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अगला चुनाव युद्ध

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May 28, 2012, 12:00 am IST
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अगला चुनाव युद्धलोकतंत्र व वंशवाद के बीच

दिंनाक: 28 May 2012 12:53:32

लोकतंत्र व वंशवाद के बीच

देवेन्द्र स्वरूप

क्या केन्द्र की सत्ता के लिए उद्योग पर्व अभी से आरंभ हो गया है? ममता बनर्जी और मुलायम सिंह ने अपने-अपने दलों के कार्यकर्त्ताओं को 2014 से बहुत पहले ही लोकसभा चुनावों के लिए तैयार होने का निर्देश दे दिया है। पिछले हफ्ते स्टार न्यूज और नेलसन के संयुक्त सर्वेक्षण के अनुसार यदि चुनाव अभी होते हैं तो भाजपा सोनियानीत संप्रग से काफी आगे निकल रही है। देशभर के 28 नगरों में आयोजित इस सर्वेक्षण के अनुसार, भाजपा के पक्ष में 28 प्रतिशत और सोनिया पार्टी को केवल 20 प्रतिशत मत मिलने की संभावना है। खबरिया चैनलों ने इस सर्वेक्षण का कार्य गंभीरता से लिया है, यद्यपि 52 प्रतिशत मतदाताओं का उसमें कोई हिसाब नहीं है। किंतु इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि केन्द्र में सत्ता के लिए केवल दो ही दावेदार हैं- भाजपा और सोनिया पार्टी। तीसरा कोई दल मैदान में नहीं है अत: दो दलों का ही तुलनात्मक आकलन व मूल्यांकन भारत के भविष्य की दृष्टि से उपयोगी है।

जहां तक सोनिया पार्टी का संबंध है, उसका वंशवादी चरित्र सूर्य के समान स्पष्ट है। वहां प्रत्येक निर्णय सोनिया जी लेती हैं। उनकी इच्छा के बिना उस पार्टी में एक पत्ता भी नहीं खड़क सकता। उनकी पार्टी के प्रत्येक नेता व कार्यकर्त्ता ने इस सत्य को स्वीकार कर लिया है और वंशवादी मानसिकता को अपना लिया है। वहां भी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव भयंकर स्थिति में है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्रियों का आपसी टकराव आये दिन की बात है। मीडिया में यह आम चर्चा है कि वास्तविक सत्ता-केन्द्र मनमोहन सिंह न होकर सोनिया माइनो हैं। इसलिए प्रत्येक मंत्री 10, जनपथ का कृपापात्र बने रहने की कोशिश में लगा रहता है। संप्रग-2 के तीन वर्ष पूरे होने पर विभिन्न चैनलों और दैनिक पत्रों में जो बहस हुई उसका एक ही निष्कर्ष है कि सत्ता दो केन्द्रों में विभाजित होने के कारण सरकार अनिर्णय-लकवा की शिकार बन गयी है। निर्णय प्रक्रिया लगभग बंद है। प्रधानमंत्री का मीडिया और जनता के साथ कोई संवाद नहीं है।

