दिग्विजयी देवभूमि कश्मीर के योद्धाओंऔर विद्वानों ने सर्वप्रथम किया था
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गौरवशाली इतिहास-4
और विद्वानों ने सर्वप्रथम किया था
नरेन्द्र सहगल
इतिहासकार कल्हण के अनुसार मगध के सम्राट अशोक ने 250 ईसा पूर्व कश्मीर को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। अशोक के राज्य की सीमाएं बंगाल से प्रारंभ होकर हिन्दू-कुश पर्वत (अफगानिस्तान) तक फैली थीं। सम्राट अशोक ने श्रीनगरी शहर को बनाया और बसाया था। यह पुराना नगर वर्तमान श्रीनगर से मात्र 5 किमी.की दूरी पर है। स्पष्ट है कि वर्तमान श्रीनगर पुराने नगर श्रीनगरी का ही नया रूप है। उस समय कश्मीर की राजधानी पुराणाधिष्ठान (वर्तमान पाद्रेठन) के आसपास थी। इस स्थान पर बने मंदिरों के खंडहर आज भी उस काल के उत्कर्ष के मौन साक्षी हैं।
शिवशक्ति की अपार विजय
पांच हजार बौद्ध भिक्षुओं को कश्मीर घाटी में बसाकर इसे बौद्ध दर्शन का एक सशक्त केन्द्र बनाने वाला सम्राट अशोक कश्मीर की धरती पर उत्पन्न शैव दर्शन से प्रभावित होकर स्वयं भी शिव का उपासक बन गया। शिव शक्ति ने बौद्ध भिक्षुओं की कथित देशघातक मानसिकता पर विजय प्राप्त की। सम्राट अशोक का कोई पुत्र न था। कश्मीर की श्रेष्ठ सांस्कृतिक धरोहर की रक्षार्थ उसे शूरवीर उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी। इस समय तक कश्मीर घाटी में विदेशी आक्रमण प्रारंभ हो चुके थे। अनेक बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा विदेशी आक्रमणकारियों का स्वागत करने की प्रथा से देश की अखंडता को खतरा उत्पन्न हो गया था।
बौद्ध मतावलंबी अशोक ने अब शिव का उपासक बनकर शक्ति की पुन:आराधना करनी प्रारंभ कर दी। उसने वीरव्रती पुत्र की प्राप्ति हेतु भूतेश (शिव) की घोर तपस्या की। कल्हण ने इस प्रसंग का अपने ग्रंथ राजतरंगिणी में इन शब्दों में वर्णन किया है, 'मलेच्छों से कश्मीर देश संच्छादित हो गया था, अत: राजा ने कठोर तपस्या कर भूतेश से वर स्वरूप जलौक नामक वीर पुत्र मलेच्छों के संहार के लिए प्राप्त किया।'
मलेच्छों ने घुटने टेके
प्रतिदिन शिव की पूजा-अर्चना करने वाला युवराज जलौक भी निडर एवं वीर नरेश था। जिसकी सैन्य संचालन क्षमता के आगे मलेच्छ सेनापतियों ने अनेक बार घुटने टेके। जलौक के नेतृत्व में कश्मीरी सैनिकों ने इन प्रबल विदेशी आक्रमणों से घाटी को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखा। उस समय कश्मीर राज्य की सीमाएं कन्नौज से गंधार तक थीं।
जलौक ने राज्य सिंहासन पर बैठते ही सैन्य संचालन के सभी सूत्र अपने हाथ में लिए। सैनिकों के प्रशिक्षण के लिए अनेक सैनिक विद्यालय खोले गए। कश्मीर के तरुणों को सेना में भर्ती होने की विशेष प्रेरणा जलौक ने दी। इस अनुशासन-प्रिय राष्ट्रभक्त सम्राट ने प्रशासन में ऊंचे स्थानों पर पहुंचे अनेक देशद्रोही अधिकारियों को कठोर सजाए दीं। जलौक रात्रि को वेश बदलकर गुप्त रूप से इन अधिकारियों के व्यवहार का ध्यान रखता था। अनेक बार अपने प्राणों को दांव पर लगाकर भी राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाला यह सम्राट विद्वान एवं न्यायप्रिय भी था।
सनातन धर्म की पुनर्स्थापना
