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'अर्थ' में भी 'प्रधान' न रहे मनमोहनसंप्रग सरकार तले गिरता बाजार, डूबता रुपयाअनर्थकारी

by
Jun 9, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Jun 2012 14:38:27

 

 

प्रधानमंत्री स्वयं मानते हैं कि अर्थव्यवस्था अत्यंत बदहाल स्थिति में पहंुच चुकी है और कुछ ठोस प्रयास करने होंगे ताकि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके। उनका कहना है कि खाद्यान्नों का इस वर्ष रिकार्ड उत्पादन हुआ है और गरीबी भी घट रही है, इसलिये उनकी सरकार तो बहुत अच्छा काम कर रही है, यह तो अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट का प्रभाव है जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये कठिनाइयां उत्पन्न कर रहा है। लेकिन आंकड़े तो कुछ अलग ही बयान कर रहे हैं। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा वर्ष 2011-12 की अंतिम तिमाही के नतीजे 31 मई 2012 को प्रकाशित हुये हैं, जिनके अनुसार वर्ष 2011-12 के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की संवृद्धि दर को संशोधित कर 6.5 प्रतिशत पर रखा गया है। गौरतलब है कि पिछले वर्ष 2010-11 में आर्थिक संवृद्धि दर 8.4 प्रतिशत थी। आर्थिक संवृद्धि दर में इस कमी को कोई विशेष आश्चर्य से नहीं देखा जा रहा, क्योंकि वर्ष 2011-12 की दूसरी और तीसरी तिमाही में कोई बहुत अच्छे नतीजे नहीं आये थे। इस वर्ष अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में संवृद्धि दर घटी है। कृषि में वर्ष 2010-11 में 7 प्रतिशत की संवृद्धि दर की तुलना में 2011-12 में 2.8 प्रतिशत की ही संवृद्धि दर रिकार्ड की गई। खनन क्षेत्र में तो संवृद्धि दर एक प्रतिशत ऋणात्मक हो गई है, जो पिछले वर्ष 5 प्रतिशत थी। फैक्ट्री क्षेत्र में लगातार हर तिमाही में नतीजे खराब होते गए और अंतिम तिमाही में तो ये 0.3 प्रतिशत ऋणात्मक हो गए। पहली तिमाही में 7.3 प्रतिशत की संवृद्धि के चलते वार्षिक संवृद्धि दर 2.5 प्रतिशत तक पहंुच पाई। बिजली, गैस और जलापूर्ति में पिछले वर्ष से बेहतर नतीजे देखने को मिले हैं। हमेशा की भांति सेवा क्षेत्र में आर्थिक संवृद्धि दर पिछले वर्ष के समानांतर रही।

जीडीपी की आर्थिक संवृद्धि के ये आंकड़े अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत को बयान करते हैं। ये महज आंकड़े नहीं हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था में पिछले कुछ समय से जो बदहाली की स्थिति उत्पन्न हुई है उसकी परिणति को दर्शाते हैं। अर्थव्यवस्था की सेहत के कुछ प्रतीक होते हैं, जैसे- देश की मुद्रा का अन्य विदेशी मुद्राओं के संदर्भ में मूल्य, मुद्रास्फीति की दर और ब्याज दरें, व्यापार एवं भुगतान शेष, राजकोषीय घाटा इत्यादि। संयोग से हमारे देश की कमान 'अर्थशास्त्रियों' के हाथ में है और वे इन प्रतीकों के महत्व को भली-भांति समझते हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था के हालात अब उनके काबू में नहीं हैं।

रुपये की दुर्गति

पिछले कुछ समय से भारतीय रुपया विदेशी मुद्राओं की तुलना में लगातार कमजोर होता जा रहा है। फरवरी 2012 यानी मात्र 3-4 माह पहले रुपये की डॉलर में विनिमय दर 48.7 रुपये प्रति डॉलर थी, जो हाल ही में 56 रुपये प्रति डॉलर से भी अधिक हो गयी। माना जाता है कि बढ़ता व्यापार घाटा इसका कारण है और बढ़ते व्यापार घाटे के लिए जिम्मेदार है बढ़ता सोने-चांदी का आयात, बढ़ती अंतरराष्ट्रीय तेल कीमतें और चीन से लगातार बढ़ता आयात। इसके अलावा रुपये की कमजोरी के लिए विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा का अंतरण भी काफी हद तक जिम्मेदार माना जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय तेल कीमतें थमने के बाद भी रुपये की गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही, क्योंकि इस गिरावट के दूसरे सभी कारण बदस्तूर जारी हैं। भारतीय रिजर्व बैंक भी रुपये की गिरावट को थामने के लिए रस्म अदायगी के अलावा कुछ नहीं कर रहा है।