पर्दे के पीछे से राजनीति

जहां तक सोनिया का सवाल है, उन्होंने तो अपने को रहस्य और अगम्यता के पर्दे में छिपा रखा है। मीडिया का उनके पास कोई प्रवेश नहीं है, कुछ इने-गिने नामों को छोड़कर अधिकांश मंत्रियों और पार्टी नेताओं की उनके पास पहुंच नहीं है। लोकसभा में उन्हें किसी ने कभी बोलते नहीं देखा। किसी राष्ट्रीय प्रश्न या विवाद पर उन्हें बहस करते नहीं पाया गया। यह चुप्पी ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति बन गई है। उनकी रहस्यमयी बीमारी के लिए, उनकी रहस्यमय अमरीका यात्रा के बारे में कोई प्रश्न पूछने या खोजबीन करने का साहस किसी मीडिया कर्मी में नहीं हुआ। वे चार लोगों की मंडली-रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी, जनार्दन द्विवेदी, अहमद पटेल और राहुल गांधी- को निर्णय लेने का अधिकार सौंप गई थीं। इन नामों का चयन उन्होंने किस आधार पर किया, कांग्रेस कार्यसमिति की इसमें कोई भूमिका क्यों नहीं थी, यह आज तक कोई नहीं जानता। 1984 में सिखों के नरमेध के समय वे राजमहल का अंग थीं अत: उस नरमेध से सीधी जुड़ी थीं, क्वात्रोकी का उनके घर में आना-जाना था, बोफर्स कांड में क्वात्रोकी की भूमिका पर उन्होंने आज तक मुंह नहीं खोला, अर्जेण्टीना से उसे भागने में सीबीआई की सहायता दिलायी, उनके चहेते एच.आर.भारद्वाज ने लंदन में क्वात्रोकी के बैंक खातों से उसे सब पैसा निकालने में मदद की। ऐसे विवादों की लंबी सूची है, जिन पर उन्होंने सोची-समझी चुप्पी साध रखी है। उनकी दिनचर्या का अधिकांश समय सत्ता की गोटियां बिछाने में खर्च होता है। मुस्लिम और चर्च नियंत्रित वोट बैंक को साधना, यही उनका मुख्य कार्यक्रम है। 1968 में इंदिरा गांधी के राजमहल का अंग बनने के बाद से उन्होंने सत्तातंत्र के दांवपेचों को समझने में अपनी बुद्धि लगायी है। यह सीखा है कि सत्ता के किन यंत्रों का कहां और कैसे उपयोग करना है। सीबीआई और राज्यपाल पद का उन्होंने पूरा-पूरा दुरुपयोग किया है। कर्नाटक में राज्यपाल एच.आर.भारद्वाज, झारखंड में सिब्ते रजी, बिहार में बूटा सिंह, गुजरात में कमला बेनीवाल आदि वंश-निष्ठा के उदाहरण हैं। उत्तराखंड के नवनियुक्त राज्यपाल कुरैशी ने तो मीडिया के सामने ही अपनी सोनियानिष्ठा की घोषणा कर दी। प्रत्येक राज्य का मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष सोनिया के द्वारा तय किया जाता है। प्रत्येक मंत्रिमंडल का गठन उनकी इच्छा से होता है। फिर भी, उनकी पार्टी द्वारा शासित प्रत्येक राज्य में सरकार और पार्टी आपसी गुटबंदी और भ्रष्टाचार का शिकार हैं-चाहे वह राजस्थान हो या आंध्र, हरियाणा हो या उत्तराखंड। पर यह तो मानना ही होगा कि सब प्रांतीय नेताओं ने अपने को इतना असहाय मान लिया है कि वे सोनिया कृपा के बिना अपना कोई भविष्य नहीं देखते।

दूसरों के सिर ठीकरा

उनकी राजनीतिक प्रेरणाएं पूरी तरह वंशवादी और सत्ता केन्द्रित हैं। वे स्वयं प्रधानमंत्री बनने का दो बार विफल प्रयास कर चुकी हैं। एक बार 1999 में, जब उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन के सामने झूठा दावा पेश किया कि उन्हें 272 लोकसभा सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। दूसरी बार 2004 में, जब वे संप्रग की नेता चुने जाने पर तत्कालीन राष्ट्रपति डा.अब्दुल कलाम के सामने अपना दावा पेश करने गयीं थीं, किंतु किन्हीं तकनीकी और संवैधानिक आपत्तियों के कारण उन्होंने सोनिया जी का दावा खारिज कर दिया, जिसके कारण उन्हें रातोंरात मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाना पड़ा था। किंतु तभी से उनकी समूची राजनीति का लक्ष्य राहुल को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाना रहा है। उनके बहुत प्रयास करने पर भी राहुल वह क्षमता ओर योग्यता प्रगट नहीं कर पाये। सोनिया पार्टी के महासचिव पद पर बैठाए जाने से पहले बिहार और फिर उत्तर प्रदेश में कई वर्षों तक लगातार चुनाव प्रचार करने पर भी वे पराजय को टाल नहीं पाये। किंतु सोनिया की पूरी कोशिश रही है कि पराजय का लांछन राहुल के बजाए अन्य लोगों व कारणों पर डाला जाय। उत्तर प्रदेश में राहुल, प्रियंका और सोनिया तीनों मिलकर भी पूरा उत्तर प्रदेश तो दूर, अमेठी और रायबरेली के अपने गढ़ों को भी नहीं बचा पाये। किंतु सोनिया ने एंटोनी जांच कमेटी बनाकर इस पराजय के लांछन से राहुल को पूरी तरह बचाने की कोशिश की है, जिसमें व्याप्त वंशवादी गंध की मीडिया ने खूब आलोचना की है, जिससे स्पष्ट हो गया कि मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग वंशवादी राजनीति को सिद्धांतत: पसंद नहीं करता।

