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आस्था नहीं, लोकतंत्र है अध्यात्म

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Jun 16, 2012, 12:00 am IST
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आस्था नहीं, लोकतंत्र है अध्यात्म

दिंनाक: 16 Jun 2012 13:23:10

 

चिन्तन

 हृदयनारायण दीक्षित

विज्ञान सत्य की खोज का ज्ञान है। दर्शन भी सत्य खोजी यात्रा है। पंथ, मजहब और रिलीजन आस्था हैं। विज्ञान और दर्शन विवेक और ज्ञान में वृद्धि करते हैं इसीलिए मजहबी आस्थाओं वाले समुदाय दर्शन और विज्ञान की आधुनिक खोजों का सामना नहीं करते। दर्शन और विज्ञान दोनो हीं सत्य खोजी हैं पर दोनों के लक्ष्य में आधारभूत अंतर हैं। विज्ञान सत्य की प्राप्ति के लिए सत्य की खोज करता है लेकिन दर्शन सत्य की खोज करता है मनुष्य के दुख दूर करने के लिए। दर्शन का लक्ष्य मनुष्य का दुख दूर करना है। दार्शनिक दुख दूर करने के लिए ही सत्य का अनुसंधान करते हैं। भारत के सभी दार्शनिक अनुभवों का लक्ष्य दुखों की समाप्ति है। भारत के दर्शन और विज्ञान मानव केन्द्रित ही रहे हैं। यहां धर्म का विकास बाद में हुआ और विज्ञान दर्शन का विकास पहले हुआ। इसीलिए वैदिक धर्म पर बहस होती है। भारत का अध्यात्म भी लोकतंत्र है। आधुनिक विज्ञान अब समूचे ब्रह्माण्ड को एक इकाई के रूप में देख रहा है लेकिन भारत में हजारों वर्ष पहले वैदिक काल में ही अस्तित्व को 'एक' देखा गया था।

धर्म आस्था नहीं

भारत का धर्म आस्था नहीं है। यहां सभी विषयों पर प्रश्न और तर्क की परम्परा है। एशिया की अन्य आस्थाओं व पंथों में बहस नहीं होती। भारत के प्राचीन धर्म पर हर गली मोहल्ले में बहस चलती है। ईश्वर के अस्तित्व पर तर्क और प्रश्न होते हैं। देवकथाओं और पुराण प्रसंगों पर खुलकर तर्क होते हैं। हमारे पूर्वजों ने आस्था के प्रश्नों को बहस से अलग नहीं रखा। तर्क-प्रतितर्क और वाद-विवाद सम्वाद की ऐसी खूबसूरत परम्परा विश्व की अन्य संस्कृतियों में नहीं मिलती। पूर्वजों ने तर्क और बहस की परम्परा का सचेत रूप में विकास किया है। उपनिषद् साहित्य प्रश्नोत्तर शैली में ही रचा गया है। एक उपनिषद् का तो नाम ही प्रश्नोपनिषद् है। केनोपनिषद् भी तमाम प्रश्नों से ही उगा है। कठोपनिषद् में जिज्ञासु नचिकेता के प्रश्न हैं और प्रबुद्ध यम के उत्तर। इसी तरह गीता में अर्जुन के प्रश्न हैं और श्रीकृष्ण के उत्तर। अष्टावक्र और जनक के प्रश्नोत्तर से अष्टावक्र गीता बनी। महाभारत में यक्ष के खूबसूरत प्रश्न हैं और युधिष्ठिर के उत्तर। भारतीय अनुभूति में प्रकृति को सब तरह सब तरफ से जांचा गया है। प्रकृति के रहस्यों पर लगातार खोज और प्रश्न उत्तर से ही भारत की प्रज्ञा का विकास हुआ है।

अनेकरूपा प्रकृति

समूचा अस्तित्व एक है लेकिन प्रकृति अनेक रूपों में खिलती है। मस्त-मस्त बिन्दास। यह प्रकृति अनन्त रूपवती है। असंख्य रूप स्वभाव वाले प्राणी, असंख्य रूप, आकार वाली वनस्पतियां। पशु, पक्षियों से भरापूरा यह जगत, भिन्न-भिन्न रूप दीप्ति वाले तारे। सघन तारावलि के बीच भारतीय अनुभूति वाली आकाश गंगा। नदियां, पर्वत, समुद्र। अरबों खरबों रूपों के नाम मनुष्य ने ही रखे हैं। परिचय के लिए हरेक रूप के साथ नाम की जरूरत होती है। परिचय प्रगाढ़ हो तो नाम बेमतलब। परिचय की इच्छा न हो तो नाम और भी बेमतलब हो जाता है। रूप और नाम का जोड़ ही प्राथमिक परिचय है। रूप पदार्थ होते हैं और नाम सिर्फ शब्द। मनुष्य जाति ने नाम रखने में बड़ा उत्साह दिखाया है। उसने हरेक मनुष्य का नाम रखा है फिर मनुष्य शरीर के अंगों उपांगों के भी नाम रखे गये हैं। सभी नाम रूप विभाजन का विस्तार हैं। नदी, पहाड़, वनस्पतियां और हम सब पृथ्वी का अंग हैं। सबका साझा नाम हुआ पृथ्वी लेकिन पृथ्वी के अंगों की नामावली में नदी, पर्वत आदि अनेक रूप-नाम हैं। भारतीय चिन्तकों ने प्रकृति की अनेक रूपता में एकता का तत्व देखा। ऋग्वेद के ऋषि ने सार्वभौम घोषणा की 'अस्तित्व एक है, विद्वान उसे इन्द्र, अग्नि आदि नामों से पुकारते हैं।

