राष्ट्रहित के सुझाव से डरा वंशवाद
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राष्ट्रहित के सुझाव से डरा वंशवाद

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Jun 9, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Jun 2012 14:42:54

आखिर नये केन्द्रीय चुनाव आयुक्त के पद पर केन्द्र सरकार के पूर्व ऊर्जा मंत्री वी.एस.सम्पत के नाम की घोषणा कर दी गयी। प्रधानमंत्री ने उनका नाम भेजा और राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उस पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई.कुरैशी का कार्यकाल 10 जून को समाप्त हो रहा है और श्री सम्पत 11 जून से यह पद भार ग्रहण करेंगे। किन्तु यदि हम यह ध्यान में रखें कि वर्तमान सरकार में प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक के सब निर्णय सोनिया गांधी के द्वारा ही लिए जाते हैं तो जल्दबाजी में की गई इस नियुक्ति के निहितार्थों को गहराई से समझना जरूरी हो जाता है। वर्तमान सरकार की विश्वसनीयता का बहुत तेजी से क्षरण हुआ है। केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त के पद पर चयन मंडल में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की असहमति की उपेक्षा करके भी सचिव स्तर के एक विवादास्पद बाबू पी.जे.थामस की नियुक्ति की गयी थी, उस नियुक्ति से देश को छुटकारा दिलाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक को हस्तक्षेप करना पड़ा था। उसके बाद राष्ट्रमंडल खेलों व 2 जी स्पेक्ट्रम घोटालों की जांच में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, केन्द्रीय सरकार के मंत्रियों एवं प्रधानमंत्री की चुप्पी से इन घोटालों में केन्द्र सरकार की संलिप्तता सामने आयी। बढ़ते भ्रष्टाचार के बीच केन्द्रीय जांच ब्यूरो जैसी महत्वपूर्ण संस्था की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लग गये, तभी से ऐसे सभी संवैधानिक पदों की चयन प्रक्रिया में व्यापक सहभाग और पारदर्शिता की मांग उठने लगी थी। किन्तु सोनिया द्वारा 'रिमोट कंट्रोल' से संचालित मनमोहन सरकार ने जनता की इस मांग के प्रति पूर्ण उपेक्षा का भाव अपनाया।

सुझाव का स्वागत

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार को विश्वसनीयता क्षरण के इस दुष्चक्र से बाहर निकालने के लिए 2 जून (रविवार) को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नाम एक पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने सुझाव दिया कि चुनाव आयुक्त और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति में पारदर्शिता एवं सामूहिक उत्तरदायित्व लाने के लिए एक चयन समिति (कालेजियम) गठित की जाए, जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा कानून मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं लोकसभा तथा राज्यसभा में विपक्ष के नेताओं को रखा जाए। श्री आडवाणी के इस सुझाव को व्यापक समर्थन मिला। माकपा के वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी ने शिमला में संवाददाताओं से कहा कि उनकी पार्टी श्री आडवाणी से सहमत है। उन्होंने कहा कि माकपा की राय है कि महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति करने वाले समूह (कालेजियम) में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और नेता प्रतिपक्ष होने चाहिए।

यूपीए सरकार के सबसे बड़े घटक द्रमुक के 89 वर्षीय अध्यक्ष श्री करुणानिधि ने अपनी पार्टी के मुखपत्र 'मुरासोली' में लालकृष्ण आडवाणी के सुझाव का समर्थन करते हुए लिखा कि इस सुझाव को महज इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता है कि वह विपक्ष का मत है। श्री करुणानिधि ने लिखा कि श्री आडवाणी का यह कहना ठीक है कि चुनाव आयुक्त जैसे संवैधानिक पदों पर नियुक्ति की मौजूदा पद्धति पर से लोगों का भरोसा उठ गया है। उन्होंने आगे कहा कि मुझे विश्वास है कि केन्द्र सरकार इस मत को अहमियत देगी और उस पर गंभीरता से विचार करेगी। श्री आडवाणी के सुझाव पर प्रतिक्रिया देते हुए सोमवार (4 जून) को वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने भी कहा था कि श्री आडवाणी भाजपा के काफी वरिष्ठ नेता हैं और मुझे भरोसा है कि प्रधानमंत्री उनके सुझाव पर विचार करेंगे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के श्रमिक नेता एवं पूर्व सांसद श्री गुरुदास दास गुप्ता ने भी अलग से प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस सुझाव का समर्थन किया है। वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एस.वाई.कुरैशी ने स्वयं भी अनौपचारिक वार्तालाप में चयन समिति के गठन का स्वागत किया है।

