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साहित्यिकी
राष्ट्रामृत छलकाता
एक अपूर्व गौरव–ग्रंथ
भारत की भूमि पर सन् 1857 ई. में जिस स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद हुआ, उसकी गूंज अनवरत 1947 तक गूंजती ही रही। विदेशियों के शिकंजे से मुक्त होने की चाह करोड़ों भारतवासियों के मानस में थी। उनमें से असंख्य क्रांतिकारियों ने मातृभूमि को 'स्वाधीनता का मुकुट' पहनाने हेतु तन-मन-धन न्योछावर कर दिया। राष्ट्रामृत का पान किए ऐसे ही दो महा-बलिदानी 'राष्ट्रामृत के पंच कलश' नामक ग्रन्थ के महानायक हैं। सावरकर साहित्य के विशेषज्ञ, गहन अध्येता व शोधार्थी डा. हरीन्द्र श्रीवास्तव ने यह ऐतिहासिक ग्रन्थ रचा है। प्रस्तुत ग्रन्थ-संकलन के प्रथम महानायक हैं क्रांति-सूर्य, कालजयी वीर विनायक दामोदर सावरकर। अपनी किशोरावस्था में ही सावरकर ने उदित मार्त्तण्ड की भांति उस उष्मा का संचरण किया। भारत के इतिहास में पहली बार विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर विजयदशमी के दिन (7 अक्तूबर, 1905 ई.) विनायक दामोदर सावरकर ने राष्ट्रीय स्वाभिमान स्थापित करने के लिए उपजे आक्रोश को व्यक्त करने का एक नया आयाम प्रस्तुत किया। फिर '1857 का भारतीय स्वातंत्र्य-समर, नामक ग्रन्थ लिखकर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला देने का पुण्य कार्य भी किया। इस पराक्रमी युवक के लन्दन में बीते जीवन के पांच तूफानी वर्ष इतिहास की अद्वितीय धरोहर हैं, उन्हीं पांच वर्षों को केन्द्रित करके जो राष्ट्रामृत संचय हुआ, वह प्रथम कलश में संकलित है।
'कालजयी सावरकर' नामक राष्ट्रामृत के द्वितीय कलश में क्रांतिदर्शी विनायक दामोदर सावरकर के जीवन की उन झांकियों से अमृत-संचय करने का साहस बटोरा प्रयास किया गया है जिनमें सावरकर का ओजस्वी, मनस्वी, वर्चस्वी और तेजस्वी रूप झलकता है और जो राष्ट्र की तरुणाई को क्रांति के चरम-बिन्दु तक पहुंचाने की सामर्थ्य से युक्त है। सागरपुत्र सावरकर के 'सागरास' की अमृत-बूंद भी इसी कलश में है, जिसको सागर के तट पर सूर्यास्त और सूर्योदय के समय भाव विभोर होकर वे प्राय: गाते थे। राष्ट्रामृत का तृतीय कलश हिन्दू राष्ट्र के सबसे प्रचण्ड किन्तु सर्वाधिक प्रताड़ित योद्धा को तिमिर से आलोक में लाने का एक अनूठा प्रयास है। इसमें वीर सावरकर के ओजस्वी उद्गार, ऐतिहासक घटनाचक्र एवं दुर्लभ चित्रों को वर्ष के 365 दिनों के क्रम में संयोजित किया गया है। उनके उद्गारों के संकलन का आधार उनकी लेखनी और वाणी को बनाया गया है। '1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य-समर', 'भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ', 'हिन्दुत्व', 'हिन्दुत्व के पंच-प्राण', 'हिन्दू पद पातशाही', 'मेजिनी का आत्म चरित्र' आदि कुछ अमर कृतियों से विनायक दामोदर सावरकर के विचारों को उद्धृत किया गया। वे हिन्दू महासभा के पांच वर्षों तक सर्वसम्मत अध्यक्ष रहे, इस दौरान उन्होंने भारत-भ्रमण भी किया। उस कालखण्ड के प्रमुख भाषणों को भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। उनका प्रत्येक विचार किसी 'सिंह-गर्जना' से कम नहीं है। अत: राष्ट्रामृत के इस कलश को 'सिंह-गर्जना' का अभिधान दिया जाना पूर्णतया समीचीन है।
