संवेदनाओं से उपजी आत्मकथा
|
विभूश्री
हित्य में आत्मकथाओं की समृद्ध परम्परा रही है। आमतौर पर आत्मकथाएं स्वयं को कठघरे में खड़ा करके स्वयं के द्वारा किए गए कार्यों का निरपेक्ष मूल्यांकन करने की साहित्यिक विधा मानी जाती है। लेकिन अनेक बार लेखक स्वयं को सही और दूसरों को गलत सिद्ध करने के लिए भी इस विधा का प्रयोग करते हैं। या फिर अनेक बार जीवन के ढंके-छुपे ऐसे 'सच' भी आत्मकथाओं में उजागर किए जाते हैं, जिससे कई चर्चित व सम्मानित लोगों के व्यक्तित्व के अनछुए पहलू सामने आ जाते हैं। इन सबसे अलग कुछ आत्मकथाएं ऐसी भी लिखी गई हैं जिनके द्वारा किसी संवेदनशील व्यक्ति ने अपने जीवन को सहज ढंग से लिपिबद्ध किया है। एक आम आदमी के दैनिक जीवन के खटराग, उसके संघर्ष, विडंबनाओं से साक्षात्कार और देश-समाज की स्थितियों से उसके मन में उठने वाली सहज प्रतिक्रियाएं वहां स्पष्ट रूप से महसूस की जा सकती हैं।
'वनफूल' जैसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित आत्मकथा के लेखक, सुपरिचित और विद्वान डा. रमानाथ त्रिपाठी की आत्मकथा का दूसरा खण्ड 'महानागर' कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आया है। 'वनफूल' से अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हुए लेखक ने इसमें कानपुर से दिल्ली जैसे महानगर में आगमन और यहां गुजारे गए अब तक के जीवन काल को संकलित किया है। इसमें एक ओर जहां लेखक के व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन में घटित होने वाली घटनाओं, कार्यस्थल पर सामने आने वाली अव्यवस्थाओं के चित्र मौजूद हैं, वहीं उस दौर में घटित होने वाली राष्ट्रीय और राजनीतिक घटनाओं के परिणामस्वरूप लेखक के मन में उत्पन्न होने वाली उद्वेलनकारी स्थितियों का भी वर्णन है। यह एक ऐसे संवेदनशील व्यक्ति की मर्मस्पर्शी आत्मकथा है जो केवल आत्मसुख या स्वार्थ की भावना से ही प्रेरित नहीं होता है बल्कि वह राष्ट्र की अस्मिता व उसकी गरिमा के लिए भी पूरी तरह सजग रहता है। यह आत्मकथा सिद्ध करती है कि वास्तव में राष्ट्र और समाज के आदर्शों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध होकर सीधे-सरल-सहज ढंग से जीने वाला व्यक्ति भी दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है।
हालांकि आज के व्यावहारिक युग में इन गुणों की अप्रासंगिकता को लेखक ने अपनी भूमिका में स्वीकार करते हुए लिखा है, 'महानगर में भी कट्टर देशभक्ति से पिंड नहीं छुड़ा सका। यहां उन्नति के अनेक साधन हैं, लेकिन मैं उनका लाभ नहीं उठा सका। संवेदनशील, अव्यावहारिक और थोथा स्वाभिमानी होने के कारण निरन्तर घाटे में रहा हूं।' लेकिन फिर भी उन्हें अपने आदर्शों से कोई शिकायत नहीं है। वह आगे कहते हैं, 'कबीर, नानक और तुलसी जैसे संतों द्वारा सुझाया गया नौतिक जीवन मैंने हमेशा जीना चाहा है।' ऐसे अनेक प्रसंग पुस्तक में हैं जो उन्हें 'स्व' से 'पर'की ओर ले जाते हैं। इसलिए यह कृति आत्मकथा के दायरे से निकलकर प्रेरक गाथा बन जाती है। इसकी एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसे पढ़ते हुए एक साथ साहित्य की कई विधाओं, जैसे-संस्मरण, डायरी, रिपोर्ताज और यात्रा-वृत्तांत पढ़ने का सुख भी मिलता है।
पुस्तक का नाम – महानागर
लेखक – डा. रमानाथ त्रिपाठी
प्रकाशन – राजपाल एण्ड संस
कश्मीरी गेट,
दिल्ली-110006
मूल्य – 325 रुपए पृष्ठ – 221
बेबसाइट: www.rajpalpublishing,com
गहन वैचारिकता का प्रवाह
