हमारे मीडिया की प्राथमिकताएं
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देवेन्द्र स्वरूप
क्या हमारा मीडिया सत्ता राजनीति की उठा–पटक और सैक्स–अपराध की कहानियों से ऊपर उठकर दर्शकों की सुप्त आध्यात्मिक चेतना को जगा सकता है? उन्हें सादगी की जीवन शैली के सुख की अनुभूति करवा सकता है?
हमारी दौड़-धूप भरी जिंदगी में हमें विश्व और समाज से जोड़ने वाला एकमात्र पुल मीडिया ही रह गया है। इस पुल पर कई समानांतर कतारे हैं-प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया और इंटरनेट। इनमें भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अर्थात समाचार वाहिनियां (न्यूज चैनल्स) सर्वाधिक सुगम और लोकप्रिय बन गए हैं-चलते-फिरते, खाते-बैठते-सोते, कभी भी टेलीविजन पर खबरों को देखा-सुना जा सकता है, और वह एक ही खबर को दिन में अनेक बार दोहराता रहता है। इसी क्रम में कल 20 जून, 2012 (बुधवार) को लगभग सभी खबरिया चैनलों पर सुबह से शाम तक एक ही समाचार और उस पर बहस छायी रही। समाचार सिर्फ इतना था कि दो वर्ष बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में आगे रहने के आकांक्षी एक मुख्यमंत्री ने एक अंग्रेजी दैनिक को दिए साक्षात्कार में भावी प्रधानमंत्री के लिए कुछ सीमाएं बांधने की कोशिश की, पर उस साक्षात्कार को सभी चैनलों ने किसी दूसरे मुख्यमंत्री पर केन्द्रित करके दोनों के बीच एक अशोभनीय विवाद खड़ा कर दिया। मजे की बात यह है कि जिन दो मुख्यमंत्रियों को अखाड़े में धकेलकर कुश्ती कराने का प्रयास किया गया, उनमें से किसी ने भी किसी का नाम नहीं लिया और मीडिया के बार-बार उकसाने पर भी उन्होंने इस बारे में मौन रहना उचित समझा।
दृश्य कौन–सा देखें?
जिस समय हमारा समूचा मीडिया सत्ता राजनीति की इस काल्पनिक कुश्ती में रस ले रहा था, उस समय राजधानी दिल्ली में पानी और बिजली संकट से त्राहि-त्राहि मची हुई थी। बच्चे-बूढ़े-महिलाएं हर कोई बेहाल था। व्याकुल लोग सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए सड़कों पर घड़े, मटके फोड़ रहे हैं। आम आदमी की पीड़ा का तो इससे ही अंदाजा लगा सकते हैं कि देश के प्रधानमंत्री, राजधानी की मुख्यमंत्री और सांसदों के घरों तक भी टैंकरों द्वारा पानी पहुंचाने की व्यवस्था करनी पड़ रही है। दिल्ली अपने पड़ोसी राज्य हरियाणा से पानी और बिजली की याचना कर रहा है और हरियाणा के मुख्यमंत्री ने अपने राज्य की सीमा बताकर हाथ खड़े कर दिये हैंै। पर, हमारा मीडिया इस बुनियादी जीवन संकट के बारे में उदासीन प्रतीत हो रहा है। क्या सचमुच उसके लिए मानव जीवन और सभ्यता के अस्तित्व से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है सत्ता के टुकड़ों के लिए राजनेताओं और दलों की आपसी उठापटक? सत्ता राजनीति और मानव सभ्यता की रक्षा के दो प्रश्नों में से उसकी प्राथमिकता क्या है? यदि मीडिया की भूमिका लोक जागरण और लोक शिक्षण है तो वह समाज को किस दिशा में ले जाना चाहता है? क्या मानव जीवन जल, वायु और अन्न के बिना चल सकता है? और क्या बिजली अथवा किसी भी अन्य ऊर्जा शक्ति के बिना वर्तमान सभ्यता का चक्का चल सकता है? आज ही के समाचार पत्रों के एक कोने में छपा कि धरती पर जनसंख्या के सामान्य आंकड़ों के अतिरिक्त मोटे लोगों के कारण 24.2 करोड़ लोगों की संख्या का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। 