राष्ट्र के दूसरे अनुपम बलिदानी का नाम है नेताजी सुभाष चन्द्र बोस। इस ग्रन्थ-संकलन के चौथे कलश में उसी 'शिखर सेनानी सुभाष' की पौरुष-गाथा है। इस अमर-वृतान्त को लिखने का प्रयोजन इस तथ्य का उद्घाटन करना है कि भारत की आजादी की लड़ाई से नेताजी को अलग नहीं रखा जा सकता। उनके बिना इस लड़ाई का कोई महत्व ही नहीं रहेगा। राष्ट्रामृत के पांचवें कलश में वह अमृत छलक रहा है जिसको भारतीय इतिहास का एक अनजाना और अनोखा पृष्ठ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मई, 1937 के आरम्भ में अंग्रेजों के निरंतर षड्यंत्रों से संतप्त सुभाष बाबू ने हिम की गोद में बसे एक सुरम्य नगर 'डलहौजी' में आकर अपने लंदन-प्रवास के दिनों से परिचित मित्र डा. धर्मवीर के यहां लगभग पांच माह तक रहकर स्वास्थ्य लाभ किया था। डा. धर्मवीर के निवास 'कायनेन्स' से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित एक प्राकृतिक जल उद्गम स्थल (जिसे आज सुभाष बावड़ी कहते हैं) है। इसी के अमृत-जल से सुभाष को शनै:-शनै: स्वास्थ्य लाभ हुआ। सुभाष ने भी मां (प्रकृति) से जितना लिया, उससे अधिक (जीवन का बलिदान) लौटाया। इन्ही पांच माह की सुभाष बाबू की दिनचर्या को लिपिबद्ध करके इस कलश में आपूरित किया गया है। इस सदिच्छा के साथ कि पाठकगण 'डलहौजी', का नाम बदलकर 'अजीत सिंह नगर' रखवाने के लिए जनमत तैयार करें। क्यों? इस क्यों का उत्तर इस अमृत को चखने के बाद स्वत: ही मिलेगा। डा. नवदीप कुमार
पुस्तक का नाम – राष्ट्रामृत के पंच कलश
लेखक – डा. हरीन्द्र श्रीवास्तव
मुद्रक – सिद्धी ग्राफिक्स एण्ड प्रिन्टर्स
135, न्यू इतवारा,
पानी की टंकी के सामने
भोपाल (म.प्र.) 462001
मूल्य – 1501 रुपए, पृष्ठ – 720
सावरकर के प्रेरक विचार
भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम में बहुत कम ऐसे योद्धा थे जिन्होंने न केवल प्रत्यक्ष क्रांति के तौर पर अंग्रेजी शासन से टक्कर ली, बल्कि अप्रत्यक्ष (वैचारिक आंदोलन-लेखन) तौर पर भी उसके समक्ष चुनौतियां प्रस्तुत कीं। विनायक दामोदर सावरकर ऐसे ही एक विलक्षण स्वतंत्रता सेनानी थे। जहां एक ओर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की नींद हराम कर दी वहीं आजीवन कारावास की सजा पाने के बाद अंदमान जेल की दीवारों पर भी एक अद्भुत साहित्य रचा। लेकिन देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने और अमानवीय यातनाएं सहने के बाद आजाद देश का सपना जब उनकी आंखों के सामने पूरा हुआ तो देश के राजनीतिज्ञों और शासन व्यवस्था से क्षुब्ध होकर उन्हें कहना पड़ा कि क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। स्वाधीनता का पूरा श्रेय अहिंसक सत्याग्रहियों को ही दिया जाना इतिहास के साथ अन्याय है।
