो जाए।
एक बार पानी के जहाज से यात्रा के दौरान एक मौलाना ने जहाज के कप्तान से कर्क रेखा दिखाने को कहा। कप्तान ने बहुत समझाया कि ये रेखाएं काल्पनिक होती हैं, पर वह नहीं माना। इस पर कप्तान ने एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र के लैंस के नीचे एक धागा रख दिया। उसे देखते समय मौलाना की दाढ़ी का एक बाल भी वहां पहुंच गया। इस पर वह खुशी से चिल्लाया – कप्तान साहब, यहां तो कर्क रेखा के साथ मकर रेखा भी दिखाई दे रही है।
कुछ ऐसा ही चक्कर इन दिनों गरीबी और अमीरी की रेखा को लेकर चल रहा है। योजना आयोग की कृपा से गरीबी की रेखा तो 28 और 32 रु0 के बीच में झूल रही है, पर अमीरी की रेखा का पैमाना क्या है, यह किसी को नहीं पता।
कुछ लोग कहते हैं कि इसका पैमाना मुकेश अम्बानी का 4,000 करोड़ रु0 वाला मकान है। कुछ इसका पैमाना पांच करोड़ रु0 वाली कार, पांच लाख रु0 की घड़ी, दो लाख रु. का मोबाइल और एक लाख रु0 वाली कलम को मानते हैं।
पर काफी सिरखपाई के बाद पिछले दिनों मुझे इस बारे में अंतिम सत्य पता लग ही गया। वह यह है कि अमीरी की रेखा मकान, गाड़ी, घड़ी, मोबाइल या कलम से नहीं, शौचालय से तय होती है।
हमारे देश के महान योजना आयोग के कार्यालय में दो शौचालयों की मरम्मत में 35 लाख रु0 खर्च कर दिये गये। जरा सोचिये, मरम्मत में इतने खर्च हुए, तो नये बनने में कितने होते होंगे? जब कुछ लोगों ने आपत्ति की, तो योजना आयोग के मुखिया श्री मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इसे बिल्कुल ठीक बताया।
मैं उनकी बात से पूर्णत: सहमत हूं। अधिकांश विचारकों का अनुभव है कि यही एकमात्र ऐसी जगह है, जहां एकांत में बैठकर मौलिक चिन्तन हो सकता है। श्री अहलूवालिया और उनके परम ज्ञानी मित्र मनमोहन सिंह की जिन योजनाओं से रुपया रसातल में जा रहा है, उसके बारे में चिन्तन-मनन इतने आलीशान स्थान पर ही हो सकता है।
खैर, अमीरी की रेखा के बारे में मैंने तो निर्णय कर लिया है, पर कई लोग अभी इस बारे में और शोध कर रहे हैं। यदि आपके निष्कर्ष इससे कुछ अलग हों, तो मुझे जरूर बतायें। मैं आपको भारत के आम आदमी की तरह, गरीबी की रेखा पर बैठे हुए, बड़ी हसरत से अमीरी की रेखा को ताकते हुए मिलूंगा।
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