'लंदन स्कूल आफ हाइजीन एंड ट्रापिकल मेडीसिन' के अनुसंधानकर्त्ताओं के अनुमान के अनुसार सन् 2050 तक पृथ्वी पर जो जनसंख्या होगी, उसमें मोटे लोगों के कारण भार और बढ़ेगा, उनके लिए अधिक कैलोरीज की आवश्यकता पड़ेगी। इस आवश्यकता को भोजन के द्वारा पूरा करना होगा, जिससे पहले से सिकुड़ रहे संसाधनों पर अधिक दबाब पड़ेगा। अब प्रश्न उठता है कि यह मोटापा बीमारी का लक्षण है या समृद्धि का? मोटे लोगों की संख्या अमरीका जैसे देशों में बढ़ रही है उससे स्पष्ट है कि यह समृद्धि का परिणाम है, क्योंकि दुनिया के अधिकांश अविकसित देशों में तो पिचके पेट और अस्थि पंजर वाले बच्चे-बूढ़ों के चित्र ही सामने आते हैं। ये दो परस्पर विरोधी चित्र विकास की वर्तमान दिशा में से उत्पन्न आर्थिक विषमता के परिचायक हैं।
बढ़ता संकट
वस्तुत: हम विकास के दुष्चक्र में फंस गये हैं। 'टैक्नालॉजी' लगातार शरीर सुख, मनोरंजन और देशकाल पर विजय के साधन रूप में नये-नये उपकरणों का आविष्कार करती जा रही है। ये उपकरण क्रमश: विलासिता से आगे बढ़कर हमारे जीवन की आवश्यकता बनते जा रहे हैं। इन सब उपकरणों का प्रयोग करने के लिए विद्युत या ऊर्जा शक्ति का प्राप्त होना अनिवार्य है, उसके बिना इनका उपयोग संभव ही नहीं है। इसलिए पूरे विश्व में ऊर्जा के संसाधनों पर अधिकार जमाने की होड़ लगी हुई है। इन उपकरणों और उन्हें चालू रखने वाले ऊर्जा स्रोतों की प्राप्ति ही देशों और उनकी जनंसख्या के भीतर दारिद्र्य की व्याख्या की कसौटी बन गयी है। प्रत्येक गांव, प्रत्येक घर, प्रत्येक व्यक्ति तक 'टैक्नालॉजी' की इन नियामतों का पहुंचना ही विकास की सफलता का निष्कर्ष बन गया है। अधिकाधिक परिवारों को सुख के ये उपकरण प्राप्त होने को ही जीवन स्तर का ऊपर उठना कहा जाता है और मनुष्य जिस जीवन स्तर का एक बार आदी हो जाता है उससे बाहर निकलना अत्यंत कष्टकारी बन जाता है। यूरोप और अमरीका आदि समृद्ध देश इस समय इस संकट से गुजर रहे हैं। यूरोप में ग्रीस, स्पेन और इटली आदि देशों के सामने विदेशी कर्ज के सहारे ऊपर उठाये गये जीवन स्तर को नीचे लाने का संकट खड़ा हो गया है। उनके अर्थ संकट ने 'यूरो जोन' नामक मुद्रा क्षेत्र के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। चूंकि यह संकट यूरोप के समृद्ध देशों का संकट है, इसीलिए मैक्सिको के सुदूर दक्षिणी छोर पर स्थित लास काषोस नामक एक रमणीक पर्यटन स्थल पर आयोजित जी-20 सम्मेलन पर 'यूरो जोन' का संकट ही छाया रहा। यहां तक कि भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी यूरोप को इस संकट से बाहर निकालने के लिए भारतीय कोष से 10 अरब डालर का योगदान देना उचित समझा। कैसी विचित्र स्थिति है कि जिस देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, उनकी ठीक से पहचान नहीं हो पा रही है, जो अपनी अर्थव्यवस्था को जिंदा रखने के लिए दो लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्तानवें (2,16,297) करोड़ रुपये की सब्सिडी एक साल (2011-12) में खर्च करता है, जिस पर सब्सिडी का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है, वह यूरोप के ऊंचे जीवन स्तर को टिकाए रखने के लिए 10 अरब डालर का योगदान करे। यह कर्जा लेकर कर्जा देने का हास्यास्पद उदाहरण नहीं तो और क्या है?
