चर्चा सत्र
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पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग की राय
मुजफ्फर हुसैन
पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग की रपट के अनुसार थरपारकर जिले में 7 महीने के भीतर 782 हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बाद में उन्हें मुसलमान बना लिया गया। पाकिस्तान के अधिकांश पुलिस थानों में जोर–जबरदस्ती से मतान्तरण किए जाने की रपट भी नहीं लिखी जाती है। कभी–कभी तो पुलिस भी इसी प्रकार के मामलों में गुंडागर्दी करने से नहीं चूकती है।
भारत के विभाजन के साथ जब पाकिस्तान बना था तब तत्कालीन राजनेता और मुल्ला-मौलवी यह कहते हुए नहीं थकते थे कि पाकिस्तान मुसलमानों का एक ऐसा देश बनेगा जिस पर सारी दुनिया गर्व करेगी। मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ यह देश इस्लामी मूल्यों पर आधारित होगा। आज पाकिस्तान को अस्तित्व में आए 65 वर्ष बीत गए हैं। इस लम्बी अवधि में पाकिस्तान इस्लामी मूल्यों के लिए क्या कर सका है इसका कच्चा चिट्ठा तो सारी दुनिया जानती है, लेकिन अपने नागरिकों की कसौटी पर वह कितना खतरा उतरा है यह बात भी अब जगजाहिर हो चुकी है। राष्ट्र संघ के नियमों के अनुसार हर देश की सरकार मानवाधिकार आयोग स्थापित करती है, जो प्रतिवर्ष अपनी रपट प्रकाशित करके दुनिया को यह बताने का प्रयास करता है कि वहां की आम जनता किस हाल में है। अपनी स्थापना से लेकर आज तक पाकिस्तान में बनने वाली सरकारों ने जो कुछ किया है उसके सम्बंध में अमरीका जैसी महाशक्ति का कहना है कि पाकिस्तान एक असफल देश है। पिछले दिनों अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने जब इन शब्दों का उपयोग किया तो पाक सरकार ने कटु शब्दों में इसकी निंदा की। हिलेरी क्लिंटन अभी अपने देश भी नहीं लौटी थीं कि स्वयं पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने जो रपट दी है वह सिद्ध कर देती है कि हिलेरी क्लिंटन का हर शब्द अपनी जगह पर बिल्कुल ठीक और न्यायिक है। पाक सरकार कुछ भी कहे लेकिन जिन मुद्दों को स्वयं पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने विश्व के सम्मुख रखा है, वे चौंका देने वाले हैं। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की रपट का प्रथम वाक्य ही यह है कि पाकिस्तान अपने मुस्लिम नागरिकों के साथ भी न्याय नहीं कर सका है तो उससे पाकिस्तान में बसने वाली अन्य जनता के बारे में क्या उम्मीद की जाए? खून के प्यासे
रपट के अनुसार कराची में पिछले सात महीने में 18 हिंसक घटनाएं घटीं। इन दंगों में 715 व्यक्ति मौत के घाट उतार दिए गए। पुलिस ने इन घटनाओं को लेकर 138 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, जो एक सप्ताह के भीतर निर्दोष घोषित कर रिहा कर दिए गए। अधिकांश अपराधी राजनीतिक और मजहबी जमातों के दबाव के कारण छोड़ दिए गए। 517 पाकिस्तानी ड्रोन हमलों में मारे गए। 337 पुलिस मुठभेड़ में। जबकि बलूचिस्तान में 147 व्यक्तियों का अपहरण हुआ। इनमें आधे से अधिक कत्ल कर दिए गए। इनमें से अधिकतर वे थे, जिन्होंने पुलिस के निकम्मेपन की शिकायत उच्च अधिकारियों से की थी।
