पुस्तक समीक्षाखंडोबल्लाल की प्रेरक जीवनगाथा
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यह सही है कि हममें से अधिकांश लोग इतिहास के गौरवमयी होने का आकलन भव्य स्मारकों और स्मारकों के सदृश नजर आने वाले कुछ महापुरुषों के आधार पर करते हैं। लेकिन ऐसा करते समय हम यह भूल जाते हैं कि उन भव्य स्मारकों को तैयार करने में असंख्य ईंटों का भी योगदान रहा है, जिन्होंने स्वयं को हमेशा-हमेशा के लिए गहरी नींव के अंधकारों में विलीन कर लिया है। यही कारण है कि इतिहास की चर्चा आने पर हमें कुछ ही महापुरुषों या देशभक्तों के नाम याद आते हैं। इसमें संदेह नहीं कि इन देशभक्तों का देश को स्वतंत्र कराने या उसे समृद्ध बनाने में बहुत बड़ा योगदान है, लेकिन उन असंख्य गुमनाम देशभक्तों का अवदान भी कम नहीं है जिनका नाम तक हमें पता नहीं। ऐसे ही एक देशभक्त महापुरुष थे खण्डोबल्लाल बालाजी चित्रे। देश के अन्य भागों में रहने वाले लोगों की बात ही छोड़ दें, उनकी अपनी जन्म और कर्मभूमि रहे महाराष्ट्र में भी कम ही लोग ऐसे होंगे जिन्होंने उनका नाम सुना होगा। भारत में हिन्दवी साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी और उनके बाद सम्भाजी महाराज के वर्षों तक सचिव रहे बालाजी आवाजी चित्रे के मंझले पुत्र खण्डोल्लाल ने सम्भाजी से लेकर बाजीराव पेशवा तक के साथ कार्य किया था।
अ.भा. साहित्य परिषद् के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री श्रीधर पराडकर ने खण्डोबल्लाल की कथा को आत्मकथात्मक शैली में 'स्वयं उन्हीं के द्वारा अतीत को याद करते हुए' लिखा है। इस पुस्तक में केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक यंत्रणाओं और उपेक्षाओं से व्यथित खण्डोबल्लाल अपने अतीत की पूरी कथा में विचरण करते हैं। हालांकि इस ऐतिहासिक पुरुष की जीवन गाथा पूरी तरह प्रामाणिक तो नहीं है, लेकिन इतिहास व सत्य के निकट मानी जा सकती है। इस बात को स्वयं पुस्तक के लेखक श्रीधर पराडकर ने अपनी प्रस्तावना में भी स्वीकार किया है। लेकिन उन्होंने अपने गहन अध्ययन और शोध के फलस्वरूप यथासंभव तिथियों व प्रमाणों को इसमें सम्मिलित करने का प्रयास किया है। अपनी जीवनगाथा की शुरुआत खण्डोबल्लाल उस अवस्था से करते हैं जब वे बारह वर्ष के थे और अपने पिता बालाजी आवाजी चित्रे की अंगुली पकड़कर दरबार में जाया करते थे। वहां उन्होंने शिवाजी महाराज के भव्य राज्य को भी देखा था, लेकिन अचानक सब कुछ बदल गया और उनके पिता को राष्ट्रद्रोह के आरोप में छत्रपति शिवाजी के पुत्र सम्भाजी ने हाथी के पैरों तले रौंदवा दिया। उसके बाद खण्डोबल्लाल और उनके छोटे भाई को भी मारने की कोशिश की गई, लेकिन महारानी येसुबाई की कृपा से दोनों बच गए। इसके बाद शुरू हुआ खण्डोबल्लाल का संघर्ष और अपनी योग्यता, स्वराज्य के प्रति मन में सम्मान की भावना को सिद्ध करने का अभियान। इसके बाद लगभग पैंतीस वर्ष तक उन्होंने अपने देश के लिए सब कुछ अर्पित कर दिया। राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते हुए अनेक कष्ट सहे लेकिन अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुए।
तीन छत्रपतियों के साथ काम करने वाले और दो पेशवाओं का सहयोग करने वाले खंडोबल्लाल 58 वर्ष की अवस्था में सन् 1726 में स्वर्ग सिधार गए। अंतिम क्षणों में उनके द्वारा व्यक्त विचारों से ही उनके मन में मौजूद राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना का अनुमान लगाया जा सकता है-'कभी मन में विचार नहीं आया कि मेरी इस विपन्नावस्था के लिए स्वराज दोषी है। मैंने जो कुछ भी कर्त्तव्य-बुद्धि से किया, वह बिना किसी अपेक्षा, लोभ या मोह के किया था। जीवन भर अपमान, दु:ख, यातना सही, लेकिन मैं ऐसा अकेला तो नहीं था।' खंडोबल्लाल की यह औपन्यासिक आत्मकथा लिखकर श्रीधर पराड़कर ने इतिहास में विलीन हो गए एक रत्न को हमारे सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। विभूश्री
पुस्तक का नाम – खण्डोबल्लाल
लेखक – श्रीधर पराडकर
प्रकाशन – लोकहित प्रकाशन
संस्कृति भवन,
राजेन्द्र नगर, लखनऊ 226004 (उ.प्र.)