विरोधाभासी जीवन
रोज चेतावनियां मिल रही हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था लगातार नीचे गिर रही है, नदियां सूख रही हैं, गंगा और यमुना जैसी प्रमुख नदियों का जल पीना तो दूर, नहाने लायक तक नहीं बचा है। गंगा के प्रति जो सहस्राब्दियों से चली आ रही धार्मिक श्रद्धा है, उससे अभिभूत होकर संत शक्ति गंगा की रक्षा के लिए मैदान में उतर पड़ती है, पर वे इसका एक ही हल सुझाते हैं कि उत्तराखंड राज्य में गंगा नदी पर विद्युत उत्पादन के लिए जो अनेक बांध बनाये गये हैं, उन्हें तुरंत बंद कर दिया जाए। वे गंगा के प्रदूषण के लिए केवल सरकारी योजनाओं को दोषी मानते हैं और उसे निर्मल व शुद्ध बनाए रखने की पूरी जिम्मेदारी सरकार के मत्थे मढ़कर समाज को उस जिम्मेदारी से पूरी तरह मुक्त कर देना चाहते हैं। उन्हें विश्वास है कि गंगा नदी को 'राष्ट्रीय नदी' घोषित कर देने मात्र से उस पर छाया संकट टल जाएगा। वे भूल जाते हैं कि गंगा नदी का संकट सब नदियों का संकट है।
हमारी त्रासदी यह है कि एक ओर तो हम आधुनिक तकनीकी द्वारा प्रदत्त सब सुविधाओं को अपने लिए पाना चाहते हैं, पर साथ ही हम अन्य देशवासियों को उनसे दूर रहने का उपदेश देते रहते हैं। हमने अपने दिमागों में ग्राम और शहर की दो समानांतर सभ्यताओं का कल्पना चित्र तैयार कर रखा है। जबकि वास्तविकता यह है कि प्रत्येक ग्रामवासी अब शहरी सुविधाओं को पाना चाहता है। उन सुविधाओं को पाने के लिए वह गांव छोड़कर शहर की ओर भागने के लिए लालायित है, अथवा वह अपने गांव में ही उन सब सुविधाओं को पाना चाहता हे। बढ़ती हुई जनसंख्या में प्रत्येक परिवार को आधुनिक तकनीकी द्वारा प्रदत्त सुविधाओं की उत्पादन प्रक्रिया भी पर्यावरण के लिए घातक है। हम चाहते हैं कि वे सब सुविधाएं तो सबको मिल जाएं पर उनके उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधानों जैसे जल स्रोतों, खनिज पदार्थों और वन-संपदा आदि का दोहन न हो। इसलिए एक ओर पूरे विश्व में विकास के 'पश्चिमी मॉडल' को अपनाकर जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की होड़ लगी हुई है तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़ न करने के लिए जनांदोलनों को भी भड़काया जाता है। इन आंदोलन को भड़काने वाले समाज सुधारक यदि अपने जीवन में झांके तो दिखायी देगा कि वे स्वयं शहरी जीवन की सुविधाओं से पूरी तरह सम्बंध विच्छेद करने की सिद्धता नहीं रखते। क्या गांव-गांव और घर-घर तक बिजली पहुंचाने की मांग वास्तविक नहीं है? भारत जैसे विशाल देश की विशाल जनसंख्या के लिए इतनी अधिक मात्रा में बिजली का उत्पादन कैसे होगा? बिजली पैदा करने के जो पांच साधन हैं-पानी, कोयला, अणुशक्ति, हवा और सूर्य, इनमें से किस साधन को यह देश अपनाने की स्थिति में है? एक ओर तो जनसंख्या बढ़ रही है, नगरी करण की गति तेज हो रही है, दूसरी ओर इनके कारण प्राकृतिक संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैं और पर्यावरण नष्ट हो रहा है। विकास की वर्तमान दिशा और पर्यावरण विनाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, वे एक-दूसरे से अन्योनाश्रित जुड़े हुए हैं।