सोनिया भी बात को समझती हैं इसीलिए वह राष्ट्रीय नीतिगत प्रश्नों एवं राजनीतिक विवादों पर चुप्पी साधकर मीडिया को नजदीक आने का मौका नहीं देतीं। वे जानती हैं कि जितना वे बोलेंगी, मीडिया उतना ही प्रचारित कर पाएगा। अत: वे रोमन लिपि में लिखकर हिन्दी के एक दो वाक्यों को मंच पर बोलती हैं और वही मीडिया में सुर्खी बन जाते हैं, उन्हीं पर बहस चलती रहती है। अपने को मीडिया में बनाए रखने के लिए वे फोटो पत्रकारिता का पूरा-पूरा उपयोग करती हैं। मीडिया में ग्लेमर के प्रति जो रुझान बढ़ा है उसका वे पूरा-पूरा लाभ उठाती हैं। सभी मंत्रालयों द्वारा प्रसारित पूरे पृष्ठ के विज्ञापनों में प्रधानमंत्री के साथ उनका रंगीन चित्र देना आवश्यक समझा जाता है। जनकोष पर निर्भर अधिकांश जनकल्याणकारी योजनाओं, पुरस्कारों और भवनों-सड़कों का नामकरण सोनिया वंश पर रखने की प्रथा चल पड़ी है। पिछले दिनों समाचार आया कि एक चौथाई सरकारी योजनाओं का नामकरण राजीव के नाम पर हुआ है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री ने पिछले सप्ताह अपनी सरकार की उपलब्धियों पर एक पृष्ठ का विज्ञापन छपवाया तो एक बड़े हिन्दी दैनिक ने पहले पन्ने पर शीर्षक दिया- द्वारा विज्ञापन पर करोड़ों रुपये पर अभी 21 मई को राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर कई केन्द्रीय मंत्रालयों व राज्य सरकारों ने राजीव गांधी को बताते हुए साढ़े पांच पृष्ठ के विज्ञापन प्रत्येक दैनिक पत्र में छपाये तो उस पर कोई आपत्ति नहीं उठी। वैसे तो किसी दिवंगत आत्मा के प्रति आलोचनात्मक भाषा का प्रयोग उचित नहीं लगता, किंतु यह प्रश्न बार-बार उठता है कि यदि राजीव गांधी इतने ही थे तो भारत की जिस जनता ने 1984 में इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या से उत्पन्न सहानुभूति की लहर पर सवार होकर उन्हें लोकसभा में 404 सीटों का भारी बहुमत प्रदान किया था, उसी जनता ने उनके पांच साल लम्बे शासन के अंत में 1989 में उन्हें सत्ता से बाहर क्यों फेंक दिया और पूरे-पूरे पृष्ठ के सरकारी विज्ञापनों में राजीव का स्तुतिगान 1991 में उनकी दुखद हत्या के 13 वर्ष बाद 2004 में तभी क्यों आरंभ हुआ जब केन्द्र की सत्ता सोनिया के हाथों में पहुंच गई? क्या यह सोनिया की वंशवादी राजनीति के लिए सत्ता के दुरुपयोग का ठोस प्रमाण नहीं है?

किसको किसका सहारा?

इसमें मीडिया का कोई दोष नहीं है, यह तो राजनीतिक नेतृत्व का काम है कि वह मीडिया को ये मुद्दे उठाने के लिए आवश्यक जानकारी दे। कितनी लज्जा की बात है कि संप्रग की तीसरी वर्षगांठ के आयोजन में नेहरू परिवार का मूर्ति भंजन करने वाले स्वयं को डा.लोहिया का शिष्य बताने वाले मुलायम सिंह इतने मात्र से ही गद्गद् हो गये कि भोजन के समय उन्हें सोनिया ने अपने बगल में बैठा लिया। इतने दृश्य मात्र से मीडिया ने कहा कि मुलायम सिंह सोनिया की जेब में चले गए और राष्ट्रपति चुनाव में वे सोनिया का साथ देंगे। जबकि वास्तविकता यह है कि मुलायम से अधिक सोनिया को मुलायम की आवश्यकता है। एक तो अमेठी और रायबरेली के अपने गढ़ों को बचाने के लिए, दूसरे, केन्द्र के सत्ता संघर्ष में उत्तर प्रदेश के मुस्लिम समाज का समर्थन पाने के लिए, और तीसरे, ममता और द्रमुक की धमकियों से निजात पाने के लिए।

