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मंथन

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May 19, 2012, 12:00 am IST
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दिंनाक: 19 May 2012 17:38:14

मंथन

देवेन्द्र स्वरूप

अम्बेडकर मित्र या अम्बेडकर शत्रु?

15 अगस्त 1947 को राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के ढाई वर्ष बाद 26 जनवरी 1950 को भारत ने जिस संविधान को अपनी भावी यात्रा के लिए अंगीकार किया उस संविधान के आधार पर गठित लोकसभा और भारतीय लोकतंत्र की प्रगति का मूल्यांकन लोकसभा की 60वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में औपचारिक उत्सव के दृश्य और उस अवसर पर किए गए खोखले शब्दाचार से करें या उसके तीन दिन बाद ही 14 मई के शून्यकाल के समय सत्ता पक्ष के सांसदों और मंत्रियों की खाली पड़ी कुर्सियों के दृश्य से? वे किसी राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर सदन का बहिष्कार नहीं कर रहे थे बल्कि वे अपनी आदतवश संसद की कार्यवाही के प्रति अपनी उपेक्षावृत्ति का प्रगटीकरण मात्र कर रहे थे। यदि संसद लोकतंत्र का दर्पण है, यदि सदन में सांसदों की उपस्थिति लोकतंत्र के प्रति हमारी निष्ठा का प्रतीक है तो इसे समझने में भ्रम नहीं होना चाहिए कि साठ वर्ष लम्बी यात्रा के अंत में जो राजनीतिक नेतृत्व उभरा है, संसद में पहुंचा है उसकी चिंता राष्ट्र या लोकहित न होकर केवल अपनी सुख सुविधा और संसद सदस्यता से प्राप्त प्रतिष्ठा व आर्थिक राजनीतिक सत्ता मात्र है। अभिनेत्री रेखा के राज्यसभा में मनोनयन और उनके शपथ ग्रहण के क्षणों के चित्रों का सभी टेलीविजन चैनलों पर व दैनिक पत्रों में प्रसारण से प्रमाणित होता है कि अब संसद में विचारों और लोक सेवा से अधिक 'ग्लेमर' की चाह पैदा हो गयी है, 'ग्लेमर' के कंधे पर सवार होकर वोट राजनीति को आगे बढ़ाया जा रहा है।

राजनीति का पतन

इस साठ वर्षों में संसद के हृास का इससे भी प्रमाण मिलता है कि तिरेसठ वर्ष पूर्व सन् 1949 में संविधान सभा द्वारा संविधान निर्माण में हो रही देरी पर कटाक्ष करने के लिए इस देश के मूर्धन्य कार्टूनकार शंकर द्वारा चित्रित एक निरापद कार्टून को अम्बेडकर विरोधी घोषित करके संसद के भीतर और बाहर तूफान खड़ा कर दिया गया। उस कार्टून में संविधानसभा को घोंघे की शक्ल दी गयी थी, संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के नाते उस घोंघे पर सवार डा.अम्बेडकर के हाथ में चाबुक है, जिसे वे घोंघे को अपनी गति बढ़ाने के लिए फटकार रहे हैं। घोंघे पर सवार डा.अम्बेडकर के पीछे थोड़ी दूर पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खड़े हैं। वे भी हाथ में चाबुक लेकर घोंघे को अपनी चाल तेज करने के लिए ललकार रहे हैं। स्पष्ट ही, इस कार्टून का एकमात्र लक्ष्य संविधान निर्माण में हो रही देरी पर कटाक्ष करना है और उसकी गति बढ़ाने की मांग करना है। यह कार्टून 63 वर्ष से बाजार में मौजूद है। कभी किसी ने उस कार्टून का यह अर्थ नहीं लगाया कि उसमें नेहरू जी डा.अम्बेडकर को चाबुक मार रहे हैं और वह अम्बेडकर विरोधी कार्टून है।