शिव का उपासक और शैव मत का प्रबल समर्थक होने के कारण जलौक कश्मीर में नंदीश्वर भगवान का अवतार माना जाने लगा। अपने गुरु अवधूत के मार्गदर्शन में जलौक धार्मिक शास्त्रार्थ में न केवल विशेषज्ञ के रूप में उभरा अपितु उसने अनेक बौद्ध विद्वानों को शैव मत से प्रभावित एवं दीक्षित भी किया। कश्मीर में सनातन धर्म की पुन:स्थापना करने वाला सम्राट जलौक स्वत: अहिंसक था। बौद्ध मत को समझने और इस मत के अन्तर्गत राज्य की शासन व्यवस्था का अध्ययन करने में सहिष्णुता का परिचय देकर जलौक 'बोधिसत्व स्वरूप' उपाधि से विभूषित हो गया।
अनेक देशों के विद्वानों को जलौक ने प्रोत्साहन एवं सुविधाएं देकर कश्मीर में बसाया। इस समय कश्मीर के यूनान देश के साथ प्रगाढ़ संबंध स्थापित हुए। कल्हण के अनुसार कान्यकुब्ज तथा अन्य भूमि जीतकर राजा ने वहां के चारों वर्णों के निवासियों और धर्म में निपुण लोगों को अपने देश में लाकर बसाया।
विफल हुए हूण आक्रांता
घोर अत्याचारी हूण जाति के एक सरदार मिहिरकुल ने जब कश्मीर की धरती को रौंदना चाहा तो वह कश्मीर की अभेद्य संस्कृति एवं यहां के विद्वानों के अतुलनीय बुद्धि-कौशल की चट्टान से सिर पटक कर रह गया। मालवा और मगध के सम्राटों ने इसके सैनिक आक्रमण को विफल किया और एक भारतीय माता ने इसे क्षमा कर दिया।
छठी शताब्दी के प्रारंभ अर्थात् 515 ईसवीं में हूणों ने कश्मीर पर विजय प्राप्त करके अपना राज्य स्थापित किया। हूणों का नेता मिहिरकुल कश्मीर के इतिहास में क्रूर शासक के नाम से जाना जाता है। बौद्ध अनुयायियों पर अत्याचार करने, आम जनता को कष्ट देने जैसे जघन्य कृत्य करने वाले हूण जाति के निर्दयी राजा मिहिरकुल की कश्मीर विजय के रहस्य में भारतीयों की दया भावना छिपी है।
हूण सरदार मिहिरकुल की क्रूरता
हूणों के प्रारंभिक हमले के समय मालवा राज्य के प्रतापी सम्राट यशोवर्मन ने उसे हराकर उसके विस्तार को रोका था। फिर मगध के राजा बालादित्य ने उसे न केवल रणभूमि में पराजित किया अपितु उसे गिरफ्तार करके कारागार में डाल दिया। मिहिरकुल के आगे बढ़ते कदम वहीं रोक दिए गए परंतु सम्राट बालादित्य की कृपालु माता के आदेश से उसे छोड़ दिया गया। मिहिरकुल तुरंत कश्मीर पहुंचा और राजनीतिक षड्यंत्रों से घाटी का शासन संभाल कर राजा बन बैठा।
उस हूण शासक की क्रूरता का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। एक सैनिक अभियान के समय इसका एक हाथी पीर पंचाल की पहाड़ी से गिर गया। उसकी भयानक चिंघाड़ से राजा इतना रोमांचित और खुश हुआ कि उसने तत्काल ही सौ हाथियों को एक साथ पहाड़ी से गिराने का आदेश दे दिया। यह कृत्य उसके मनोरंजन का हिस्सा था।
भारतीय संस्कृति की शरण में
इस सबके बावजूद मिहिरकुल जैसे अमानवीय वृत्ति वाले व्यक्ति को भी भारत के श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की शरण में आना पड़ा। कश्मीर में शैव मत इतना प्रभावी एवं ठोस था कि शिव के उपासकों की संगठित शक्ति और कार्यक्षमता ने मिहिरकुल को शिव की शरण में आने के लिए बाध्य कर दिया। उसने न केवल शैवमत को अपनाया, बल्कि प्रसिद्ध मिहिरेश्वर मंदिर की भी स्थापना की। यह मंदिर आजकल पहलगाम में मामलेश्वर नाम से जाना जाता है। इस प्रकार मिहिरकुल और उसकी हूण जाति का भी कश्मीरियों ने भारतीयकरण करके उन्हें शैवमत का अनुयायी बनाया।
इस तरह भारत में आक्रमणकारियों को पूर्णतया परास्त करके उन्हें भारतीय संस्कृति और यहां के जीवन मूल्यों से प्रभावित करते हुए उन्हें अपने साथ एकरस करने का अति श्रेष्ठ कार्य कश्मीर की पावन एवं आध्यात्मिक भूमि पर ही प्रारंभ हुआ।
भारतीय बन गया विदेशी हमलावर