दुष्चक्र में फंसा आम आदमी
अब यह स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि आर्थिक और भौतिक विकास के जिस रास्ते पर मानव जाति चल रही है, वह आत्मनाश का रास्ता है। 'मय' जाति को लुप्त पंचागों की खोज करके उस आत्मनाश को टाला नहीं जा सकता, न ही 'जी-20' और 'रियो डि जेनेरियो' के सम्मेलन इस समस्या का हल खोज सके हैं, क्योंकि कोई भी देश अपने जीवन स्तर में कटौती करने को तैयार नहीं है। एक ओर अधिकाधिक शस्त्रास्त्रों को प्राप्त करने और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने की होड़, अपने उत्पादन को बढ़ाने, विज्ञापनों के द्वारा उनके लिए अधिक बाजारों की खोज की जा रही है, तो दूसरी ओर सभ्यता के विनाश की भविष्यवाणियां की जा रही है। इस समय तकनीकी के इन आधुनिक नियामतों को गांव-गांव पहुंचाने के लिए पूरा विज्ञापन तंत्र गांवों पर केन्द्रित हो गया है। ग्रामवासियों में उन उपकरणों के लिए भूख जगायी जा रही है। विद्यालयों में प्राथमिक स्तर पर कम्प्यूटर की शिक्षा देने एवं प्रत्येक बच्चे के हाथ में मोबाइल थमाने को प्रगति का लक्षण बताया जा रहा है।
इस दुष्चक्र से बाहर निकलना कैसे संभव है? अभी 19 जून को इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख पढ़ा, जिसमें कहा गया कि 300 वर्ष पूर्व जन्मे फ्रांसीसी चिंतक रूसो की धारणा थी कि आधुनिक तकनीकी के प्रादुर्भाव के पूर्व मनुष्य सही अर्थों में सुखी था। यह कितना सच है कहना कठिन है, क्योंकि तकनीकी की यात्रा तो मानव सभ्यता के जन्म के साथ ही शुरू हो गयी थी। तब हजारों साल में कोई नया आविष्कार होता था, अब उसकी गति बहुत तीव्र है, प्रत्येक सप्ताह कोई न कोई नया उपकरण बाजार में आ जाता है और विज्ञापन तंत्र व्यक्ति-व्यक्ति तक उसकी जानकारी पहुंचा देता है। बौद्धिक धरातल पर हम इस प्रक्रिया के दुष्परिणामों को देख-समझकर भी क्या सभ्यता की इस दौड़ से बाहर निकलने का आत्मबल अपने भीतर पाते हैं? यह आत्मबल कोई सरकार हम पर नहीं थोप सकती। यह तो हमारे भीतर से ही जाग्रत हो सकता है और यहीं मीडिया की भूमिका आ जाती है। क्या हमारा मीडिया सत्ता राजनीति की उठा पटक और सैक्स, अपराध की कहानियों से ऊपर उठकर दर्शकों की सुप्त आध्यात्मिक चेतना को जगा सकता है? उन्हें सादगी की जीवन शैली के सुख की अनुभूति करवा सकता है? उनके सामने वैकल्पिक सभ्यता का कोई चित्र खड़ा कर सकता है? पर क्या टेलीविजन की अपनी दुनिया के भीतर यह परिवर्तन संभव है? हमारे पास केवल प्रश्न हैं, उनके उत्तर नहीं।
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