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सम्पादकीय
नष्टप्रज्ञ: पापमेव नित्यमारभते नर:।
पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुन:पुन:।।
जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन:पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है।
–वेदव्यास (महाभारत, उद्योग पर्व, 35/62), 4/7/10)
कब कसेगी माओवादियों की नकेल?
पिछले करीब एक माह में माओवादी नक्सलियों ने जिस तरह हिंसक घटनाओं में तेजी पकड़ी है, वह चिंता का विषय है। लेकिन राजनीतिक जोड़–तोड़ में लगी और हर मोर्चे पर विफल संप्रग सरकार आंतरिक सुरक्षा का ठीकरा राज्य सरकारों के सिर फोड़ने में ही अपनी कुशलता समझती है। दूसरी ओर वह एनसीटीसी जैसे कानूनी प्रावधानों के माध्यम से राज्य सरकारों के हाथ बांधकर देश के संघीय ढांचे को दरकाने की कोशिशें करती है। उड़ीसा में इटली के दो पर्यटकों व एक विधायक के अपहरण के बाद छत्तीसगढ़ में सुकमा के कलेक्टर मेनन को अगवा किए जाने से उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत .होने का संकेत देने की कोशिश की। इसी सप्ताह बीते रविवार की रात छत्तीसगढ़ के किरन्दुल में सीआरपीएफ के 6 जवानों की हत्या व कोंडागांव में गुरुवार को राज्य की महिला बाल विकास मंत्री के घर पर हमला, जिसमें एक सिपाही की हत्या व उसके हथियार लूटकर नक्सलियों का फरार हो जाना बताता है कि वे देश में आंतरिक सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती बने हुए हैं। लेकिन केन्द्र सरकार व उसके सेकुलर सलाहकार राजनीतिक दांवपेचों से नक्सलियों के हौसले बढ़ाने में लगे हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने जिस तरह नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बनाकर उनसे निपटना शुरू किया व जनजातीय क्षेत्रों में सलवा जुड़ूम जैसे जन अभियान के माध्यम से उन्हें घेरा, संप्रग सरकार के इशारे पर अग्निवेश से लेकर तमाम सेकुलर डा.रमन सिंह सरकार पर हमलावर हो गए। यहां तक कि जिस डाक्टर बिनायक सेन को नक्सलियों का समर्थक होने, उन्हें मदद के जुर्म में देशद्रोह का अभियोग चलाकर उम्रकैद की सजा दी गई, उसे छुड़ाने के लिए सेकुलर मुहिम चलाई गई जिसमें तमाम सेकुलर राजनेता, बुद्धिजीवी, यहां तक कि यूरोपीय प्रतिनिधिमंडल तक मैदान में उतर आया। केन्द्र सरकार ने तो डा.सेन को योजना आयोग की एक समिति तक में बिठा दिया। ऐसे में नक्सलियों के खिलाफ मुहिम सफल कैसे हो? इस हौसला अफजाई से ही आज छत्तीसगढ़ में नक्सली फिर सिर उठा रहे हैं।
यह केन्द्रीय सत्ता की राजनीतिक इच्छाशक्ति का ही अभाव है कि देश के एक तिहायी से ज्यादा जिलों और आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में माओवादी नक्सली समानांतर सत्ता चलाने की स्थिति में आ गए हैं। यदि राजनीतिक लाभ-हानि और सत्ताकांक्षाओं को ध्यान में रखकर नक्सलियों के विरुद्ध लड़ाई के पैमाने तय किए जाएंगे तो उनका खात्मा कैसे होगा? प.बंगाल में जब ममता बनर्जी सत्ता से बाहर थीं तो उन्होंने खुद को नक्सलियों की हमदर्द के रूप में दिखाने की कोशिश की, आरोप तो यहां तक हैं कि राज्य विधानसभा चुनावों में नक्सलियों ने ममता बनर्जी की पार्टी को जिताने में भरपूर मदद की, लेकिन जब स्वार्थ टकराये तो अब दोनों में छत्तीस का आंकड़ा बन रहा है। यदि देशहित और जन सुरक्षा को ताक पर रखकर राजनीतिक स्वार्थों के लिए अपनी सुविधा-असुविधा के अनुसार फैसले होंगे तो नक्सलवाद खत्म कैसे होगा? एक ओर केन्द्र सरकर 'आपरेशन ग्रीन हंट' चलाने का दिखावा करती है, दूसरी ओर नक्सलियों की लगातार बढ़ रही जघन्य हिंसा से निपटने के लिए देश में जब सेना की मदद लेने की आवाज उठती है तो सरकार को मानवीयता याद आती है और कहा जाता है कि नक्सली भी आखिरकार अपने ही बीच के लोग हैं। जिन निर्दोष नागरिकों व जवानों को बड़े पैमाने पर नक्सलियों द्वारा नृशंसतापूर्वक मारा जा रहा है उनके प्रति संप्रग सरकार के गृहमंत्री चिदम्बरम व सेकुलर बुद्धिजीवियों व नेताओं की मानवीय संवेदनाएं कहां लुप्त हो जाती हैं? गत बुधवार को आपरेशन ग्रीन हंट के विरोध में देशव्यापी बंद के दौरान नक्सलियों ने जिस तरह रक्तपात किया और अराजकता फैलाई, उससे भी केन्द्र की आंखें नहीं खुलतीं तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा? केन्द्र सरकार स्वयं मानती है कि नक्सलियों को मिलने वाली विदेशी मदद में वृद्धि हुई है। उन्हें व्यक्तिगत मदद देने वाले लोग भारत आकर 'फोरम अगेंस्ट वार' जैसी माओवादी समर्थक संस्थाओं के मंच से खुलेआम उनका समर्थन करते हैं, उन्हें मध्यम वर्ग तक अपनी पहुंच बढ़ाने की सलाह देते हैं। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री संसद में बयान देते हैं कि माओवादी समर्थकों के संगठित समूह नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई के विरोध में बड़ी संख्या में ईमेल भेजकर सरकार पर दबाव बनाते हैं। इस समन्वित अभियान को विदेशों से सहायता मिलने की बात भी गृह राज्यमंत्री स्वीकारते हैं, तो भी सरकार इस खतरे की गंभीरता से आंखें क्यों चुराती है?
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