मूल्य – 45 रुपए पृष्ठ – 94
आध्यात्मिक विभूति, विभिन्न प्रकार के सामाजिक और मानवीय कल्याणकारी कार्यों और संस्थाओं के प्रणेता स्वामी आनंद कृष्ण अब तक 130 से अधिक पुस्तकों के द्वारा लोगों को सफल जीवन जीने के सूत्र बता चुके हैं। हाल में ही प्रकाशित होकर आई उनकी पुस्तक 'द हनुमान फैक्टर', उसी क्रम में एक महत्वपूर्ण कृति है। इसमें उन्होंने हनुमान चालीसा की विशद व्याख्या कुछ इस तरह से की है कि वह आत्मिक ही नहीं बल्कि व्यावहारिक-भौतिक जीवन में भी बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। उन्होंने हनुमान जी को आज के संदर्भों में सर्वाधिक सफल विभूति बताते हुए यह सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है कि केवल हनुमान चालीसा में मौजूद चौपाइयों को ही यदि हम सभी अपने जीवन में उतार लें तो एक सफल और सार्थक जीवन जी सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित यह लघु रचना वास्तव में जीवन का पाठ सिखाने वाली, गागर में सागर जैसी अद्भुत कृति है। इसके एक-एक शब्द में जीवन के ऐसे गूढ़ अर्थ छिपे हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी हमें आत्मिक सामर्थ्य और संबल प्रदान करते हैं।
इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें लेखक ने हनुमान चालीसा की चौपाइयों का केवल शाब्दिक या अर्थानुवाद नहीं किया है बल्कि उन्होंने इन छंदों में निहित भावों और उसके आत्मिक संदेश को सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया है। कह सकते हैं कि उन्होंने शब्दों की अशाब्दिक व्याख्या की है। हालांकि इसमें मौजूद सभी चौपाइयां अपने आपमें नए अर्थों में प्रकट हुई हैं लेकिन इनमें से कुछ विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं। उदाहरण के तौर पर चौपाई संख्या 28-'और मनोरथ जो कोई लावै' की व्याख्या करते हुए लेखक कहते हैं- 'वास्तव में हम जानते ही नहीं कि हमारे लिए शुभ और कल्याणकारी क्या है। जो भी आकर्षक और क्षणिक सुख देने वाली वस्तुएं होती हैं, हम उनके पीछे दौड़ते रहते हैं। हम यह अनुभव ही नहीं कर पाते कि सुख और खुशी देने वाली वस्तु वास्तव में अच्छी और कल्याणकारी नहीं होती हैं।' निष्कर्ष में वे लिखते हैं, 'तुम एक मनुष्य के रूप में जन्मे हो इसलिए मनुष्य की तरह जिओ और मानवीय गरिमा के साथ ही इस लोक से विदा हो-यही हमारी अंतिम इच्छा होनी चाहिए।'
पुस्तक के आरंभ में गोस्वामी तुलसीदास का संक्षिप्त जीवन परिचय और तत्कालीन भारत की स्थिति का भी वर्णन किया गया है। इसके पश्चात 'द वे ऑफ ग्लोरी' खण्ड में 'पवन तनय संकट हरन….' दोहे की व्याख्या करते हुए स्वामी आनंद कृष्ण लिखते हैं, 'श्रीराम को समर्पित होकर, उनमें ध्यान लगाकर ही आप उन्हें अपने भीतर पा सकते हैं। नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते हुए आप श्रीराम को हर कहीं महसूस कर सकते हैं। और यही सार्थक सफल जीवन का सूत्र है।'
निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि यह पुस्तक केवल बाहरी तौर पर प्रेरणा देने वाली नहीं है, बल्कि हमारी क्षमताओं और आत्मिक शक्ति को जाग्रत करने की क्षमता भी रखती है। जीवन के हर क्षेत्र में विकास और सफलता पाने की चाह रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए पुस्तक यह बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है। विभूश्री
पुस्तक – द हनुमान फैक्टर (आंग्रेजी में)
लेखक – आनंद कृष्ण
प्रकाशक – ग्लोबल विजन प्रेस
24/4855, अंसारी रोड
नई दिल्ली-110002
मूल्य – 195 रु. पृष्ठ – 210
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