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गौरवशाली इतिहास-5
कश्मीर की आध्यात्मिक भूमि पर उदित हुआ था
सद्भावना और शौर्य
का अनूठा स्वर्ण युग
नरेन्द्र सहगल
अपने देश के पतन और उत्थान का इतिहास कश्मीर से कन्याकुमारी तक लगभग एक जैसा ही है। भारत के राष्ट्रवादी हिन्दू समाज की संगठित शक्ति और पतनावस्था के साथ साथ ही भारत का गौरवशाली एवं संघर्ष का इतिहास समानांतर चलता हुआ देखा जा सकता है। भारत माता के मुकुट कश्मीर का भी ऐसा ही गौरव, संघर्ष, प्रतिकार और बलिदान का इतिहास है। कुषाण एवं हूण जैसी आक्रमणकारी जातियों के क्रूर शासकों कनिष्क और मिहिरकुल को भी कश्मीर की धरती पर भारतीय जीवनमूल्यों में आत्मसात कर लिया गया। कश्मीर का यह सारा इतिहास राजतरंगिणी नामक ग्रंथ में उपलब्ध है।
मिहिरकुल की मृत्यु के बाद अनेक वर्षों तक कश्मीर में स्थानीय राजाओं का राज्य रहा। उन्हीं स्थानीय राजाओं ने उस समय उज्जैन के राजा विक्रमादित्य से सम्पर्क स्थापित करके उसे कश्मीर की राजनीतिक स्थिति से अवगत कराया। विक्रमादित्य ने अपने एक योग्य मंत्री प्रतापादित्य को कश्मीर राज्य का प्रमुख बनाकर भेजा। स्पष्ट है कि उस समय कश्मीर राज्य भी भारतीयों के संघीय ढांचे का संवैधानिक सदस्य था। संघीय ढांचे में प्रमुख भारतीय सम्राट ही होता था। प्रतापादित्य ने कुशलतापूर्वक कश्मीर पर राज्य किया।
जीव हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध
इसी कालखंड में कल्हण ने राजतरंगिणी की तृतीय पुस्तक में मेघवाहन नामक एक प्रतिभाशाली राजा का उल्लेख किया है। मेघवाहन का जन्म गांधार में हुआ था। गांधार उस समय बौद्धमत का प्रभाव केन्द्र था। कनिष्क के प्रयासों के कारण बौद्धमत अफगानिस्तान एवं तुर्किस्तान तक फैल चुका था। अत: मेघवाहन ने भी बौद्धमत के प्रचार हेतु एक अनूठा अभियान प्रारंभ किया जो विश्व इतिहास में अभिनव और अतुलनीय है।
सत्य–अहिंसा के ध्वजवाहक
मेघवाहन ने समूचे विश्व में प्राणी हिंसा के निषेध का निश्चय किया(राजतरंगिणी 3/27)। कश्मीर में उसने पशुओं के वध पर प्रतिबंध लगाने के पश्चात् इस निषेधाज्ञा को प्रभावी बनाने के उद्देश्य से दक्षिण की ओर लंका तक प्रवास किया। दक्षिणी समुद्र तट पर मेघवाहन का पड़ाव था। एक शबर चणिकायतन में नरबलि करने के लिए सन्नद्ध था। उस समय मेघवाहन ने स्वयं अपना शरीर अर्पित कर हिंसा से शबर को विरत किया था। (राज.3/57)।
वैश्विक संस्कृति में योगदान
उसने एक बाह्मण बालक की रक्षा के लिए स्वयं अपना शरीर बलि के लिए अर्पित कर प्राणी रक्षा का स्तुत्य प्रयास किया था। (राज.3/88)। राजा ने राक्षसों को भी हिंसक कार्यों से विरत किया था। (राज.3/78)। राजा ने अपने राज्य (कश्मीर) में ही नहीं, सम्पूर्ण भारतवर्ष में महाघोष करवाया कि प्राणी कोई भी हो, वे सब अवध्य हैं। (राज.3/88)।
सत्य, अहिंसा, परोपकार और सहअस्तित्व जैसे जीवन दर्शन पर आधारित भारतीय संस्कृति के परम उपासक सम्राट मेघवाहन ने पूरी राज्यव्यवस्था को इन्हीं सिद्धांतों के अंतर्गत स्थापित एवं संचालित करने में अनूठी सफलता प्राप्त की थी। कश्मीर के एक विद्वान आनंद कौल के अनुसार 'कश्मीर की भूमि भारतीय संस्कृति की क्रीड़ास्थली रही है। पूरे विश्व में फैली भारतीय जीवन पद्धति के प्रचार-प्रसार में कश्मीर का विशेष योगदान रहा है। इस सच्चाई से आंखें मूंदना असंभव है।'
सम्पूर्ण भारत में एकत्व