राजा जलौक के पश्चात् लगभग तीन शताब्दियों तक कश्मीर में राज्य व्यवस्था तो चली परंतु कोई प्रतिभाशाली राज्य प्रमुख नहीं रहा। इस प्रकार की अस्त-व्यस्त परिस्थितियों का लाभ उठाकर कुषाणों ने कश्मीर पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। राजतरंगिणी के अनुसार 'कुषाण शासकों की परंपरा में प्रसिद्ध तीनों राजाओं हुष्क, जुष्क और कनिष्क की राष्ट्रीयता तुर्क थी। इन तीनों राजाओं ने कनिष्कपुर, हुष्कपुर एवं जुष्कपुर नामक नगरों का निर्माण किया। राजनीति, कूटनीति और सैन्य अभियान की दृष्टि से कनिष्क सबसे अधिक योग्य एवं शक्तिशाली सम्राट सिद्ध हुआ। उसने अपने कुशल नेतृत्व और कश्मीरियों के भुजबल से अपने साम्राज्य को पूरे उत्तर पश्चिम भारत से मध्य एशिया के दूरस्थ क्षेत्रों तक बढ़ा लिया।
कनिष्क के इन सैनिक अभियानों में कश्मीर के लोगों की वीरता एवं बुद्धिबल के योगदान का अपना विशेष स्थान है। जलौक के प्रयासों से बौद्धमत के अनुयायी पुन: भारतीय संस्कृति से जुड़कर पूर्णतया राष्ट्रभक्त हो गए। कश्मीर के विद्वानों ने कनिष्क को अपनी तीव्र बुद्धि से प्रभावित कर लिया। अनेक स्थानीय सैनिक अधिकारियों की शूरवीरता का लोहा भी उसने माना। अत: बुद्धि एवं शारीरिक बल के आगे कनिष्क ने समर्पण कर दिया। यह विदेशी हमलाकर भारतीय हो गया।
कुषाण जाति
तुर्क राष्ट्रीयता वाले कनिष्क ने बौद्धमत को अपनाकर कश्मीर को इस मत के प्रचार-प्रसार का शक्तिशाली केन्द्र बना दिया। इस तरह बौद्धमत कश्मीर राज्य का मान्यता प्राप्त पंथ घोषित कर दिया गया। कनिष्क ने तृतीय अंतरराष्ट्रीय बौद्ध परिषद् (महासम्मेलन) का आयोजन कश्मीर में किया था। उस समय लंका, बर्मा, जावा में बौद्धमत फैल गया था। कनिष्क के प्रयासों से ही बौद्धमत के प्रचारक (कश्मीरी) तिब्बत, एशिया एवं चीन तक पहुंच गए थे। इस मत का प्रसार 372 ईसवी में कोरिया और 559 ईसवी में जापान में हुआ। यह कश्मीर की विश्व को देन है।
कनिष्क का बसाया कनिष्कपुर आज कनिसपुर के नाम से जिला बारामूला, कश्मीर में प्रसिद्ध है। इस तरह कनिष्क द्वारा बौद्धमत अपनाने के साथ कुषाण जाति के भारतीयकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो गई। कुषाण लोग भारतीय समाज में पूरी तरह घुल-मिल गए। सभी तुर्क कुषाण भारतीय जीवन मूल्यों में आत्मसात कर लिए गए।
राष्ट्रवादी शक्तियों का युगधर्म
विश्व के सबसे प्राचीन एवं प्रथम राष्ट्र भारत के इतिहास के इस सत्य की समीक्षा करना आज के संदर्भ में आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि जब भारत का राष्ट्रीय समाज शक्तिशाली एवं संगठित था, उस समय विदेशी आक्रांताओं को पूर्णतया आत्मसात करके उनका भारतीयकरण कर लिया गया। परंतु जब यहां का समाज विघटित, निस्तेज और शक्तिहीन होना प्रारंभ हुआ, विदेशी हमलावर विजयी हुए। इन क्रूर विदेशी जातियों का वर्चस्व स्थापित हुआ ओर बलात मतान्तरण का काला युग प्रारंभ हो गया। भारत के भाल कश्मीर का भी यही दुखदायी इतिहास है।
कश्मीर के इस दुखदायी इतिहास की विदेशनिष्ठ धारा को बदलकर पुन:दिग्विजयी संस्कृति की प्रतिष्ठापना करना आज की राष्ट्रवादी शक्तियों का युगधर्म है। संगठित एवं शक्तिशाली भारतीय समाज ही इस युगधर्म को निभाने में सक्षम होगा। देवभूमि कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर को बचाने का यही एकमात्र मार्ग है।
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