ऐसे समय में; जब पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्यों से न केवल भटक गई हो बल्कि उसे याद भी नहीं करना चाहती हो, जब उद्देश्यपरकता की बजाय व्यावसायिकता ही नहीं बल्कि सनसनी फैलाना ही मीडिया का पहला लक्ष्य बन चुका हो, और जब प्रतिबद्धताओं, सरोकारों और मूल्यों की बात करने वालों को संकीर्ण और पुरातनपंथी माना जाने लगा हो; तब भी कुछ ऐसे पत्रकार हैं जिनके लिए कलम की गरिमा बचाए रखना ही जीवन का लक्ष्य है। जयकृष्ण गौड़ ऐसे ही एक यशस्वी पत्रकार हैं, जिन्होंने शब्द की महिमा और विचारों की गरिमा को पहचाना और उसे स्थापित करने के लिए अनवरत प्रयत्नशील रहे। विगत चार दशकों के पत्रकार-जीवन में उन्होंने अनेक सामाजिक, राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय और राजनीतिक मुद्दों पर गंभीर संपादकीय व आलेख लिखे। इन्हीं में से कुछ का संकलन प्रकाशित हुआ है। इन संपादकीयों में से गुजरते हुए राष्ट्र और समाज के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध एक निष्पक्ष पत्रकार की विचारधारा को समझा जा सकता है।
अनेक खंडों में विभाजित इस पुस्तक में राष्ट्रवाद, पंथनिरपेक्षता, हिन्दुत्व, मीडिया की भूमिका, इस्लामी आतंकवाद व अमरीका, रामजन्मभूमि, पाकिस्तानी रवैया, कांग्रेसी संकीर्ण सोच, अटल सरकार सहित विविध विषयों पर लेखक के विचार संकलित हैं। लोकतंत्र के नाम पर कुछ स्वार्थी राजनीतिक दलों और नेताओं के द्वारा की जा रही तिकड़मों की आलोचना करते हुए उन्होंने अपने एक संपादकीय में जो लिखा, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उन्होंने लिखा, 'लोकतंत्र के आधार पर इस विशाल राष्ट्र को चलाने का हमारा संवैधानिक संकल्प है, लेकिन लोकतंत्र को चलाने वाले ही उसे लहूलुहान करने लगें तो फिर इस व्यवस्था के आधार पर इस सनातन देश को चलाना कठिन है।' इसी तरह हिन्दुत्व को इस राष्ट्र की आत्मा और पहचान मानते हुए एक अन्य लेख में जयकृष्ण गौड़ लिखते हैं, 'जहां तक भारत के जन-मन की आस्था, विश्वास और संकल्प का सवाल है, वह वाल्मीकि की रामायण और तुलसीदास की रामचरित मानस एवं संतों-महात्माओं की गाथाओं में सनातन समय से अंकित है। उस आस्था-विश्वास को समय के थपेड़े नहीं मिटा सके।' इसी क्रम में मीडिया की जमीनी सच्चाई पर तीखी टिप्पणी करते हुए उन्होंने अपने एक संपादकीय में लिखा है, 'मीडिया को देश, समाज एवं मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है। उसका सरोकार है तो केवल व्यावसायिकता से। व्यावसायिक स्पर्धा में मीडिया के निजी हित ही अधिक रहते हैं। यदि मीडिया के लिए देश और समाज का हित नहीं रहा, यदि उसके सामने कोई दिशा, मूल्य नहीं रहे, तो फिर चाहे पाठक हो या दर्शक, वे केवल नौटंकी की दृष्टि से पढ़ेंगे, देखेंगे। फिर न विश्वसनीयता रहेगी और न कोई मीडिया से प्रेरणा लेगा।' कह सकते हैं कि समय-समय पर देश की राजनीतिक स्थिति के प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए ये सभी संपादकीय उस दौर के वातावरण का गहन और निरपेक्ष विश्लेषण करते हैं। उन्हें पढ़ने से एक ऐसे राष्ट्रवादी पत्रकार के विचारों का साक्षी हुआ जा सकता है जिसके लिए उसके सरोकार ही सर्वोच्च रहे हैं। कहना चाहिए कि इनके द्वारा लेखक ने राष्ट्र के समक्ष उपस्थित अनेक प्रकार की विसंगतियों पर अपनी कलम की धार से प्रहार किया है।
पुस्तक का नाम – प्रवाह
(जयकृष्ण गौड़ के चुनिंदा
संपादकीयों का संकलन)
लेखक – जयकृष्ण गौड़
प्रकाशक – सर्वोत्तम प्रकाशन,
जी-8, स्वदेश भवन
2,
प्रेस काम्पलेक्स, इंदौर (म.प्र.)
फोन- 09425056423
मूल्य – 1000 रु. मात्र पृष्ठ – 379
टिप्पणियाँ