मेघवाहन की पत्नी असम के राजा की पुत्री अमृतप्रभा थी। उस समय बंगाल एवं असम में वैष्णव मत का प्रभाव था। अत: कश्मीर घाटी में इस मत का प्रवेश मेघवाहन की रानी अमृतप्रभा के प्रयासों से हुआ। शैवमत की भांति यह मत प्रभावशाली नहीं बन सका। शैवमत अथवा बौद्धमत के साथ इसका कोई संघर्ष अथवा विवाद भी नहीं आया।
बल्कि अमृतप्रभा ने विदेशों से आने वाले बौद्ध भिक्षुओं की सुख-सुविधा हेतु अमृत भवन नामक मठ का निर्माण स्वयं करवाया था। इसे युकांग विहार कहा जाता है। कश्मीर के राजभवन पर जो ध्वज लहराता था, उसका ध्वजदंड राजा मेघवाहन को श्रीलंका के राजा ने प्रदान किया था। हिमालय से सुदूर दक्षिण (समुद्र पर्यंत) तक भारत के एकत्व का यह एक अद्भुत उदाहरण है। मेघवाहन की सांस्कृतिक ध्वजा कश्मीर से श्रीलंका तक फहराई थी।
कालजयी ककर्ोटा राजवंश
मेघवाहन के कालखंड के पश्चात् कश्मीरी इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ककर्ोटा वंश का 254 वर्षों का राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। इस वंश का संस्थापक राजा दुर्लभवर्धन 625 ई.में कश्मीर की राजगद्दी पर बैठा। यहीं से कल्हण की चौथी राजतरंगिणी का प्रारंभ होता है। ककर्ोटा राजवंश का इतिहास अधिक ठोस एवं प्रामाणिक है।
631ई.में चीन का प्रसिद्ध यात्री ह्वेनसांग कश्मीर पहुंचा। वह राजकीय अतिथि के नाते दो वर्ष तक यहां रहा। उसने दुर्लभवर्धन के राज्यकाल का वर्णन अपने लेखन में किया है। उसके अनुसार कश्मीर के राजा का तक्षशिला, हजारा, पुंछ और राजौरी जैसे दूरस्थ स्थानों तक प्रभाव था। वह एक शक्तिशाली राजा था और एक विस्तृत राज्य पर शासन करता था। कश्मीर से काबुल तक के मार्ग पर उसका नियंत्रण था। किंतु वह पूरी तरह स्वतंत्र नहीं था। सम्राट हर्षवर्धन, जिसकी राजधानी कन्नौज थी, कश्मीर पर साधारण रूप से सत्ता रखता था। कश्मीर की आर्थिक अवस्था अच्छी थी। घाटी फलों और फूलों से भरी थी। बौद्धमत का अच्छा प्रचार- प्रसार था।
ह्वेनसांग के उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि कश्मीर का राजा भी सम्राट हर्षवर्धन की केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत आता था। इस तथ्य से उन आधुनिक इतिहासकारों को कुछ सीखना चाहिए जो यह कहते गर्व अनुभव करते हैं कि भारत में कभी केन्द्रीय सत्ता नहीं रही।
चीन के साथ सैन्य समझौता
ककर्ोटा राजवंश के राजाओं के समय कश्मीर को दिग्विजयी भूमि का सम्मान प्राप्त हुआ। इसी कालखंड में चन्द्रापीड़ नामक सम्राट ने तो अपने राजनीतिक, आर्थिक एवं सैनिक प्रभुत्व का विस्तार चीन तक बढ़ाने में अद्भुत सफलता प्राप्त की थी। इसी शक्तिशाली और न्यायप्रिय राजा ने अरब देशों से आने वाले हमलावरों से लोहा लेने के लिए चीन के साथ एक स्थाई सैन्य समझौता भी किया था।
प्रसिद्ध इतिहासकार गोपीनाथ श्रीवास्तव के अनुसार अरबों के आक्रमणों को रोकने के लिए चीन के साथ की गई सैनिक संधि के परिणामस्वरूप चीन की सैनिक टुकड़ियां कश्मीर के राजा चन्द्रापीड़ की सहायतार्थ पहुंचीं। चीन के राजवंशों के सरकारी आलेखों में इसका प्रमाण मिलता है। आठवीं शताब्दी के प्रारंभ से चीन के साथ हुई इस तरह की संधियां तीन शताब्दियों तक निरंतर चलती रहीं। इस कालखंड के विदेशी आक्रमणकारी कश्मीर की धरती पर पांव जमाने में पूर्णत: विफल रहे।
नागरिक अधिकारों की सुरक्षा