सावरकर केवल क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि समाज सुधारक, चिंतक, लेखक, इतिहासकार, कवि, प्रखर वक्ता, दूरदर्शी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों और रुग्ण परम्पराओं पर भरपूर प्रहार किए और उनमें सुधार की बात कही। 1916 में काल-कोठरी में रहते हुए अपने छोटे भाई को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था, 'मैं उस समय को देखने को अभिलाषी हूं, जब हिन्दुओं में अंतर-प्रांतीय और अंतरजातीय विवाह होने लगेंगे तथा पंथों और जातियों की दीवार टूट जाएगी।' वीर सावरकर के बहुआयामी व्यक्तित्व के विलक्षण विचारों, लेखों के चुनिंदा अंशों का संकलन हाल में प्रकाशित होकर आया है। 'मैं सावरकर बोल रहा हूं' नामक पुस्तक के द्वारा हम विभिन्न विषयों पर उनकी गहन चिंतनधारा को समझ सकते हैं। हिन्दू समाज में व्याप्त रुग्ण परम्पराओं की वे घोर निंदा करते थे। उनका मानना था, 'अस्पृश्यता हमारे देश और समाज के मस्तक पर कलंक है। अपने ही हिन्दू समाज के, धर्म के, राष्ट्र के करोड़ों हिन्दू बंधु इससे अभिशप्त हैं।'
आज के दौर में जब राजनीति का धर्म से कोई वास्ता नहीं रह गया है, ज्यादतर राजनीतिक दल और नेता हर तरह की अधार्मिक गतिविधियों को सहजता से अपना लेते हैं, ऐसे में सावरकर जी की धर्म और राजनीति के अंतर्सबंधों की व्याख्या याद आती है। वे कहते थे, 'धर्म राजनीति का पोषक मात्र नहीं है, अपितु उसी के पावन सिद्धांतों पर राजनीति शास्त्र का निर्माण हुआ है। धर्म ही राजनीति शास्त्र की आधारशिला है। उसके बिना राजनीति शास्त्र का कोई अस्तित्व ही नहीं है। समाज, स्वदेश और स्वराष्ट्र को दासता की श्रृंखलाओं से मुक्त कराना और उनका संवर्धन करना ही राजनीति है।' इसी प्रकार हिन्दू समाज में व्याप्त मूलभूत एकता की भावना को लेकर उनका मानना था कि 'छोटी-छोटी बातों में हममें कितनी भी पारस्परिक भिन्नता क्यों न हो, हम सभी हिन्दुओं के आचार-विचार और व्यवहार समान ही रहे हैं। उनके नियामक विषयों से भी समानता ही परिलक्षित होती आई है।'
इस पुस्तक में सावरकर जी के असंख्य अमूल्य विचार संकलित किए गए हैं, जो इस महान देशभक्त के जीवन दर्शन को सामने लाते हैं। पुस्तक की भूमिका के तौर पर संपादक शिवकुमार गोयल ने वीर सावरकर की संक्षिप्त जीवनी भी लिखी है।
पुस्तक – मैं सावरकर बोल रहा हूं
संपादक – शिव कुमार गोयल
प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान
1661, दखनी राय स्ट्रीट
नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली-110002
मूल्य – 200 रु. , पृष्ठ – 144
विभूश्री
गर्मी से बेहाल
अशोक 'अंजुम'
बड़ी तपिश है हो रहे सभी जीव बेचैन।
ऐसे में हड़ताल पर, घर का टेबिल फैन।।
घर के भीतर आग है, घर के बाहर आग।
है 'अंजुम' चारों तरफ, यही आग का राग।।
पत्ता तक हिलता नहीं, पेड़ खड़े हैं मौन।
समाधिस्त हैं संत जी, इन्हें जगाए कौन।।
इक कमरे में है भरा, घर–भर का सामान।
उफ गर्मी में आ गए, कुछ मूंजी मेहमान।।
बैरी है किस जन्म की, ये गर्मी विकराल।
लो फिर लेकर आ गई, सूखा और अकाल।।
थकी–थकी–सी बावड़ी, सूखे–सूखे घाट।
राम बुझाओ प्यास को, जोह रहे हैं बाट।।
ऊपर मिट्टी के घड़े, नीचे तपती रेत।
रामरती को ले चला, दूर प्यास का प्रेत।।
पानी–पानी हो रही, चौपायों की चीख।
चारे का संकट मिटे, चारा रहा न दीख।।
मिनरल वाटर बेचते, सेठ करोड़ी लाल।
गंगाबाई खोजती, पानी वाला ताल।।
खड़ी जेठ के आंगना, नदिया मांगे नीर।
दु:शासन–सी है तपन, खींच रही है चीर।।
सूरज लगता माफिया, हफ्ता रहा वसूल।
नदिया कांपे ओढ़कर, तन पर तपती धूल।।
तपते सूरज ने किया, यूं सबको बदहाल।
नदी रखे व्रत निर्जला, ताल हुआ कंगाल।।
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