सरोकार: बेटी विवाह में वरऔर घर -मृदुला सिन्हा
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सरोकार: बेटी विवाह में वरऔर घर -मृदुला सिन्हा

by
Jun 18, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Jun 2012 12:23:23

 

बेटी ब्याह के अवधी गीत की पंक्तियां हैं-

'सावन सुगना मैं गुड़ घी

पाल्यो, चैत चना के री दाल

अब सुगना तू भैया सजोगवा,

बेटी के वर हेरी लाओ'

'उड़त–उड़त सुगना,

जाया ओही देसवो

बैठ डरिया ओनाए,

डरिया ओनाय सुगना फंख फुलायल

चितया नजरिया घुमाए,

जेहि घर ये सुगना संपत्ति देखव

चरनी बंधल बैल गाय,

जेहि घर ये सुगना सम्मति देखव

बेटी के करिहा बिआह।'

अर्थात तोता को भी वर-घर ढूंढ़ने के लिए कहा जाता है। जिस घर में संपत्ति हो और सम्मति हो, वही घर बेटी के लिए ढूंढ़ो। तोता क्या वर-घर ढ़ूढ़ता। नाई अवश्य यह काम करता था। मेरी बुआ का ब्याह होने वाला था। दादी ने नाई को बुलावा भेजा । नाई रामचरण के आते ही उन्होंने कहा 'तुमको मालूम है कि मेरी बिटिया सयानी हो गई है। फिर हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हो? उसके योग्य वर और घर खोजना है कि नहीं?

हां। हां, मालकिन। मैं आपके पास आने ही वाला था । रामदीन सिंह की बेटी के लिए वर-घर देखने गया था। मुझे लगा कि वह वर और घर तो अपनी ललिता के लिए बहुत योग्य रहेगा। रामचरण नाई बड़ा खुश होकर बोला। रामचरण के बारे में मेरी परदादी बताया करती थीं, 'गांव में एक ही नाई था। भूमिहार ब्राहमण, राजपूत, कायस्थ सभी जतियों के सत्तर-अस्सी घर। कम से कम एक साथ बीस-पच्चीस लड़कियां तो ब्याहने लायक होती ही थीं। अकेला नाई कैसे ढूंढे लड़के। मेरी परदादी ने देवी देवताओं की मनौती मांगी। उस नाई को सात बेटे हुए। दादी क्या सभी गांव वाले खुश। अब तो गांव की बेटियों के लिए रिश्ते ढूंढने में कोई परेशानी नहीं होगी। एक साथ सात बरात गांव में आ जाएं फिर भी परेशानी नहीं, सात-सात नाई जो होंगे।

रामचरण उन्हीं सातों भाइयों में चौथे नम्बर का था। उसने कहा-'मैं तो देख ही आया हूं। कल बड़े भैया को भी ले जाऊंगा। उनकी आंखें बड़ी तेज हैं। परिवार का ऊंच-नीच भांप लेते हैं। सब ठीक होना चाहिए। अपने परिवार से उस परिवार के गुण मिलने चाहिए। बिटिया अपनी गऊ है गऊ। उसको दु:ख न हो। हम तो अगल-बगल से उस घर की औरतों के स्वभाव का भी पता लगा ले आयेंगे। हमारी बिटिया को तो उन्हीं के साथ रहना है न। आप निश्चिंत रहें मालकिन। एक बार देख आएं फिर पंडित जी को दिखा देंगे। बाद में तो मालिक लोग जायेंगे ही। नहीं भी जायेंगे तो क्या वर और घर का चुनाव हम अच्छा ही करेंगे।'

दादी आश्वस्त हो गईं। कुछ दिनों में सब घटनाएं वैसी ही घटीं जैसा नाई ने कहा था। उसी की सूझबूझ और चयन पर विश्वास करके बुआ की शादी तय हो गई। विवाह का दिन निश्चित हुआ। विवाह के पूर्व कई विधि विधान थे। सगुन, तिलक और धान बटाई के लिए लड़के वालों के यहां जाना था। मेरे दादा जी, बाबू जी या भैया साथ नहीं गए। नाई और पंडित ही जाते रहे। घर पर उनके लौटने पर घर के लोग घेर लेते। लड़के वाले के यहां किसने क्या कहा, नाई और ब्राहमण को कैसा भोजन करवाया, सब पूछते। नाई घर के हर सदस्य के नाक-नक्श और गुण का बखान करते नहीं थकता। वह घर के आगे पीछे घूम कर तथा गांव में जाकर उस परिवार के बारे में बहुत कुछ पता कर आता था। तिलक का नकद और अंगूठी या मोहर अशफर्ी भी पंडित जी ही ले गए थे।

रामचरण ने कहा था -'मालकिन । एक बात कान खोलकर सुन लीजिए। लड़का का रंग थोड़ा श्याम है। मंडप पर आने पर हल्ला-गुल्ला मत मचाइएगा।

मेरी दादी चिल्ला पड़ीं – 'नाई । सगुन, तिलक, धनबट्टी होने के बाद सुना रहे हो कि लड़का श्याम रंग का है। तूने मेरी बेटी का गोरा चिट्टा रंग नहीं देखा था। आंख पर पट्टी पड़ी थी।'