आत्मघाती बमों के कारण 192 व्यक्ति मारे गए। साम्प्रदायिक दंगों में 2,307 व्यक्तियों की जान गई। पाकिस्तानी भले ही यह कहते हों कि उन सभी का मजहब इस्लाम है, लेकिन इस्लाम में विभिन्न पंथों और सम्प्रदायों के बीच जो संघर्ष होता है वह इतना संगीन और विकट है कि एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। पाकिस्तान में 230 मस्जिदें ऐसी हैं, जहां नमाज के समय हथियार बंद पुलिस का पहरा रहता है। नमाजियों को पीछे से आकर गोलियों से भून दिया जाता है। इनमें शिया-सुन्नी, बरेलवी-देवबंदी और सुन्नी-अहमदिया प्रमुख हैं। पिछले अक्तूबर, नवम्बर और दिसम्बर में कुल 38 घटनाएं घटी, जिनमें 40 की मृत्यु हो गई और 601 घायल हुए। बलूचिस्तान में हजारों शियाओं को निशाना बनाया गया, जिनमें सौ की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई और चार गांव के लोग अपने घर छोड़कर भाग गए। 6 अमहदियों को बड़ी बेदर्दी से मार दिया गया।
हिन्दुओं के साथ अन्याय
अल्पसंख्यक हिन्दुओं की यह शिकायत दूर नहीं की गई कि उनकी लड़कियों और युवा महिलाओं का अपहरण किया जाता है। फिर जोर-जबरदस्ती से उनको मतान्तरित कर लिया जाता है। थरपारकर जिले में 7 महीने के भीतर 782 हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बाद में उन्हें मुसलमान बना लिया गया। पाकिस्तान के अधिकांश पुलिस थानों में जोर-जबरदस्ती से मतान्तरण किए जाने की रपट भी नहीं लिखी जाती है। कभी-कभी तो पुलिस भी इसी प्रकार के मामलों में गुंडागर्दी करने से नहीं चूकती है। ईश निंदा के कानून के तहत पिछले 6 माह में 13 व्यक्तियों का शिरोच्छेद कर दिया गया। 2011 में 16 विदेशी पत्रकारों की हत्या कर दी गई। खतरों को समझने और उनसे बचने के लिए पत्रकारों एवं महिलाओं को प्रशिक्षित करने का काम बंद कर दिया गया।
पत्रकारों के अतिरिक्त वे लोग भी हिंसा का निशाना बनते हैं, जो स्वतंत्र रूप से अपने विचार एवं राय व्यक्त करते हैं। इनमें मानवाधिकार के लिए काम करने वाले लोग, राजनीतिज्ञ और प्रगतिशील मजहबी नेता भी शामिल हैं। स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर 943 महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इनमें 93 अवयस्क लड़कियां भी थीं। मानवाधिकार आयोग की आधी रपट तो महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों से भरी पड़ी है। महिला को वे पुरुष की तुलना में घटिया मानते हैं। इसके लिए इस्लाम के कानून-कायदे की मनगढ़ंत व्याख्या करते हैं। मानवाधिकार आयोग ने जो रपट प्रस्तुत की है वह रोंगटे खड़े कर देने वाली है। पाकिस्तान के कुछ अखबार जब इसके अंश प्रकाशित करते हैं तो उन्हें भी धमकियां दी जाती हैं। महिला अधिकारों के पक्षधर लोगों को भी वे निशाना बनाते हैं। पाकिस्तान सरकार भी इस रपट पर कोई ध्यान नहीं देती। मंत्री और अधिकारी खुलेआम कहते हैं कि यह तो पाक सरकार को बदनाम करने की साजिश है। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग में जो लोग हैं, उन्हें इस्लाम विरोधी और दुश्मन माना जाता है। पाकिस्तान सरकार मानवाधिकार से सम्बंधित रपट तैयार करने वालों को देश का दुश्मन कहती है, जबकि सरकार ही उन्हें नियुक्त करती है। यह कितनी विचित्र बात है। इसलिए कोई भी स्वाभिमानी न्यायाधीश अथवा समाजसेवी या शिक्षाशास्त्री इस आयोग का सदस्य नहीं बनना चाहता है। यह एक पीड़ादायक समाचार है कि अब तक पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के चार सदस्यों की हत्या कर दी गई है। हत्यारे अब तक पकड़े नहीं गए हैं। कुछ की फाइल तो गृह मंत्रालय ने यह कहकर बंद कर दी कि उनका किसी से निजी झगड़ा था इसलिए अंजान लोगों ने उनकी हत्या कर दी।
