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पुणे में सेवा संगम
सम्पन्न और शक्तिशाली समाज खड़ा करें
–भैयाजी जोशी, सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ
गत 5 व 6 मई को पुणे में सेवा संगम आयोजित हुआ। इसका उद्घाटन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया। इस अवसर पर पश्चिम महाराष्ट्र प्रान्त संघचालक डा. अशोकराव कुकड़े सहित अनेक गण्यमान्य जन उपस्थित थे। संगम में पश्चिमी महाराष्ट्र प्रान्त में सेवा के क्षेत्र में कार्यरत 86 संस्थाओं के 345 कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। उनके द्वारा चलाए जा रहे सेवा कार्यों की झलक दिखाने के लिए एक चित्र प्रदर्शनी भी लगाई गई। प्रदर्शनी का उद्घाटन 'प्राज फाउंडेशन' की कार्याध्यक्ष सुश्री परिमल चौधरी ने किया। संगम का समापन 6 मई को हुआ।
इस अवसर पर श्री भैयाजी जोशी ने कहा, 'सेवा करना भारत और भारतवासियों के लिए नया नहीं है, लेकिन ईसाई संगठनों के कारण सेवा को लेकर भ्रांति फैली हुई है। श्री वेदव्यासजी ने भी सभी पुराणों का सार बताते हुए 'परोपकारं पुण्याय पापाय परपीड़नम्' कहा था और हमारे श्रेष्ठ संतों ने भी उसी को अपनी-अपनी भाषा में दोहराया था। अत: सेवा तो भारत के लोगों के जीवन में है और बड़ी सरलता से वे सेवा करते हैं।
अंग्रेजों के काल में कुछ कानून बने तो सेवा करने वाली संस्थाओं का पंजीयन अनिवार्य हो गया। इसके मूल में परस्पर अविश्वास का ही वातावरण हो सकता है, अन्यथा सेवा करने के लिए न तो संस्था की, न धन की आवश्यकता है। अगर किसी चीज की आवश्यकता है तो वह है मानसिकता।
उन्होंने कहा कि सेवा की आवश्यकता किसी समाज में निर्माण हो यह अच्छी स्थिति नहीं हो सकती। यह सामर्थ्यशाली समाज की सही पहचान नहीं है। अत: सेवा कार्य प्रारंभ करते समय उसको बंद करने की भी तारीख तय होनी चाहिए। मतलब हमारा उद्देश्य सेवा कार्यों के माध्यम से एक संपन्न, समर्थ और शक्तिशाली समाज खड़ा करना होना चाहिए।
सेवितों को चार श्रेणियों में विभाजित कर श्री भैयाजी ने कहा हर श्रेणी के लोगों की समस्याएं भिन्न हैं। पहली श्रेणी में वे लोग हैं, जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं। दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग हैं, जिनका समाज में कोई स्थान ही नहीं है। तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं, जो अस्पृश्यता, जातिभेद और ऊंच-नीच के शिकार हुए हैं। चौथी श्रेणी में वे वनवासी बंधु हैं, जो जंगलों में, गिरि-कंदराओं में रहते हैं। ये सभी अपने समाज के अंग हैं और इनका दुर्बल रहना, वंचित रहना, अभावग्रस्त रहना समाज के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। इनके जीवन में आनंद निर्माण करना हमारा ध्येय होना चाहिए।
प्रारंभ में श्री अनिल व्यास ने प्रास्ताविक भाषण में सेवा संगम की जानकारी दी। पश्चिम महाराष्ट्र प्रान्त में कुल 1038 सेवा कार्य चलते हैं, जिनमें 319 शिक्षा, 388 स्वास्थ्य, 43 सामाजिक तथा 288 स्वावलंबन के क्षेत्र में चलते हैं। सुषमा पाचपोर
कश्मीर के प्रसिद्ध माता क्षीर भवानी मेले (29 मई) पर विशेष
क्षीर भवानी की अद्भुत कहानी
अभिनव