किंतु इन साठ वर्षों में राजनीति का इस कदर पतन हुआ है, वह झूठे नारों और झूठे प्रतीकों पर जिंदा रहने की कोशिश कर रही है कि इस राजनीति में डा.अम्बेडकर पर भी दलित वोट बैंक को रिझाने के लिए एक ओर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच, दूसरी ओर अनेक दलित नेताओं के बीच गलाकाट स्पर्धा छिड़ गयी है। इस 63 वर्ष पुराने कार्टून को भी इसी वोट बैंक राजनीति का हथियार बनाया गया है। राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसंधान परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा स्कूली पाठ्यक्रम में भारतीय संविधान विषयक पाठ में इस कार्टून को 2006 में सम्मिलित किया गया। छह वर्ष तक इस कार्टून पर किसी ने आपत्ति नहीं उठायी, अब यकायक 10 अप्रैल को कुछ अनुसूचित जाति नेताओं ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पूनिया को इस कार्टून के विरुद्ध एक ज्ञापन दिया। श्री पूनिया सेवा निवृत्त नौकरशाह हैं जो कभी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के प्रति वफादार होते थे, किन्हीं कारणों से उनसे रूठकर सोनिया पार्टी में चले आये। सोनिया ने उन्हें इस आयोग के अध्यक्ष पद पर बैठा दिया और पिछले उ.प्र.विधानसभा चुनाव में पूनिया ने अपनी पूरी ताकत मायावती को हटाने व सोनिया पार्टी को जिताने में लगायी। मायावती तो कई अन्य कारणों से चुनाव हार गयीं, पर सोनिया पार्टी चौथे नम्बर से एक हाथ आगे नहीं बढ़ पायी। शायद पूनिया की पहल पर सोनिया पार्टी के सांसदों ने इस कार्टून के सवाल को संसद में उठाया और वोट बैंक राजनीति के कारण लगभग सभी दलों के सांसदों ने उनके स्वर में अपना स्वर मिला दिया। लज्जा की बात यह है कि मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने कार्टून और एनसीईआरटी की वकालत करने के बजाए उस कार्टून की ही नहीं, उस अध्याय को भी पाठ्यक्रम से हटाने की आनन फानन घोषण कर डाली।

सत्ता पक्ष की इस समर्पण वृत्ति को देखकर राजनेताओं के हौसले बढ़ गये और उन्होंने एनसीईआरटी की सभी पाठ्य पुस्तकों में से आगे पीछे के सभी राजनेताओं पर केन्द्रित सभी कार्टूनों को हटाने की मांग उठा डाली। इस मांग को सिरे से खारिज करने के बजाए सोनिया की गठबंधन सरकार ने सभी पाठ्य पुस्तकों की पुन:समीक्षा कराने और कार्टूनों को हटाने पर विचार करने का निर्णय घोषित कर दिया। भारतीय संसद के ऐसे लोकतंत्र विरोधी आचरण से भारत पूरे विश्व में उपहास का विषय बन गया है। कार्टूनों को विचार अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम माना जाता है। बड़े-बड़े नेता और बुद्धिजीवी कार्टून का विषय बनने को गौरव की बात मानते रहे हैं। स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने प्रसिद्ध कार्टूनकार शंकर को लिखा था कि 'तुम मुझे बख्शना मत'। पर आज के पिग्मी राजनेता कार्टून से डरते हैं। वे लोकतंत्र की बात करते हैं, संसद में अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं पर अपनी आलोचना से घबराते हैं, अपने आलोचकों की जुबान पर ताला लगा देना चाहते हैं।

असली चेहरा दिखाया

इस कार्टून विवाद ने जहां वोट लोलुप राजनेताओं को बेनकाब कर दिया है वहीं विश्वविद्यालयों में बैठकर मोटी तनख्वाह बटोरने वाले और ऐश की जिंदगी जी रहे तथाकथित अम्बेडकर भक्त दलित बुद्धिजीवियों का भी असली चेहरा देश को दिखा दिया है। ऐसे ही एक बुद्धिजीवी हैं जिन्होंने कांचा इलियाह जैसा अजीबो गरीब नाम अपनाया है शायद अपने को हिन्दू धारा से अलग दिखलाने के लिए, वे हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं। डा.अम्बेडकर भक्ति के आवरण में वे हिन्दू विरोध का जहर फैलाते हैं। उनकी एक पुस्तक का शीर्षक है 'मैं हिन्दू क्यों नहीं हूं?' व्हाई आई एम नाट ए हिन्दू?' दूसरी पुस्तक का शीर्षक है 'हिन्दू  ओत्तर भारत का चित्र (पोस्ट हिन्दू इंडिया)। पिछले सप्ताह ही उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय में गोमांस भक्षण के पक्ष में आंदोलन खड़ा करके वहां के छात्रों में खूनी संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी, जिसमें अनेक छात्र गंभीर रूप से घायल हो गये। पिछले रविवार(13 मई) के एशियन एज में उन्होंने गोमांस भक्षण की वकालत में 'फूड फासिज्म' शीर्षक लेख छपवाया।

