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एक समय था जब शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय उप महाद्वीप का दुनियाभर में परचम लहराता था। नालंदा और तक्षशिला जैसे दो उच्च शिक्षा के केन्द्र उत्कृष्ट शिक्षण के चुनिंदा प्रतीकों में से थे। एक तरह से वे दुनिया के पहले अन्तरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान थे। किंतु इतिहास परिवर्तनशील होता है। कालांतर में भारतीय उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता सिर्फ याद रखने की चीज रह गई। मुगलों, और फिर अंग्रेजों के शासन में शिक्षा के लिहाज से वैसा कुछ उल्लेखनीय नहीं रहा। हां, बीसवीं सदी में कुछ शिक्षण संस्थान जरूर बने, लेकिन तब वे वैश्विक नहीं माने जा सकते थे।
स्वाधीनता के बाद उच्च तकनीकी शिक्षा की अपरिहार्यता को ध्यान में रखते हुए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की परिकल्पना की गई एवं उनकी बुनियाद रखते वक्त ही यह तय किया गया कि ये संस्थान विश्वस्तरीय हों। ऐसा हुआ भी। तब से लेकर आज तक उच्च तकनीकी शिक्षा के उत्कृष्ट केन्द्रों के रूप में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, संप्रग सरकार के 2004 में सत्ता में आने के बाद से लगातार इन उत्कृष्ट शिक्षण केन्द्रों के साथ कुछ ऐसे प्रयोगों का प्रयास हो रहा है जो किसी भी सूरत में बहुत सुखद परिणाम देते नहीं दिखाई देते।
गरिमा से छेड़छाड़ क्यों?
अपनी किंचित कमियों के बावजूद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की अपनी एक गरिमा है। भारत के कुछ गिने-चुने वैश्विक प्रतीकों में आई.आई.टी. भी है। फिर क्यों उन स्थापित संस्थानों के साथ छेड़छाड़ की जा रही है? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के साथ भी इस सरकार ने जो किया है वह सर्वथा निंदनीय है। विश्वविद्यालय से आईटी विभाग को अलग करके वहां संप्रग सरकार ने अपनी अपरिपक्व सोच का ही प्रदर्शन किया है।
इसी तरह की सोच वाली यह सरकार मानती है कि आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में कुछ दोष है। शायद यह एक प्रकार से अभिजात्य वर्ग के पक्ष में झुकी हुई है और बारहवीं के परीक्षा परिणाम पर ज्यादा केन्द्रित नहीं है। क्या सचमुच ऐसा है? नहीं, यह इस सरकार की अपनी सोच है और कोई सर्वेक्षण या शोध ऐसा नहीं दिखाता है। जहां तक अभिजात्य वर्ग के प्रति झुकाव का प्रश्न है तो यह साबित करने के लिए बिहार के सुपर 30 का प्रयोग ही काफी है। बारहवीं की पढ़ाई का जहां तक प्रश्न है तो उसके लिए भी पर्याप्त आंकड़ा और तथ्यों की आवश्यकता है। रहा सवाल संयुक्त प्रवेश परीक्षा के क्लिष्ट होने का तो इसमें दोष क्या है? आईआईटी को स्थापित ही तकनीकी शिक्षण के उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में किया गया था। स्वाभाविक है कि जो उन संस्थानों में प्रवेश के लिए सर्वथा उपयुक्त हो वही चयनित हो। तभी इन की उत्कृष्टता बनी रहेगी। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर जो अन्य अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश परीक्षाएं होती हैं उनके द्वारा चयनित छात्रों और आईआईटी के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा द्वारा चयनित छात्रों में जो फर्क है वह स्पष्ट तौर पर साबित करता है कि दोनों परीक्षाओं में बुनियादी अंतर है।
एक और प्रस्ताव पर भी चर्चा करनी चाहिए जो बारहवीं की परीक्षा के परिणामों को पचास फीसदी मान देने की वकालत करता है। इस प्रस्ताव में दो खामियां हैं। पहली तो यह कि प्रतियोगी परीक्षाओं में ऐसा करना तर्कपूर्ण नहीं है। दूसरे, देश भर में बारहवीं की परीक्षा के बीसियों बोर्ड हैं जो राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर संचालित हैं। हर बोर्ड का स्तर अलग है, मूल्यांकन पद्धति अलग है। गुणवत्ता के लिहाज से इनमें भिन्नता होनी स्वाभाविक है। तो आखिर यह कैसे निर्धारित होगा कि दो भिन्न बोर्डों से उत्तीर्ण विद्यार्थी एक ही स्तर के होंगे? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढना आसान नहीं है।
संस्थानों की स्वायत्तता
दरअसल शिक्षा का जहां तक प्रश्न है तो शायद ही कोई ऐसा विकसित देश होगा जहां शिक्षा के क्षेत्र में इतनी ज्यादा असमानता होगी। हमारे देश में शिक्षा राज्य का विषय है और इसलिए उसमें राज्यों के अपने अधिकार हैं। उनको ध्यान में रखकर ही शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन करना श्रेयस्कर रहेगा। एक धारणा यह भी है कि शिक्षा के क्षेत्र में जितना ज्यादा प्रयोग हमारे देश में हुआ है उतना शायद ही कहीं हुआ हो। उसी का परिणाम है कि कुछ एक राष्ट्रीय संस्थानों को छोड़कर बाकी सभी संस्थानों की उत्कृष्टता पर प्रश्नचिन्ह लगा है।
नीति वही जो सुखद हो
यदि शिक्षा पर अब तक के सबसे चर्चित और व्यापक दस्तावेजों में से एक, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की चर्चा करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उसमें शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता पर बल दिया गया था और यह आशय था कि इससे उत्कृष्टता आएगी। उस नई शिक्षा नीति के दस्तावेज में यह माना गया था आईआईटी व अन्य राज्य व राष्ट्रीय स्तर के तकनीकी संस्थानों में व्यापक फर्क है एवं आईआईटी संस्थान उत्कृष्टता के प्रतीक हैं। इस नीति दस्तावेज में इस संस्थान के राष्ट्रीय विकास में योगदान को स्वीकारा गया था तो आईआईटी को आज एक नये नजरिये से देखने की क्या आवश्यकता है? जिस संस्थान के विद्यार्थियों का विकसित देश भी लोहा मानते हैं उसे उत्कृष्टता की एक अलग श्रेणी में न रखने की कवायद क्यों? यदि बदलाव ही चाहिए तो वह हमारे अन्य संस्थानों की उत्कृष्टता बढ़ाने की दिशा में हो। हर विद्यार्थी आईआईटी के योग्य नहीं होता और इसलिए आईआईटी का एक अलग वर्ग रहे तो ही बेहतर। अवसर की समानता का यह अर्थ नहीं कि असमान को समान बनाने का प्रयास किया जाए। प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से उस फर्क की पहचान होनी चाहिए जोकि आज तक होता आ रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि नई पद्धति आईआईटी की विशिष्टता को ही कमतर कर दे? इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। सभी प्रश्नों के मान बराबर हों, यह तो ठीक है, लेकिन सभी उत्तरों के मान बराबर कैसे हो सकते हैं?
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