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मैं सावरकर बोल रहा हूं

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May 20, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 May 2012 21:33:57


 

सावरकर के प्रेरक विचार

पुस्तक – मैं सावरकर बोल रहा हूं

संपादक – शिव कुमार गोयल

प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान

1661, दखनी राय स्ट्रीट

नेताजी सुभाष मार्ग,

नई दिल्ली-110002

मूल्य – 200 रु. , पृष्ठ – 144


प्रत्यक्ष क्रांति के तौर पर अंग्रेजी शासन से टक्कर ली, बल्कि अप्रत्यक्ष (वैचारिक आंदोलन-लेखन) तौर पर भी उसके समक्ष चुनौतियां प्रस्तुत कीं। विनायक दामोदर सावरकर ऐसे ही एक विलक्षण स्वतंत्रता सेनानी थे। जहां एक ओर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की नींद हराम कर दी वहीं आजीवन कारावास की सजा पाने के बाद अंदमान जेल की दीवारों पर भी एक अद्भुत साहित्य रचा। लेकिन देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने और अमानवीय यातनाएं सहने के बाद आजाद देश का सपना जब उनकी आंखों के सामने पूरा हुआ तो देश के राजनीतिज्ञों और शासन व्यवस्था से क्षुब्ध होकर उन्हें कहना पड़ा कि क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। स्वाधीनता का पूरा श्रेय अहिंसक सत्याग्रहियों को ही दिया जाना इतिहास के साथ अन्याय है।

सावरकर केवल क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि समाज सुधारक, चिंतक,लेखक, इतिहासकार, कवि, प्रखर वक्ता, दूरदर्शी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों और रुग्ण परम्पराओं पर भरपूर प्रहार किए और उनमें सुधार की बात कही। 1916 में काल- कोठरी में रहते हुए अपने छोटे भाई को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था, “मैं उस समय को देखने को अभिलाषी हूं, जब हिन्दुओं में अंतर-प्रांतीय और अंतरजातीय विवाह होने लगेंगे तथा पंथों और जातियों की दीवार टूट जाएगी।' वीर सावरकर के बहुआयामी व्यक्तित्व के विलक्षण विचारों, लेखों के चुनिंदा अंशों का संकलन हाल में प्रकाशित होकर आया है। “मैं सावरकर बोल रहा हूं' नामक पुस्तक के द्वारा हम विभिन्न विषयों पर उनकी गहन चिंतनधारा को समझ सकते हैं। हिन्दू समाज में व्याप्त रुग्ण परम्पराओं की वे घोर निंदा करते थे। उनका मानना था, “अस्पृश्यता हमारे देश और समाज के मस्तक पर कलंक है। अपने ही हिन्दू समाज के, धर्म के, राष्ट्र के करोड़ों हिन्दू बंधु इससे अभिशप्त हैं।'

आज के दौर में जब राजनीति का धर्म से कोई वास्ता नहीं रह गया है, ज्यादतर राजनीतिक दल और नेता हर तरह की अधार्मिक गतिविधियों को सहजता से अपना लेते हैं, ऐसे में सावरकर जी की धर्म और राजनीति के अंतर्सबंधों की व्याख्या याद आती है। वे कहते थे, “धर्म राजनीति का पोषक मात्र नहीं है, अपितु उसी के पावन सिद्धांतों पर राजनीति शास्त्र का निर्माण हुआ है। धर्म ही राजनीति शास्त्र की आधारशिला है। उसके बिना राजनीति शास्त्र का कोई अस्तित्व ही नहीं है। समाज, स्वदेश और स्वराष्ट्र को दासता की श्रृंखलाओं से मुक्त कराना और उनका संवर्धन करना ही राजनीति है।' इसी प्रकार हिन्दू समाज में व्याप्त मूलभूत एकता की भावना को लेकर उनका मानना था कि “छोटी-छोटी बातों में हममें कितनी भी पारस्परिक भिन्नता क्यों न हो, हम सभी हिन्दुओं के आचार-विचार और व्यवहार समान ही रहे हैं। उनके नियामक विषयों से भी समानता ही परिलक्षित होती आई है।'

इस पुस्तक में सावरकर जी के असंख्य अमूल्य विचार संकलित किए गए हैं, जो इस महान देशभक्त के जीवन दर्शन को सामने लाते हैं। पुस्तक की भूमिका के तौर पर संपादक शिवकुमार गोयल ने वीर सावरकर की संक्षिप्त जीवनी भी लिखी है।

विभूश्री

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