तमिलनाडु के शिवगंगा लोकसभा क्षेत्र से 2009 में चुनाव जीते चिदम्बरम से पराजित अन्नाद्रमुक के प्रत्याशी राजा कण्णप्पन ने धांधली से चुनाव जीतने के आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें राजा ने सरकारी अफसरों से मिलीभगत, मतों की गिनती में गड़बड़ी व अन्य धांधलियों सहित कुल 29 आरोप लगाए थे। चिदम्बरम ने मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ में याचिका दायर कर कण्णप्पन की याचिका को खारिज करने और व्यक्तिगत पेशी से छूट दिए जाने की अपील की थी। लेकिन उच्च न्यायालय ने उनकी इस याचिका को खारिज कर दिया है। ऐसे में उनको पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं रह जाता है। वैसे भी यह पहला मौका नहीं है जब चिदम्बरम के केन्द्रीय मंत्री बने रहने पर सवाल उठे हों। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में उनके विरुद्ध वित्त मंत्रालय के नोट ने भी यह सवाल खड़ा किया था कि तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए.राजा द्वारा स्पेक्ट्रम की मनमाफिक कीमतें तय किए जाने में चिदम्बरम, जो तब वित्तमंत्री थे, की सहमति थी। यदि नहीं तो वित्त मंत्री रहते इस पर उन्होंने आपत्ति क्यों नहीं की, जिसने पौने दो लाख करोड़ का महाघोटाला होने दिया? इसी घोटाले में एअरसेल-मैक्सिस प्रकरण में चिदम्बरम के बेटे को लाभ पहुंचाए जाने की बात ने भी हंगामा बरपाया था, तब भी चिदम्बरम और उनका पृष्ठपोषण करने वालों की ताकत उन आरोपों को नकारने में ही लगी रही। लेकिन क्या वास्तव में चिदम्बरम दूध के धुले हैं? तो वह नैतिकता का सामना करने से क्यों डरते हैं? उनका इस्तीफा अपनी सब प्रकार की साख गंवा चुकी संप्रग सरकार के लिए संजीवनी का काम कर सकता है, लेकिन सारे लोकतांत्रिक मूल्यों को तिलांजलि देकर देश को लूटने की खुली छूट देने वाली सरकार के लिए शायद साख बचाना कोई मायने नहीं रखता।
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