इन्द्र वैदिक काल के देवता हैं। देवता यानी ब्रह्माण्डीय दिव्यता। दिव्यता अनुभुति है। इसी अनुभूति का नाम है देवता। इन्द्र ऐसी ही दिव्य अनुभूति हैं। ऋग्वेद के ऋषि को इन्द्र नाम की यह महाशक्ति ही सब तरफ भिन्न-भिन्न रूपों मं दिखाई पड़ती है, 'इन्द्रर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव: -वह एक इन्द्र ही समूचे अस्तित्व में प्रवेश होकर भिन्न-भिन्न रूपों में विद्यमान है।' रूप ढेर सारे। हरेक रूप के भीतर एक ही अखण्ड सत्ता की अनुभूति ऋग्वेद के बाद के अनुभव में भी प्राप्त हुई है। कठोपनिषद् उत्तरवैदिक काल का प्रमुख दर्शन ग्रन्थ है। कठोपनिषद में यही शब्दावली अग्नि और वायु के लिए दोहराई गयी है। अग्नि के लिए कहते हैं 'अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव: – एक ही अग्नि सभी भुवनों में प्रवेश होकर भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है।' फिर वायु के लिए वही शब्दावली है 'वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव: – एक ही वायु सभी भुवनों में प्रविष्ट होकर भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है।' इन्द्र, अग्नि या वायु अलग-अलग तत्व सत्य नहीं है। समूचा अस्तित्व एक है। वे नाम रूप के कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। इन्द्र, वायु या अग्नि की जगह जल, आकाश या ब्रह्म, विष्णु, शिव भी रख सकते हैं। कोई एक आदि अनादि चेतना है, वही भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है। कठोपनिषद् में अग्नि और वायु को रूप रूप प्रतिरूप बताने के बाद स्पष्ट करते हैं 'एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च – सभी प्राणियों की अन्तस् आत्मा सभी रूपों में उन्हीं के अनुरूप बाहर भी है।

बहुत रूपों में एक रूप

अस्तित्व एक है लेकिन तमाम इकाइयों में विभाजित दिखाई पड़ता है। समूची मनुष्य जाति अलग इकाई है, यह बाकी जीवजगत से भिन्न दिखाई पड़ती है। लेकिन सभी मनुष्य भी एक नहीं है, एक जैसे भी नहीं हैं। हरेक मनुष्य भी एक स्वतंत्र इकाई है। पशुओं, पक्षियों, कीट पतंगों का संसार भी भिन्न-भिन्न है। हरेक पशु भी स्वतंत्र इकाई है। समूची पृथ्वी का समुद्र एक है लेकिन समुद्र भी अलग-अलग प्रतीत होते हैं। यहां अनन्त जीव और पदार्थ है लेकिन सबके बीच परस्परावलम्बन है। यहां कोई भी अकेला और स्वतंत्र इकाई नहीं है। गीता में सम्पूर्ण अस्तित्व को अविभाजित/अविभक्त देखने पर जोर है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि 'जो विभक्त/विभाजित तमाम प्राणियों को अविभक्त/अविभाजित देखता है, वही वास्तव में देखता है।' स्वयं को प्रकृति सृष्टि का अंग जानना ही वास्तव में देखना है। देखना साधारण कार्रवाई है और दर्शन है गहरे पैठकर वास्तविकता को देखना। सत्य तत्व को वास्तव में देखने का नाम ही दर्शन है। दर्शन में हम सब एक विराट के अंग हैं। ऋग्वेद में इसे 'पुरुष' कहा है। गीता में इसे विश्व रूप की संज्ञा दी गयी है। आधुनिक वैज्ञानिक उसे 'कासमोस' कहते हैं। लेकिन नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता वस्तुत: हम सब एक ही विराट सत्ता के अंग हैं।

कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता को यही बात वायु, अग्नि आदि के तमाम उदाहरण देकर समझाई और निष्कर्ष रूप में कहा, 'सभी के भीतर विद्यमान वह परम तत्व अपने एक रूप से बहुत रूपों में प्रकट होता है – एकं रूपं बहुधा य: करोति। जो विद्वान इसे एक देखते हैं उन्हीं को शाश्वत सुख मिलता है दूसरों को नहीं – ये अनुपश्यन्ति धीरा स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतराषाम्।' बताया है कि 'वह नित्यों का भी नित्य है। सदा से है, सदा रहता है। चेतनों का चेतन है।' कठोपनिषद् का यह मंत्र श्वेताश्वतर उपनिषद् (6.12) में भी इसी भावार्थ के साथ आया है। जीवन बहुआयामी है। सुख हैं तो दुख भी हैं। यश के साथ अपयश भी है। सफलता और असफलता भी साथ-साथ हैं। सारा झंझट दो को लेकर है। स्वयं को अकेला मानना और सृष्टि को अलग जानना ही दुख है। इस दृष्टि में हम व संसार दो हो जाते हैं। लेकिन वैदिक अनुभूति में दो होते ही नहीं। अस्तित्व एक है, हम उसी के हिस्से हैं। जो हुआ है, जो है और जो होना है वह सब उसी में समाहित है – यद् भूतं, भव्यं च।

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