न समानता, न न्याय
मानवाधिकार आयोग के सदस्यों ने जब अपनी सुरक्षा की गारंटी मांगी तो उनके साथ दो ऐसे पुलिस जवान दे दिए गए जिनके हाथ में केवल लाठियां थीं। जब आयोग की रपट को सरकार ही मान्यता नहीं देती है तो फिर देश में कौन देगा? मानवाधिकार आयोग की रपट चीख-चीख कर कहती है कि वहां नागरिकों के साथ न तो समानता है और न ही न्याय! पाकिस्तान का कानून पंथ और सम्प्रदाय के अनुसार चलता है। सुन्नी समाज पाकिस्तान का बड़ा समाज है, लेकिन वहां भी जो वैचारिक रूप से खुलापन रखते हैं उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है। पाकिस्तान में 'खत्मे नबुव्वत कॉन्फ्रेंस' एक ऐसा संगठन है, जो पैगम्बर साहब के मामले में कोई बात सुनना पसंद नहीं करता है। उनका मत है कि कुरान, पैगम्बर और इस्लाम के नाम पर कुछ भी नहीं सुना जा सकता है। वहां बड़ी संख्या में शिया समाज है लेकिन वे दूसरे दर्जे की नागरिकता में जीते हैं। वे अपने विचार और चिंतन को खुलकर प्रचारित नहीं कर सकते हैं। इस बात को लेकर बहुत जल्द टकराव शुरू हो जाता है। कट्टर सुन्नी मौलानाओं का मत है कि पाकिस्तान के नाम के साथ सुन्नी स्टेट जोड़ दिया जाना चाहिए। इसके लिए वहां आन्दोलन भी चलता है। यह मांग तो उसी दिन प्रारम्भ हो गई थी जिस दिन पाकिस्तान बना था। इसलिए नेशनल असेम्बली में जिन्ना को यह कहना पड़ा था कि तुम आज से न तो सुन्नी हो और न ही शिया, न तुम सिंधी हो और न तुम पंजाबी हम सब केवल और केवल पाकिस्तानी हैं।
रस्में और रूढ़ियां
22 मार्च 2012 को मानवाधिकार आयोग ने अपनी रपट जारी की है। उसमें आई.एस.आई की गतिविधियों पर भी तीखी टिप्पणी की गई है। रपट में कहा गया है कि या तो सरकार मानवाधिकारों पर चोट करने वाले तत्वों को अपना अप्रत्यक्ष समर्थन देती है या फिर उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं करना चाहती है। पाकिस्तान में शिया बड़ी संख्या में हैं लेकिन हर दिन उनके विरुद्ध कोई न कोई आरोप लगाकर उनके नेताओं को जेल में धकेल दिया जाता है।
ईसाई तो अब मुट्ठी भर रह गए हैं। वहां के सुन्नियों का सामना करने वाली अब कोई ताकत शेष नहीं रह गई है। अहमदिया और हिन्दू तो उनको फूटी आंखों नहीं भाते हैं। आने वाले कुछ ही वर्षों में यह दोनों अल्पसंख्यक समाप्त हो जाएं तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं। पाकिस्तान में महिला समाज में अनेक बहादुर महिलाएं अपनी स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाती हैं लेकिन उन्हें सरकार का समर्थन नहीं मिलता है। आज भी वहां की महिलाओं को 'मुख्तारन बीबी' बन कर रहना पड़ता है। वनी और काराकोरी जैसी मानवता को लज्जित करने वाली गंदी रस्में और रूढ़ियां जारी हैं। मानवाधिकार आयोग ने अपनी रपट में यह बात बड़े साहस से कही है कि जब तक पाकिस्तान में कट्टरवाद और मदरसे बने रहेंगे तब तक वहां कोई सामाजिक क्रांति नहीं हो सकती है। राष्ट्र संघ चाहे तो विदेशी सहायता रोककर पाकिस्तान सरकार की बुद्धि ठीक कर सकता है।
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