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पुस्तक का नाम – राष्ट्रामृत के पंच कलश
लेखक – डा. हरीन्द्र श्रीवास्तव
मुद्रक – सिद्धी ग्राफिक्स एण्ड प्रिन्टर्स
135, न्यू इतवारा,
पानी की टंकी के सामने
भोपाल (म.प्र.) 462001
मूल्य – 1501 रुपए, पृष्ठ – 720
भारत की भूमि पर सन १८५७ में जिस स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद हुआ, उसकी गूंज अनवरत १९४७ तक गूंजती रही। मुक्त होने की चाह करोड़ों भारतवासियों के मानस में थी। उनमें से असंख्य क्रांतिकारियों ने मातृभूमि को “स्वाधीनता का मुकुट' पहनाने हेतु तन-मन-धन न्योछावर कर दिया। राष्ट्रामृत का पान किए ऐसे ही दो महा-बलिदानी “राष्ट्रामृत के पंच कलश' नामक ग्रन्थ के महानायक हैं। सावरकर साहित्य के विशेषज्ञ, गहन अध्येता व शोधार्थी डा. हरीन्द्र श्रीवास्तव ने यह ऐतिहासिक ग्रन्थ रचा है। प्रस्तुत ग्रन्थ-संकलन के प्रथम महानायक हैं क्रांति-सूर्य, कालजयी वीर विनायक दामोदर सावरकर। अपनी किशोरावस्था में ही सावरकर ने उदित मात्र्तण्ड की भांति उस उष्मा का संचरण किया। भारत के इतिहास में पहली बार विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर विजयदशमी के दिन (7 अक्तूबर, 1905 ई.) विनायक दामोदर सावरकर ने राष्ट्रीय स्वाभिमान स्थापित करने के लिए उपजे आक्रोश को व्यक्त करने का एक नया आयाम प्रस्तुत किया। फिर “1857 का भारतीय स्वातंत्र्य-समर, नामक ग्रन्थ लिखकर ब्रिाटिश साम्राज्य की नींव हिला देने का पुण्य कार्य भी किया। इस पराक्रमी युवक के लन्दन में बीते जीवन के पांच तूफानी वर्ष इतिहास की अद्वितीय धरोहर हैं, उन्हीं पांच वर्षों को केन्द्रित करके जो राष्ट्रामृत संचय हुआ, वह प्रथम कलश में संकलित है।
“कालजयी सावरकर' नामक राष्ट्रामृत के द्वितीय कलश में क्रांतिदर्शी विनायक दामोदर सावरकर के जीवन की उन झांकियों से अमृत-संचय करने का साहस बटोरा प्रयास किया गया है जिनमें सावरकर का ओजस्वी, मनस्वी, वर्चस्वी और तेजस्वी रूप झलकता है और जो राष्ट्र की तरुणाई को क्रांति के चरम-बिन्दु तक पहुंचाने की सामथ्र्य से युक्त है। सागरपुत्र सावरकर के “सागरास' की अमृत-बूंद भी इसी कलश में है, जिसको सागर के तट पर सूर्यास्त और सूर्योदय के समय भाव विभोर होकर वे प्राय: गाते थे।
राष्ट्रामृत का तृतीय कलश हिन्दू राष्ट्र के सबसे प्रचण्ड किन्तु सर्वाधिक प्रताड़ित योद्धा को तिमिर से आलोक में लाने का एक अनूठा प्रयास है। इसमें वीर सावरकर के ओजस्वी उद्गार, ऐतिहासक घटनाचक्र एवं दुर्लभ चित्रों को वर्ष के 365 दिनों के क्रम में संयोजित किया गया है। उनके उद्गारों के संकलन का आधार उनकी लेखनी और वाणी को बनाया गया है। “1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य-समर', “भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ', “हिन्दुत्व', “हिन्दुत्व के पंच-प्राण', “हिन्दू पद पातशाही', “मेजिनी का आत्म चरित्र' आदि कुछ अमर कृतियों से विनायक दामोदर सावरकर के विचारों को उद्धृत किया गया। वे हिन्दू महासभा के पांच वर्षों तक सर्वसम्मत अध्यक्ष रहे, इस दौरान उन्होंने भारत- भ्रमण भी किया। उस कालखण्ड के प्रमुख भाषणों को भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। उनका प्रत्येक विचार किसी “सिंह-गर्जना' से कम नहीं है। अत: राष्ट्रामृत के इस कलश को “सिंह-गर्जना' का अभिधान दिया जाना पूर्णतया समीचीन है।
राष्ट्र के दूसरे अनुपम बलिदानी का नाम है नेताजी सुभाष चन्द्र बोस। इस ग्रन्थ-संकलन के चौथे कलश में उसी “शिखर सेनानी सुभाष' की पौरुष-गाथा है। इस अमर-वृतान्त को लिखने का प्रयोजन इस तथ्य का उद्घाटन करना है कि भारत की आजादी की लड़ाई से नेताजी को अलग नहीं रखा जा सकता। उनके बिना इस लड़ाई का कोई महत्व ही नहीं रहेगा। राष्ट्रामृत के पांचवें कलश में वह अमृत छलक रहा है जिसको भारतीय इतिहास का
एक अनजाना और अनोखा पृष्ठ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मई, 1937 के आरम्भ में अंग्रेजों के निरंतर षड्यंत्रों से संतप्त सुभाष बाबू ने हिम की गोद में बसे एक सुरम्य नगर “डलहौजी' में आकर अपने लंदन-प्रवास के दिनों से परिचित मित्र डा. धर्मवीर के यहां लगभग पांच माह तक रहकर स्वास्थ्य लाभ किया था। डा. धर्मवीर के निवास “कायनेन्स' से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित एक प्राकृतिक जल उद्गम स्थल (जिसे आज सुभाष बावड़ी कहते हैं) है। इसी के अमृत- जल से सुभाष को शनै:-शनै: स्वास्थ्य लाभ हुआ। सुभाष ने भी मां (प्रकृति) से जितना लिया, उससे अधिक (जीवन का बलिदान) लौटाया। इन्ही पांच माह की सुभाष बाबू की दिनचर्या को लिपिबद्ध करके इस कलश में आपूरित किया गया है। इस सदिच्छा के साथ कि पाठकगण “डलहौजी', का नाम बदलकर “अजीत सिंह नगर' रखवाने के लिए जनमत तैयार करें। क्यों? इस क्यों का उत्तर इस अमृत को चखने के बाद स्वत: ही मिलेगा।
डा. नवदीप कुमार
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