'मालकिन। आप गुस्सा मत करें। लड़के का नाक नक्श और उसका स्वभाव देखकर आप उसका रंग भूल जाएंगे। और यह भी तो याद करिए कि रामचन्द्र जी का रंग कैसा था, और सीता कैसी थीं। सब जानकर भी आप लोग नासमझ बन जाती हैं? आप ही तो बेटी ब्याह का गीत गाती हैं—

'गोरा रंग न खोजू बाबू,

धूप कुम्हलाए जी।

काला रंग न खोजू बाबू,

लोग देखी डराएं जी।

श्याम सुन्दर बाबू जी

मोरे मन भावे जी।'

हम भी तो बचपन से ये गीत सुन रहे थे।

दादी को समझाना आसान नहीं था। विवाह के समय दरवाजे पर दामाद को देखकर दादी चौंक गई। रामचरण को बुलवाया – 'लड़का बदल दिए क्या? यह तो गोरा चिट्टा है।'

'मालकिन। हम तो आपको चिढ़ा रहे थे। हम अपनी बिटिया के योग्य वर खोजे हैं।' विवाह के समय भी नाई और पंडित की ही भूमिका प्रमुख रही। सब विधि विधान उन्हीं दोनों के भरोसे था। कितना विश्वास था उन पर। धीरे-धीरे स्थिति बदलती गई। मेरी शादी के समय नाई तो साथ गया था, पर बाबू जी के साथ गांव के और भी छ: सात या आठ-नौ लोग जाते थे। उन सबको 'वरतुहार' वर की इच्छा रखने वाले, कहा जाता था। वरतुहार लोगों के लिए पारखी होना बहुत आवश्यक होता था। वर का शाब्दिक अर्थ होता है चुनना। वरतुहार का काम था दोनों परिवारों के गुण मिलाना। लड़के को चलाकर, उठा-बैठा कर देखना। उनकी पढ़ाई लिखाई के बारे में जानकारी लेना। घर की आर्थिक स्थिति का पता लगाना। उस परिवार के पुरखों में भी कोई ऐसी बीमारी न हुई हो जो वंशानुगत होती है। कितनी छानबीन। लड़का-लड़की का मेल बैठाया जाता था, या उनसे भी अधिक दो परिवारों के संस्कारों का मेल। लड़का ढूंढना आसान भी नहीं होता था। परिवार की गुप्त बातों का भी पता लगाया जाता था।

बेटी की जिन्दगी का सवाल जो था। बेटी सुखी रहे का भाव। बेटी तो गांव की होती थी। इसलिए गांव वाले भी ध्यान देते थे। वरतुहार द्वारा कभी-कभी बेटी के पिता छले भी जाते थे। बेटी के पिता से कोई दुश्मनी रहने पर बेटी के लिए अयोग्य वर और घर का चुनाव कर देते थे। विवाह हो जाने पर राज खुलता था। फिर कोई क्या करे? पर ऐसा बहुत कम होता था। अधिकतर वरतुहार बेटी वाले के शुभेच्छु ही होते थे। दरअसल अपने वृहत्तर परिवार और गांव से वैसे ही 'वरतुहार' का चयन किया जाता था जो बेटी के पिता के शुभेच्छु हों।

विवाह संस्कार को सम्पन्न कराने में 'अगुआ' भी  महत्वपूर्ण होता था। अगुआ वह जो लड़का और लड़की के परिवारों को अच्छी तरह जानता हो। दोनों परिवारों में जा-जाकर विवाह तय करवाता है। विवाह हर पल उसकी जरूरत होती है। ऐसा लगता है कि विवाह संबंध को सफल बनाने में शुरू से अंत तक जो भूमिका नाई की होती थी, कालांतर में वही भूमिका 'अगुआ' की हो गई। विवाह गीत की पंक्तिंया हैं-

'हजमा (नाई) के दाढ़ी जारू, बभना के पोथी फाड़ू।

जिनी लयलन बुढ़वा

दमाद है माई।'

अर्थात सुन्दर या कुरूप वर मंडप पर लाने की जिम्मेदारी नाई, ब्राह्मण या अगुआ की ही होती थी। शिव और पार्वती के विवाह निश्चित करने में जो भूमिका नारद बाबा की थी। तभी तो मैना (पार्वती की मां) शिव का रूप देखकर रोने लगीं -'

नारद बाबा के हम किछु न बिगाड़ली,

खोजी लयलन बुढ़वा दमाद है माई।'

हमारे समाज में विवाह संस्कार को बहुत सोच समझकर सम्पन्न कराने की परिपाटी रही है। नाई, पंडित या अगुआ विवाह करवाने के बाद निश्चिंत नहीं होते थे। विवाह के दो-तीन वर्षों तक दोनों परिवारों विशेषकर बेटी के ससुराल पर निगाह रखते थे। संबंधों में ऊंच-नीच हो तो ठीक करने की कोशिश करते थे। एक परिवारों का बिखरना, एक घर का टूटना, दोनो संबंधियों में मनमुटाव होना, लड़की का ससुराल में दु:खी रहना, मात्र दो परिवारों का मसला नहीं था। इससे सारा गांव और समाज दु:खी होता था, बिखरता था। इन्हीं छोटे-छोटे पर आवश्यक व्यवहारों से सामाजिक समन्वय बना रहता था। इसी समन्वित सामाजिक समरसता में हमारी संस्कृति पगती रही है।

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