भाजपा पर जिम्मेदारी

इस वंशवादी राजनीति से देश को मुक्ति दिलाने का दायित्व अकेले भाजपा पर आ पड़ा है। भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा अकेला अखिल भारतीय दल है जिसे सही अर्थों में लोकतांत्रिक कहा जा सकता है। भाजपा व्यक्ति पूजा की बीमारी से पूरी तरह मुक्त है। भाजपा के अधिकांश केन्द्रीय एवं राज्य स्तर के नेता राष्ट्रवाद की विचारधारा के प्रति अपनी व्यक्तिगत निष्ठा को लेकर पहले जनसंघ में और बाद में भाजपा में आए हैं। वे किसी व्यक्ति विशेष या वंश के प्रति अंधभक्ति सें बंधे नहीं हैं। भाजपा अकेला दल है जहां अध्यक्ष पद के लिए नियत समय पर चुनाव होता है। अन्य लगभग सभी दल या तो वंशवादी हैं या अधिनायकवादी। कम्युनिस्ट पार्टियां वंशवादी तो नहीं हैं, पर केरल में मत-भिन्नता के कारण एक माकपाई नेता की निर्मम हत्या व अच्युतानंदन-पिनरायी गुटबंदी से स्पष्ट है कि कम्युनिस्ट आंदोलन अभी तक लोकतांत्रिक चरित्र नहीं अपना सका है। पता नहीं क्यों भाजपा का नेतृत्व अपने दल के इस लोकतांत्रिक चरित्र को सोनिया की वंशवादी राजनीति के विरुद्ध हथियार नहीं बना रहा है? लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। मीडिया की सहज प्रवृत्ति दलों के भीतर गुटबंदी और मतभेदों के सनसनीखेज समाचार ढूंढने की होती है। इस दृष्टि से भाजपा का व्यक्ति पूजा शून्य लोकतांत्रिक चरित्र उन्हें बहुत अनुकूल लगता है। भाजपा नेताओं की आपसी बहस को वे नमक-मिर्च लगाकर प्रकाशित करते हैं। वे भूल जाते हैं कि यदि भाजपा जैसे लोकतांत्रिक दल में मतभिन्नता और बहस नहीं होगी तो क्या वंशवादी सोनिया पार्टी में होगी? किंतु इस सत्य को मीडिया के सामने रेखांकित करना भाजपा का काम है। वंशवाद के प्रति भाजपा कार्यकर्त्ताओं की ही वितृष्णा का लक्षण है कि वंशवाद की चर्चा होते ही वे राज्यस्तर के राजनाथ सिंह, प्रेम कुमार धूमल और गोपीनाथ मुंडे आदि नेताओं के पुत्र-पुत्रियों के राजनीतिक उत्कर्ष का उदाहरण दोहराते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि उनमें से अधिकांश लोग अपने पिताओं के कारण नहीं बल्कि अपने लम्बे कार्य के द्वारा आगे बढ़े हैं और यदि उनके पिताओं को श्रेय दिया जाए तो भी दल की निर्णय प्रक्रिया पर उनका कोई एकाधिकार नहीं है व वह लोकतांत्रिक विधि से सामूहिक निर्णय लेता है। यदि हम यह मान लें कि भाजपा में भी निचले स्तर पर वंशवाद के बीज पनप रहे हैं तो वंशवाद विरोधी सार्वजनिक अभियान पार्टी के भीतर भी ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश का कार्य करेगा। यदि भाजपा ने अभी से वंशवाद बनाम लोकतंत्र को अपने प्रचार अभियान का केन्द्र-बिन्दु बनाया तो मीडिया को आत्मालोचन करने का अवसर मिलेगा। वह भाजपा की आंतरिक बहस को दूसरी दृष्टि से देखेगा और अनजाने में सोनिया की वंशवादी राजनीति का हथियार नहीं बनेगा। किंतु यह तभी संभव है जब भाजपा नेतृत्व इस सत्य को आत्मसात कर ले कि इस समय भारत के सामने सबसे बड़ा खतरा वंशवादी अधिनायकवाद से है। यदि उसे समय रहते समाप्त नहीं किया गया और सोनिया को मुस्लिम व चर्च नियंत्रित वोट बैंक के कंधों पर सवार होकर केन्द्र में सत्ता पर काबिज होने का तीसरा अवसर मिल गया तो भारत में लोकतंत्र का दीया हमेशा के लिए बुझ सकता है। एक सशक्त लोकतंत्रवादी विपक्षी दल के नाते भाजपा का यह कर्तव्य है कि वह देश के जन-जन को इस खतरे से सचेत (23.5.2012)

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