चन्द्रापीड़ के राज्य में न्याय एवं साधारण जनता के सुरक्षित अधिकारों की चर्चा कल्हण ने राजतरंगिणी में की है। अति साधारण लोगों को भी पूरे अधिकार एवं सम्मान प्राप्त थे। किसी की जमीन, सम्पत्ति सरकार द्वारा अधिग्रहीत करने पर उसका उचित मुआवजा दिया जाता था। राज्य कर्मचारी आम जनता पर अत्याचार करने से डरते थे।
राजतरंगिणी में ही एक लघुकथा का सुंदर वर्णन आता है। एक बार राजा को एक अति विशाल मंदिर के निर्माण के लिए उचित स्थान पर उपयुक्त भूमि की आवश्यकता थी। सरकारी अफसर भूमि की तलाश में अनेक दूरस्थ स्थानों पर गए। जो भूमि उन्हें मंदिर निर्माण के लिए पसंद आई, वह एक साधारण चर्मकार की थी। उसी में उसकी झोपड़ी भी थी। चर्मकार ने अपनी झोपड़ी हटाना अस्वीकार करते हुए वह जमीन सरकारी नियंत्रण में देने से मना कर दिया। जब राजा तक यह समाचार पहुंचा तो उसने तुरंत भूमि अधिग्रहण आदेश को रोक दिया।
राजा स्वयं चर्मकार की झोपड़ी के द्वार पहुंचा। चर्मकार से वार्तालाप करते हुए राजा ने राष्ट्रहित में झोपड़ी कहीं अन्यत्र ले जाने की प्रार्थना की। राजा ने उसे समझाया कि मंदिर निर्माण का प्रश्न राष्ट्रीय प्रश्न है। अत: इस राष्ट्रीय कार्य में बाधा बनना श्रेयस्कर नहीं। साधारण से चर्मकार को भी राष्ट्रहित की बात समझ में आ गई। राजा के आदेश से उसे कुछ ही दूरी पर भूमि प्रदान की गई और वह चर्मकार अपनी झोपड़ी का सारा सामान सरकारी खर्चे पर उठाकर ले गया।
उदारता का कालखंड
एक अन्य घटना से चन्द्रापीड़ की उदारता एवं विशालता का परिचय मिलता है। राजा ने एक ब्राह्मण को उसके किसी कुकर्म के लिए सख्त सजा दी। उससे वह ब्राह्मण नाराज होकर राजा के छोटे भाई तारापीड़ के पास चला गया। वह पहले ही राजा चन्द्रापीड़ के विरुद्ध षड्यंत्र रचने में व्यस्त था। इस ब्राह्मण ने तारापीड़ के बहकावे में आकर धोखे से राजा चन्द्रापीड़ को जहर खिला दिया। राजा ने अत्यंत सूझबूझ से इस षड्यंत्र को सद्भावना में बदल दिया। राजद्रोह में शामिल विदेशनिष्ठ तत्वों को भी सख्ती से कुचल डाला गया।
मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए राजा को जब ब्राह्मण के इस कृत्य की जानकारी मिली तो उसने यह कहकर ब्राह्मण को क्षमा कर दिया कि यह बेचारा तो बेकसूर है। इस तरह से उसके जीवन का अंत भी उदारता के भावों के साथ ही हुआ। चन्द्रापीड़ की रानी प्रकाशदेवी, उसके गुरु मिहिरदत्त एवं मंत्री कालीदत्त ने भी अनेक मंदिर एवं राष्ट्रीय महत्व के स्थानों का निर्माण करवाया।
ध्वस्त हुआ ज्ञान–विज्ञान
राजतरंगिणी में स्पष्ट वर्णन मिलता है कि कश्मीर के इस वैभवकाल में चीन समेत विश्व के अधिकांश देशों से विद्यार्थी ज्ञान, विज्ञान की शिक्षा लेने यहां के विश्वविद्यालयों एवं अन्य सांस्कृतिक केन्द्रों में आते थे। राज्यभाषा संस्कृत शिक्षा का माध्यम थी। वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत एवं गीता जैसे मानवीय, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक वाड.मय पर आधारित भारतीय जीवन मूल्यों का वर्चस्व समस्त विश्व पर स्थापित था।
विश्व के दुर्भाग्य से जब चौहदवीं शताब्दी के प्रारंभ में कश्मीर की धरती पर ऐसे क्रूर, सत्ता-केन्द्रित, असहिष्णु, हिंसक और एकतरफा विचार दर्शन का पदार्पण हुआ तो ज्ञान-विज्ञान की ऊंची अट्टालिकाएं ध्वस्त कर दी गईं। कश्मीर की आध्यात्मिक दिग्विजयी धरती पर पुष्पित-पल्लवित भारतीय संस्कृति की खिलती वाटिका उजाड़ दी गई। यह दुर्भाग्यशाली मंजर आज भी चल रहा है।
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