कश्मीर घाटी में सनातन धर्म के कई प्रमुख तीर्थ विराजमान हैं। इन सभी तीर्थों में माता क्षीर भवानी के मंदिर का विशिष्ट स्थान है। श्रीनगर से सोनमर्ग व बालटाल जाने वाले मार्ग पर श्रीनगर से लगभग 30 कि.मी. दूर गांदरबल नामक कस्बा बसा हुआ है। इस कस्बे व मुख्य मार्ग से 3 कि.मी. अंदर जाने पर माता भवानी का यह तीर्थ मिलता है। माता क्षीर भवानी माता पार्वती का ही एक रूप है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां पर शिव व शक्ति की पूजा एक साथ की जाती है। मंदिर प्रागण में एक सप्तकोणीय सरोवर के मध्य में एक छोटे से चबूतरे पर शिवलिंग व मां भवानी की प्रतिमा सुशोभित है। श्रद्धालु लगभग आठ फुट की दूरी से भगवान के दर्शन करते हैं। इस सरोवर में परम्परानुसार दूध व खीर चढ़ाई जाती है। इसी कारण यहां सरोवर का रंग दूध के रंग जैसा है। वैसे यह मान्यता है कि इस सरोवर का रंग बार-बार बदलता है, जो शुभ-अशुभ का संकेत देता है। खीर का भोग लगने व प्रसाद के रूप में खीर ही मिलने के कारण इस तीर्थ को क्षीर भवानी या खीर भवानी कहा जाता है।
माता का यह स्थान त्रेतायुग से स्थापित माना जाता है। कहा जाता है कि महाबली रावण ने जब भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न कर लिया तो उसने माता जगदम्बा की तपस्या आरंभ की। क्यों कि रावण जानता था कि यदि मां दुर्गा उससे प्रसन्न हो गईंर् तो ब्रह्माण्ड की कोई भी शक्ति उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगी। घोर तप द्वारा रावण ने मां पार्वती को मना लिया और उनसे प्रार्थना की कि वे लंका के राज्य को समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाने के लिए वहां निवास करें। देवी ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे लंका द्वीप के उत्तर भाग के मध्य में एक कुंड, जो नागों से आवर्त था, वहां जगदम्बा श्यामा तामसी रूप में प्रतिष्ठित हुईं। इसके पश्चात् रावण इनकी पूजा राक्षसी परम्परा के अनुरूप करने लगा। परन्तु मां श्यामा राक्षसों के व्यवहार से क्रोधित हो गईं। त्रेता युग आने पर जब भगवान राम लंका पर आक्रमण करने वाले थे तब मां अंबे ने वहां से जाने का निर्णय लिया। चंूकि देवी के वहां रहने से रावण का अंत संभव न था अत: मां श्यामा ने हनुमान जी को उन्हें सती देश (कश्मीर) ले चलने को कहा।
360 नागों सहित देवी को लेकर हनुमान जी ने कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। सर्वप्रथम मां का पदार्पण विष्णु तीर्थ पर हुआ। जहां रम्यवन स्थली की तलहटी में मध्यम ग्राम में उतरकर उन्होंने विश्राम किया। फिर देवसर गांव (खन्न भरनी) तदन्तर लुटकीवर (अनंतनाग), राइथन, वादीपुर, कोटितीर्थ, चण्डीपुर तथा शारदातीर्थ इत्यादि घाटी के सभी प्रमुख तीर्थों का परिभ्रमण करते हुए पवित्र शादीपुर के पास कश्मीर के प्रयागराज कहलाने वाले स्थान पर आकर रुक गईं।
संत भक्तों के हितार्थ तामसी प्रकृति को त्याग भगवती श्यामा सात्विक रूप में प्रतिष्ठित हुईं। यहां उपस्थित कुंड में 15 मात्रिकाओं बीजाक्षरों सहित मां दुर्गा सुशोभित हैं। उनकी पूजा नैवेद्य, दूध, मिष्ठान, खीर तथा पुष्प द्वारा आरंभ हुई।
मंदिर के संदर्भ में एक और उल्लेख मिलता है। जब जगतगुरु शंकराचार्य अपने कश्मीर प्रवास के अन्तर्गत यहां आए। शंकराचार्य बह्म विश्वासी थे। उनका मानना था कि शिव ही अकेले इस सृष्टि को चलाते हैं। इस बीच वे यहां आकर पेचिश से पीड़ित हो गए। भयंकर दुर्बलता ने उन्हें घेर लिया। ऐसी अवस्था में माता ने उन्हें दर्शन देकर शिव के साथ शक्ति के महत्व को समझाया। शंकराचार्य समझ गए कि शक्ति के बिना शिव भी अधूरे हैं। अत: उन्होंने यहां आकर शिव व शक्ति की एक साथ अराधना की। तभी से यहां शिव व शक्ति की एक साथ पूजा की जाती है। क्षीर भवानी के इस मंदिर ने विदेशी व मजहबी उन्मादियों के कई आक्रमण भी सहे। वर्ष 1898 में स्वामी विवेकानंद अपने कश्मीर प्रवास के समय मां के दर्शनार्थ यहां आए। उस समय मंदिर विभिन्न आक्रमणों के कारण खंडित अवस्था में था। यह देख कर उनका मन बहुत विचलित हुआ। ध्यान अवस्था में उन्होंने यहां मां जगदंबा का साक्षात्कार प्राप्त किया। विपरीत परिस्थितियों में भी मां