बढ़ता समर्थन

सभी दैनिक पत्रों ने सम्पादकीय लेख लिखकर इस सुझाव को अपना समर्थन दिया है। अंग्रेजी दैनिक इकानॉमिक टाइम्स (7 जून) ने सम्पादकीय टिप्पणी में लिखा है कि एक ओर तो सरकार स्वतंत्र 'रेगुलेटरों' की नियुक्ति की बात कर रही है दूसरी ओर चुनाव आयुक्त और 'कैग' जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर नियुक्ति की पुरानी प्रक्रिया से ही चिपकी हुई है। टाइम्स आफ इंडिया (7 जून) का कहना है कि आडवाणी के समर्थन में सत्तारूढ़ गठबंधन के मुख्य घटक द्रमुक और वामपंथ के आने व वर्तमान चुनाव आयुक्त द्वारा उसके स्वागत के बाद में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी इस महत्वपूर्ण प्रश्न का यह कहकर राजनीतिकरण कर रही है कि भाजपा ने अपनी अन्तर्कलह पर से ध्यान हटाने के लिए यह मुद्दा उछाला है। टाइम्स आफ इंडिया का कहना है कि इस सुझाव को मिले व्यापक राजनीतिक समर्थन को देखते हुए इसे केवल भाजपा का मुद्दा नहीं कहा जा सकता। सरकार पर महत्वपूर्ण नीतिगत विषयों पर आम सहमति न बनाने का आरोप लगता रहा है। यह अवसर है जब कांग्रेस अपनी साख बचा सकती है। उसे व्यापक राजनीतिक समर्थन का आदर करना चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस, (7 जून ने) लिखा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया में विपक्ष को सहभागी बनाने से यह संस्था अधिक मजबूत होगी। इंडियन एक्सप्रेस का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में कार्यपालिका और विधायिका दोनों की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है। पिछली बार केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की असहमति की उपेक्षा करके भी पी.जे.थामस को नियुक्त कर दिया गया था, क्योंकि नियुक्ति का अंतिम अधिकार प्रधानमंत्री के पास था। अब ऐसा नहीं होना चाहिए। हिन्दी दैनिक जनसत्ता (7 जून) की टिप्पणी है कि अभी तक राज्यपालों के चयन में केन्द्र में सत्तारूढ़ दल की कैसी मनमानी चलती रही है, यह किसी से छिपा नहीं है, इसलिए अच्छा होगा कि राज्यपालों की नियुक्ति के लिए भी ऐसी ही समिति का प्रावधान हो। मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई.कुरैशी इस महीने की 10 तारीख को सेवानिवृत्त होने वाले हैं। वर्तमान नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय भी अगले साल जनवरी में सेवानिवृत हो जाएंगे। इसलिए आडवाणी के सुझाव ने सरकार को उलझन में डाल दिया है। कांग्रेस को यह प्रस्ताव रास नहीं आया होगा, शायद इसलिए भी कि अगले डेढ़ साल में दस राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और फिर लोकसभा के। लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा का प्रश्न स्थायी महत्व का है, इसलिए प्रधानमंत्री को इस सुझाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

पर सरकार की मंशा नहीं

दैनिक नेशनल दुनिया ने भी 'और अब करुणानिधि' शीर्षक से अपनी लम्बी सम्पादकीय टिप्पणी (7 जून) में लिखा, 'अगर केन्द्र सरकार में शामिल द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) के नेता एम.करुणानिधि भी इस बात के प्रबल पक्षधर हैं कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसे संवैधानिक पदों पर चयन के लिए एक चयन मंडल (कालेजियम) का गठन किया जाए तो मानना पड़ेगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के इस तर्क में दम है कि इन संवैधानिक पदों पर सरकार की सिफारिश के आधार पर राष्ट्रपति जिस तरह लोगों को नियुक्त करता है, उससे जनता में भरोसा पैदा नहीं होता।' संपादकीय में आशंका व्यक्त की गयी है कि सरकार ने इस पर जो ठंडी प्रतिक्रिया दिखायी है उससे नहीं लगता है कि फिलहाल किसी 'कालेजियम' का गठन होगा। मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर सचिव स्तर के पी.जे.थामस की नियुक्ति से उठे विवाद का हवाला लेते हुए नेशनल दुनिया लिखता है, 'जनता के बीच यह संकेत गया है कि सरकार अपने वफादार बाबुओं को ही इन संवैधानिक पदों पर नियुक्त करती है, ताकि वे सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के हितों की पूर्ति करते रहें। पी.जे.थामस की नियुक्ति तो एक 'कालेजियम' ने की थी और प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने बाकायदा अपनी असहमति दर्ज कराई, मगर फिर भी चयन मंडल में अपने बहुमत के बल पर सरकार ने उस असहमति को रद्दी की टोकरी के हवाले किया। इसलिए समझा जा सकता है कि जहां राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सिफारिश पर मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य दो सहायक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जाती है, वहां क्या होता होगा।' एस.वाई.कुरैशी ने खुद अपनी ओर से आयुक्तों के चयन के लिए 'कालेजियम' के गठन का सुझाव दिया था। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने 2009 में ही सभी चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए इसी तरह के विस्तृत 'कालेजियम' का सुझाव दिया था, जो आज तक ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। इस सुझाव को लागू करने के लिए किसी संविधान संशोधन की भी जरूरत नहीं होगी, मगर प्रश्न तो सरकार की इच्छाशक्ति का है, वह भला क्यों इसके लिए तैयार होगी, जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव सामने हैं। अंग्रेजी दैनिक मेल टुडे (6 जून) ने 'आडवाणी उचित कह रहे हैं' शीर्षक से सम्पादकीय टिप्पणी में कहा है कि गत वर्ष सीवीसी के पद पर विवादास्पद नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय को निरस्त करना पड़ा था।