बढ़ती मुद्रास्फीति

पिछले लगभग 3 वर्षों से कीमतों में वृद्धि लगातार जारी है। प्रारम्भ में मुद्रास्फीति बढ़ने के लिए खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि ज्यादा जिम्मेदार रही और इसे नाम दिया गया खाद्य मुद्रास्फीति। कृषि की लगातार अनदेखी और बढ़ती आमदनियों के कारण खाद्य वस्तुओं की मांग और पूर्ति में असंतुलन बढ़ता गया और उसका असर खाद्य मुद्रास्फीति पर देखने को मिला। लेकिन वर्ष 2011-12 की पहली तिमाही को छोड़ लगातार हर तिमाही में फैक्ट्री उत्पादन की घटती संवृद्धि दर के चलते अखाद्य वस्तुओं की कीमतों में भी भारी वृद्धि होने लगी और अब मुद्रास्फीति केवल खाद्य मुद्रास्फीति नहीं रही। इन सब के कारण वर्ष 2011-12 में मुद्रास्फीति की दर 7 प्रतिशत से 11 प्रतिशत के बीच झूलती रही। पिछले 3-4 माह से रुपये के कमजोर होने से आयातित वस्तुओं, विशेषतौर पर पेट्रोलियम उत्पादों, धातुओं और अन्य प्रकार के कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि से मुद्रास्फीति और ज्यादा गंभीर स्तर पर पहुंच चुकी है। बढ़ता राजकोषीय घाटा मुद्रास्फीति को और हवा दे रहा है। इन सबके बावजूद सरकार कीमतों को थामने में लगातार असमर्थ दिखाई दे रही है।

बढ़ती ब्याज दरें

महंगाई को थामने के नाम पर भारतीय रिजर्व बैंक ने डेढ़ वर्ष से भी कम समय में लगातार 13 बार 'रेपोरेट' और 'रिवर्स रेपोरेट' बढ़ाकर देश में ब्याज दरों में भारी वृद्धि का काम किया। गौरतलब है कि वर्ष 2000 से जब ब्याज दरें घटनी शुरू हुई थीं, कुछ ऐसे वर्ग जो ब्याज की आय पर निर्भर करते थे, उन्हें कुछ नुकसान अवश्य हुआ, लेकिन अर्थव्यवस्था को गति देने में ब्याज दरों में कमी की विशेष भूमिका रही। घटती ब्याज दरों ने देश में घरों, कारों, अन्य उपभोक्ता वस्तुओं इत्यादि की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि की। कम ब्याज दरों के चलते सरकार द्वारा अपने पूर्व में लिए गए ऋणों पर ब्याज अदायगी पर भी अनुकूल असर पड़ा। आवास, ढांचागत और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तेजी से विकास होना शुरू हुआ और भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गया। यानी कहा जा सकता है कि भारत की आर्थिक संवृद्धि की गाथा में ब्याज दरों के घटने की एक प्रमुख भूमिका रही है।

भारतीय रिजर्व बैंक ने दो माह पूर्व ब्याज दरों में हल्की सी कमी जरूर की थी, लेकिन उसके बाद वह इस बाबत और हिम्मत नहीं जुटा पाया। बढ़ती ब्याज दरों के कारण अर्थव्यवस्था में आवास, स्थाई उपभोक्ता वस्तुओं, पूंजी निवेश, ढांचागत निवेश इत्यादि बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं और उसका असर आर्थिक संवृद्धि के आंकड़ों पर साफतौर पर दिखाई देता है।

व्यापार घाटा और राजकोषीय घाटा

एक ओर आयातों में भारी वृद्धि और निर्यातों में कहीं कम वृद्धि के कारण हमारा व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है, सरकारी खर्च में वृद्धि और राजस्व में उसके अनुपात में कम वृद्धि के चलते हमारा राजकोषीय घाटा पिछले वर्ष लगभग 6 प्रतिशत पहुंच गया और अगले वर्ष भी उसमें कमी के कोई आसार नजर नहीं आ रहे। इस दोहरे घाटे का असर देश की अर्थव्यवस्था पर दिखाई दे रहा है। वर्ष 2010-11 में हमारा व्यापार घाटा 130 अरब डॉलर तक पहुंच गया था और उसे भी पाटना बहुत कठिन काम था, लेकिन इस वर्ष 2011-12 में यह घाटा बढ़कर 185 अरब डॉलर तक पहंुच चुका है, जिसकी किसी भी हालत में भरपाई नहीं हो सकती। यह हमारे रुपये को और भी कमजोर कर रहा है।

