यह कैसा लोकतंत्र?
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बैजनाथ राय
महामंत्री, भारतीय मजदूर संघ
13 मई, 2012 को संसद की प्रथम बैठक की 60वीं वर्षगांठ संसद में मनाई गई। इस अवसर पर संसद में जश्न मनाया गया। यह अलग बात है कि देश के अधिकांश हिस्से में इसकी न तो जानकारी थी और न ही कोई उत्सव का माहौल था। प्रथम चुनाव 1952 में होने के बाद 13 मई, 1952 को संसद की प्रथम बैठक हुई थी। 60 वर्ष के कार्यकाल में भारत ने अनेक क्षेत्रों में तरक्की की है। विशेषकर खाद्यान उत्पादन में जहां आजादी के प्रथम दो दशकों तक भारत अनाज का आयात करता रहा, वहीं अब अनाज का निर्यात करता है। 11 व 13 मई 1998 को भारत ने परमाणु विस्फोट कर दुनिया को अपनी सैन्य शक्ति का भी अहसास कराया।
समय समय पर संसद में संकल्प लिये जाते हैं, किंतु जितनी संजीदगी संकल्प लेते समय दिखाई देती है, उतनी संजीदगी उसे पूरा करने में दिखाई नहीं देती है। उदाहरण के लिए 1962 में चीन युद्ध के बाद चीन द्वारा कब्जा की गई भारतीय भूमि, जिसे एक-एक इंच वापस लेने का संकल्प लिया गया था, 50 वर्ष बाद भी आज उसके लिए कोई गंभीर प्रयत्न दिखाई नहीं देता। इसी तरह संसद ने संकल्प लिया था कि कश्मीर का पाक अधिकृत हिस्सा वापस लेना है, किंतु आज नेता उस संकल्प को याद भी नहीं करते और देश से अपेक्षा करते हैं कि देश भी इन दोनों संकल्पों को भूल जाए। वैसे ही 1971 के चुनाव के समय श्रीमती इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था और उस नारे के 40 वर्ष बीत जाने के बाद भी गरीबी घटना तो दूर हम गरीबों की संख्या भी निश्चित नहीं कर पा रहे। जहां सरकार अपने शपथपत्र में गरीबी का पैमाना शहर में रु. 32 व गांव में रु. 26 बताती है, वहीं सरकार का योजना आयोग शहर में रु.28.42 व गांव में रु.22.62 व्यय करने वालों को गरीब नहीं मानता। उधर, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार अपने प्रतिवेदन में शहर में रु.65.10 पैसे व गांव में रु.35.10 पैसे व्यय करने वाला गरीब नहीं है। आम जनता यह नहीं समझ पा रही है कि योजना आयोग, भारत सरकार व राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में से किसको उचित मानें। मूल प्रश्न यह भी है कि क्या रु.22 या रु.32 में कोई व्यक्ति गुजारा कर सकता है।
संसद ने मजदूरों/कर्मचारियों से संबंधित अनेक कानून बनाए, किंतु वह कानून लागू हुए कि नहीं, इसकी चिंता किसी ने नहीं की। उदाहरण के लिए 1970 में ठेका तथा उन्मूलन व नियमनन कानून बनाया गया। आज स्वयं भारत सरकार के विभिन्न विभाग ही उसका उल्लंघन कर रहे हैं। यहां तक कि जिस श्रम विभाग पर इसे लागू करने की जिम्मेदारी है, उसी श्रम विभाग में ठेका पद्धति पर कार्य हो रहा है। वर्ष 2008 में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए कानून बनाया गया, किंतु आज तक किसी भी राज्य सरकार ने इस कानून की सुविधा असंगठित क्षेत्र के गरीब मजदूरों को मिले, इसके लिए बोर्ड का गठन ही नहीं किया और न ही केन्द्र सरकार द्वारा उसके लिए पर्याप्त धन उपलब्ध करवाया गया। केन्द्र सरकार ने इस संबंध में राज्यों से पूछताछ करना भी आवश्यक नहीं समझा। अब तो सरकार सामाजिक सुरक्षा कानून के अन्तर्गत आने वाले भविष्य निधि कानून को वैधानिक तरीके से लागू करने से इनकार कर रही है। उदाहरण के लिए भविष्य निधि कानून में 6500/-वेतन सीमा तय की गई है। जबकि दिल्ली का न्यूनतम वेतन ही 7020/- हो गया। यानी संसद की प्रथम बैठक के 60वें वर्ष में दिल्ली के मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा कानून का लाभ देने से इनकार कर दिया गया।
देश में तीन घटनाएं एक साथ घट रही हैं। जहां इस देश का किसान उचित मूल्य न मिलने से आत्महत्या कर रहा है, वहीं देश में हजारों टन अनाज रखरखाव के अभाव में सड़ रहा है। देश की 37.2 प्रतिशत आबादी सरकारी आंकड़ों के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को बाध्य है। 6,40,000 लोग अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी के अनुसार रु.9 प्रतिदिन से कम पर गुजारा करने के लिए बाध्य हैं यानी भूखे पेट सोने पर मजबूर हैं। एक ओर जहां शेयर सूचकांक में अगर थोड़ा कम-अधिक उतार-चढ़ाव होता है तो सरकार के वित्त मंत्री और रिजर्व बैंक में बेचैनी देखी जाती है। किंतु अनाज का सड़ जाना, पांच करोड़ लोगों का भूखा सोना व किसानों की आत्महत्या सरकार को बेचैन नहीं करती। महंगाई पर मात्र संसद में रस्म अदायगी के तौर पर पक्ष विपक्ष में गरमागरम चर्चा तो होती है परंतु परिणाम वही ढाक के तीन पात-
कवि अदम गोंडवी की वेदना 'शहरों की चकाचौंध से मुल्क के हालात को मत आंकिए, असली हिन्दुस्थान तो फुटपाथ पर आबाद है।'
और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के समय एक गीत गाया जाता था-
कोटि कोटि झोपड़ियों में छायी हुई उदासी है
मुट्ठी भर बंगलों में देखी जाती पूरणमासी है।
यदि वास्तव में सरकार और संसद को अपनी साख बचाने की चिंता हो, तो इन गरीबों के आंसू पोंछने का काम करे, अन्नदाता किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए कदम उठाए ताकि गरीब भी सुख की सांस ले सकें और आजादी का अनुभव कर सकें। इतनी सारी समस्याओं के मद्देनजर भारत सरकार ने 60 साल के जश्न में अनेक सांसदों द्वारा उठाए गए 60 करोड़ गरीबों और मजदूरों के विषय में उत्तर देने के लिए 60 सेकेंड का भी समय नहीं निकाला।
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