वंशवाद के पर काटना आवश्यक

यहां मुख्य सवाल चयनित व्यक्ति की योग्यता से अधिक सरकार की नीयत का है। यह सरकार जिन सोनिया गांधी के रिमोट से चलती है, उनकी राजनीतिक प्रेरणा वंशवाद से आगे नहीं जाती। उनकी राजनीतिक कार्यप्रणाली पर्दे के पीछे से चलती है, उस पर चुप्पी का रहस्यात्मक आवरण पड़ा होता है। वे महत्वपूर्ण सत्ता केन्द्रों पर अपने प्रति व्यक्तिगत वफादारों की नियुक्ति में विश्वास करती हैं। पिछली बार उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए अचानक प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का नाम उछाल दिया। इस बार भी उन्होंने अपने प्रत्याशी के नाम का पत्ता छिपा रखा है और इस बार भी पूरी तरह चुप्पी साध ली है। राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के नाम पर चर्चा करने के लिए तथाकथित कार्यसमिति की बैठक बुलायी गयी, किन्तु हमेशा की तरह उसमें एक प्रस्ताव लाकर प्रत्याशी के चयन का सर्वाधिकार सोनिया को सौंप दिया गया।

यह कौन नहीं जानता कि वर्तमान कांग्रेस एक वंशवादी पार्टी है, जिसमें एक ही व्यक्ति का आदेश चलता है। सोनिया का प्रधानमंत्री पद के लिए एकमात्र प्रत्याशी का नाम तय है, उसी को आगे बढ़ाना उनकी सम्पूर्ण कूटनीति का हिस्सा है। राष्ट्रपति की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका है, इसलिए सोनिया अपनी विदेश यात्रा को स्थगित कर उसकी जोड़-तोड़ में जुट गयी हैं। इसलिए श्री आडवाणी के सुझाव के समर्थन में उमड़े राजनीतिक समर्थन एवं मीडिया प्रचार से घबराकर उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की घोषणा जल्दबाजी में कर डाली। यहां वी.एस.सम्पत की योग्यता एवं निष्पक्षता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा रहा है। संभवत: श्री आडवाणी के सुझावानुसार गठित चयन मंडल भी उनका ही चयन करता, किन्तु सरकार के सूत्र जिन हाथों में केन्द्रित हैं, उनकी नीयत सवालों के घेरे में है। सम्पत के नाम की घोषणा के साथ ही केन्द्रीय विधि मंत्री सलमान खुर्शीद ने श्री आडवाणी के सुझाव को राजनीतिक रंग देने की ओछी कोशिश की। उनकी दृष्टि में आडवाणी जी केवल भाजपा के नेता हैं, अत: उनकी ओर से राष्ट्रहित में आने वाला कोई सुझाव इस सरकार को मान्य नहीं है। सोनिया की वंशवादी राजनीति को कोई भी रचनात्मक सुझाव कभी रास नहीं आएगा। आज देश को मुख्य खतरा सिद्धांतहीन वंशवादी अधिनायकवाद से ही है। यदि भारत की परम्परागत लोकतांत्रिक चेतना को जीवित रखना है तो पर्दे के पीछे से चल रही वंशवादी कुटिल नीति के पर काटना आवश्यक है।

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