जरूरी है नीतियों में बदलाव

अर्थव्यवस्था की इन तमाम बदहालियों के बावजूद सरकार नीतिगत विकल्प सुझाने में पूर्णतया असफल दिखाई दे रही है। यही नहीं, सरकार उपलब्ध विकल्पों का भी सही मायनों में उपयोग नहीं कर रही। आर्थिक संवृद्धि दर घटने में सबसे बड़ा कारण फैक्ट्री उत्पादन में धीमापन है और यह मुख्यत: दो कारणों से है- एक, कच्चे माल और ईंधन की कीमतों में वृद्धि और दूसरा, ब्याज दरों में लगातार वृद्धि। कच्चे माल और ईंधन की कीमतों में वृद्धि रुपये की कमजोरी के कारण ज्यादा हुई है और इसके लिए जरूरी है कि रुपये को मजबूत बनाया जाए। ब्याज दरों में वृद्धि मुद्रास्फीति के कारण है और इसके लिए जरूरी है मुद्रास्फीति पर काबू किया जाए। ब्याज दरों में कमी करते हुए ही हम फैक्ट्री उत्पादन, ढांचागत निवेश और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहित करते हुए अर्थव्यवस्था को बचा सकते हैं।

मजबूत हो रुपया

यह सही है कि अन्तरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों पर हमारा ज्यादा नियंत्रण नहीं है, लेकिन हम निश्चित रूप से निर्णय कर सकते हैं कि आयात का स्रोत क्या हो। यदि हम ईरान से कच्चे तेल का आयात करें तो हम डॉलर की बजाय 45 प्रतिशत भुगतान रुपये में कर सकते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हाल ही में सरकार ने कहा है कि ईरान से कच्चे तेल का आयात कम किया जायेगा। गौरतलब है कि ईरान से तेल का आयात अप्रैल 2012 में मार्च 2012 की तुलना में 34 प्रतिशत कम हो गया। यह जरूर अमरीका के प्रभाव में किया जा रहा है। इससे रुपया और कमजोर हो सकता है। हमारे तेल आयातों के डॉलर बिल को कम करने का एक उपाय ईरान से अधिकाधिक तेल का आयात है। सरकार को अमरीका के दबाव से बाहर आना होगा और ईरान से कच्चे तेल के आयात को बढ़ाना होगा।

सोने का आयात 2011-12 में 50 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जोकि 2010-11 में 25 अरब डॉलर था। सोने का बढ़ता आयात रुपये के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। यह कहना ठीक होगा कि 2जी घोटाला और सोने का आयात, दोनों जुड़े हुए हैं और घोटालों के कालेधन का सोने के रूप में परिवर्तन किया जा रहा है। सोने के आयात पर प्रभावी नियंत्रण लगाने की जरूरत है। बजट 2012-13 में आयातित सोने पर आयात शुल्क बढ़ाना सही कदम है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं होगा। बढ़ते सोने के आयात को कम करने के लिए हमें सोने के आयातों पर मात्रात्मक नियंत्रण लगाने होंगे।

चीन से आयातों पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। चीन से आयातों को कम करने के लिए ठोस रणनीति अपनाई जाए और इस संदर्भ में 'फाइटो सेनिटरी' और स्वास्थ्य उपाय, 'एंटी डम्पिंग ड्यूटी' और सुरक्षा के मुद्दे उठाते हुए चीन से आयातों को घटाया जाए। जरूरी है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों पर प्रभावी नियंत्रण लगे और उनके निवेशों पर न्यूनतम 3 वर्ष का 'लॉक इन पीरियड' लागू किया जाए और उनके लाभांशों पर ब्राजील की तर्ज पर कर लगाया जाये।

नाटक नहीं, ठोस उपाय चाहिए

आजकल आर्थिक बदहाली के चलते सरकारी खर्च घटाने की बातें चल रही हैं। मंत्रियों की सामान्य वर्ग में हवाई यात्रा, सरकारी खर्चों में कमी इत्यादि और इस बात की व्यापक प्रसिद्धि भी की जा रही है। सरकारी खर्च पर काबू करना भी निहायत जरूरी है, लेकिन इस बाबत नाटक नहीं, ठोस उपाय करने होंगे। जरूरत इस बात की है कि सरकार सही मायने में उचित नीतिगत विकल्पों के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था की बदहाली को ठीक करने का प्रयास करे।

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