कार्टून विवाद छिड़ने पर उन्हें कई अंग्रेजी चैनलों में इस विषय पर बहस में भाग लेने का न्योता दे दिया गया, क्योंकि वे अंग्रेजी बोल लेते हैं। अच्छी अंग्रेजी बोलने के कारण ही ब्रिटिश वायसराय ने लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में 'इंडियन लेजिस्लेटिव असेंबली' के मनोनीत सदस्य एम.जी.राजा की वरिष्ठता की उपेक्षा करके डा.अम्बेडकर को दलित वर्गों के लिए प्रथम मताधिकार की मांग उठाने के लिए लंदन भेजना उचित समझा था। ब्रिटिश जनमत पूर्ण स्वतंत्रता की मांग उठाने वाली कांग्रेस और गांधी से बहुत नाराज था और लंदन में हो रहे गोलमेज सम्मेलन में जनाधार से अधिक महत्व अंग्रेजी में सशक्त अभिव्यक्ति को प्राप्त था। इसलिए डा.अम्बेडकर गांधी जी की कटु आलोचना करने के कारण सम्मेलन के भीतर और बाहर विशेष लोकप्रिय हो गये थे। कांचा इलियाह जैसे अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी भी उसी रास्ते पर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। पर अम्बेडकर भक्ति के आवरण में वे अम्बेडकर शत्रु का आचरण कर रहे हैं।

व्यापक दृष्टि

डा.अम्बेडकर ने कभी भी हिन्दू परंपरा से संबंध विच्छेद की कल्पना नहीं की। दूसरे गोलमेज सम्मेलन के अंत में उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को एक लिखित ज्ञापन दिया जिसमें मांग की कि हम अपने को दलित वर्ग नहीं कहलाना चाहते। कहना ही है तो हमें प्रोटेस्टेंट हिन्दू या अवर्ण हिन्दू कहो। अपनी यह मांग उन्होंने 1932 में लोथियन कमीशन के सामने भी दोहरायी। साईमन कमीशन को अपने प्रतिवेदन में उन्होंने संयुक्त मताधिकार का आग्रह किया था। डा.अम्बेडकर की विचार यात्रा में दो पृथक धाराओं का संगम विद्यमान है। एक उनकी मूल आस्थाओं का, दूसरा परिस्थितिजन्य प्रतिक्रियाओं का। कांचा इलियाह जैसे बुद्धिजीवी उनकी क्षणिक प्रतिक्रियाओं को ही डा.अम्बेडकर का स्थायी भाव मान बैठे हैं। उदाहरण के लिए 1935 में लाहौर के जात-पांत तोड़क मण्डल के कटु अनुभव की प्रतिक्रिया में डा.अम्बेडकर ने घोषणा कर दी कि 'मैं हिन्दू जन्मा था, पर हिन्दू मरूंगा नहीं। शायद इसी घोषणा को पूरा करने के लिए उन्होंने 1956 में अपनी मृत्यु के तीन महीने पहले नागपुर में अपने महार अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। किंतु इस दीक्षा कार्यक्रम को हिन्दू धारा से बहिर्गमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसका अर्थ केवल इतना था कि वे हिन्दू समाज में विद्यमान जन्मना वर्ण व्यवस्था से बाहर निकलना चाहते थे। पर, उसके बहुत पहले ही संविधान निर्माण की प्रक्रिया में भाग लेते हुए उन्होंने संविधानिक दृष्टि से बौद्ध धारा को हिन्दू धारा के अंग के रूप में ही मान्यता दे दी थी।

अम्बेडकर भक्ति का प्रदर्शन करने के लिए कांचा इलियाह जैसे बुद्धिजीवी यह कहने का दुस्साहस कर डालते हैं कि अम्बेडकर की स्थिति गांधी और नेहरू जैसे नेताओं से कहीं ऊपर है। गांधी-नेहरू पर कार्टून बनाये जा सकते हैं पर अम्बेडकर पर नहीं, क्योंकि अम्बेडकर दलित वर्गों के बीच पैगम्बर या मसीहा की स्थिति प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें कार्टून का विषय बनाने को विशाल दलित वर्ग सहन नहीं कर सकता। यहां कांचा इलियाह थोड़ा सच भी बोल गये। उन्होंने कहा कि पहले अम्बेडकर को यह गौरवपूर्ण स्थिति प्राप्त नहीं थी पर अब वह बन गयी है और आगे ही बढ़ती जा रही है। इसमें काफी सत्यांश है क्योंकि आज के परिदृश्य को देखें तो गांधी जी, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अस्पृश्यता निवारण और दलितोद्धार के लिए समर्पित कर दिया, को दलित विरोधी खलनायक के रूप में चित्रित किया जा रहा है जबकि डा.अम्बेडकर को दलितों के देवता के रूप में।

इतिहास में ऊंचा स्थान

लोग यह भूल गये हैं कि डा.अम्बेडकर का अनुयायी वर्ग प्रारंभ में महाराष्ट्र की महार जाति के एक वर्ग तक ही सीमित था। महाराष्ट्र के बाहर उन्हें बहुत कम लोग जानते थे। अमरीकी महिला इलिनोर जेलियद ने 1965 से 1969 तक के कालखंड में भारत में रहकर डा.अम्बेडकर पर जो शोधकार्य किया उसका शीर्षक 'डा.अम्बेडकर और महाराष्ट्र का महार आंदोलन' रखा। गांधी जी ने 11 मार्च 1932 को यरवदा जेल से भारत सचिव सर सेमुअल होर को जो पत्र लिखा उसमें भी डा.अम्बेडकर को महारों का नेता बताया था। महाराष्ट्र के दलित नेता पी.एन.राजभोज ने 7 जून, 1932 को वायसराय के निजी सचिव के नाम पत्र में लिखा कि 'चमार और मांग जातियों के लोग डा.अम्बेडकर को अपना नेता नहीं मानते और हम पृथक मताधिकार लेकर हिन्दू समाज से अलग नहीं होना चाहते।' 1930 के दशक में दलित वर्गों में आने वाली जातियों में शिक्षा नहीं के बराबर थी, आर्थिक दृष्टि से वे बहुत कमजोर थे और सामाजिक पिछड़ेपन का शिकार थे। डा.अम्बेडकर का नाम जानने वाले लोग तो महाराष्ट्र के बाहर निकले ही नहीं थे। यह अनुसंधान के लिए रोचक विषय है कि किस प्रकार डा.अम्बेडकर 1930 के दशक की अज्ञात स्थिति से पैगम्बर की वर्तमान स्थिति को प्राप्त कर सके?

इसी प्रकार यह जानना भी आवश्यक है कि जिस भारतीय संविधान के रचनाकार होने का गौरव उन्हें दिया जाता है, उस संविधान के प्रति उनके मन का भाव क्या था? यह जानने के लिए राज्यसभा के पटल पर 2 सितम्बर, 1953 को बोले गये उनके शब्द सामने रखने चाहिए। राज्यसभा में डा.अम्बेडकर ने कहा था, 'मुझे बार-बार बताया जाता है कि तुम इस संविधान के रचयिता हो। दरअसल मेरी स्थिति तो भाड़े के टट्टू जैसी थी। मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध यह करना पड़ता था जो करने को मुझे कहा जाता था। मैं यह कहने को तैयार हूं कि इस संविधान को जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति रहूंगा। मैं इसे बिल्कुल पंसद नहीं करता। यह किसी के लिए अनुकूल नहीं है।'

डा.अम्बेडकर की महानता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भाग्य ने उन्हें असामान्य बौद्धिक क्षमता, शोधक प्रवृत्ति व संवेदनशील अंत:करण प्रदान किया था, जिनके बल पर ही वे इतिहास में अपने लिए इतना ऊंचा स्थान बना सके। अंधी व्यक्ति पूजा के बजाय उनके गुणों को अपनाना आज की सर्वोच्च आवश्यकता है।

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