में भक्तों ने श्रद्धा की इस जोत को जगाए रखा। धीरे-धीरे मंदिर ने अपने पुरातन स्वरूप को फिर से प्राप्त कर लिया। अस्सी व नब्बे के दशक में घाटी पर आंतकवाद के गहरे बादल मंडराने लगे। कश्मीरी हिन्दू यहां से पलायन कर गए। उस समय मंदिर पर कई आतंकी हमले हुए। परन्तु भारतीय सेना ने आतंकवादियों को उनके मंसूबों में सफल नहीं होने दिया। यद्यपि मंदिर का प्रांगण भक्तों की भीड़ से खाली हो गया। यहां लगने वाले मेलों में भक्तगण चाह कर भी नहीं आ पाते थे। यहां केवल सेना के जवान ही नजर आते थे। ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे दिन कभी लौट कर वापस नहीं आ पाएंगे। परन्तु समय के साथ-साथ परिस्थितियों में भी परिवर्तन आने लगा। सेना के हस्तक्षेप व स्थानीय लोगों के भी आतंकियों को सहयोग न देने के चलते धीरे-धीरे घाटी में पर्यटकों की चहल-पहल आंरभ हो गई है।
फिर से माता क्षीर भवानी के दर पे श्रद्धालुओं की रौनक दिखने लगी है। माता के दरबार में फिर से मेले लगने लगे हैं। हर वर्ष अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले यात्रियों की संख्या बढ़ने का सीधा प्रभाव माता क्षीर भवानी के दर पर आने वालों की संख्या पर भी पड़ा है। यात्रा के दिनों में यहां भारी संख्या में लोग दर्शन हेतु आते हैं। मंदिर प्रबंध समिति व सेना द्वारा मंदिर का कामकाज बड़े ही सुचारू रूप से चलाया जा रहा है। देश भर में फैले कश्मीरी हिंदू हर वर्ष मेले के दौरान भारी संख्या में यहां माथा टेकने आने लगे हैं। उन सब के सिर इसी मुराद में मां के दर पर झुकते हैं कि उन्हें जल्दी अपने इस बिछड़े वतन में बसने का मौका मिले।
बाल मन
बाल कहानी
आशीष शुक्ला
नागमणि
एक संपेरा था भोलानाथ। उसने अपने पिता से ही सांप पकड़ना और उनका खेल दिखाना सीखा था। उसके पिता बहुत गुणी थे। उन्होंने भोलानाथ को जहरीले से जहरीले सांप का विष उतारने की औषधियां बताई थीं। वह अपने पिता के साथ सांपों का खेल दिखाने यात्राओं पर जाया करता था। बचपन में ही उसने एक नाग पाला था। एकदम काला और बेहद जहरीला। उसका नाम रखा- कालू। कालू के साथ वह अधिकतर समय बिताता था। लोगों के मनोरंजन के लिए उसे तरह-तरह के खेल सिखाता। धीरे-धीरे भोलानाथ और कालू में दोस्ती हो गई।
अचानक एक दिन भोलानाथ के पिता की मृत्यु हो गई। भोलानाथ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। वह दुनिया में अकेला रह गया। वह कालू को लेकर घर से यात्राओं पर निकल पड़ा। रास्ते में उसके नाग के खेल से खुश होकर लोग जो कुछ देते उसी से गुजारा हो जाता था। वह किसी से कुछ मांगता नहीं था। एक बार एक नगर में वह खेल दिखा रहा था तभी उसे पता चला कि एक सेठ को सांप ने काट लिया। वह तुरन्त ही खेल छोड़कर सेठ के घर जा पहुंचा और अचूक औषधि देकर उसे स्वस्थ कर दिया। सेठ ने उसे धन व अनेक उपहार देने चाहे लेकिन भोलानाथ ने इनकार कर दिया। वह कालू के साथ अगली यात्रा पर निकल पड़ा।
धीरे-धीरे इसी तरह भोलानाथ का जीवन बीतता रहा। दोनों को एक-दसूरे से बहुत लगाव हो गया था। कालू के बिना तो वह एक पल भी नहीं रह सकता था। कालू का भी शायद यही हाल था क्योंकि जिस रात भोलानाथ भूखा सोता था उस रात कालू भी निराहार रह जाता था।
ऐसा समय आया जब भोलानाथ और कालू बूढ़े हो चले। भोलानाथ अब बहुत उदास रहा करता था। एक सवेरे उसने कालू की पिटारी खोली तो वह फूट-फूटकर रो पड़ा। कालू के पंख निकल आए थे। भोलानाथ समझ गया कि कालू अब कुछ ही दिन का मेहमान है। सचमुच एक दिन कालू पंख फड़फड़ाता दूर आसमान में उड़ गया। भोलानाथ बहुत रोया। लेकिन जब उसने पिटारी की ओर देखा तो उसका दु:ख कुछ कम हुआ। कालू भोलानाथ के लिए निशानी के रूप में नागमणि छोड़ गया। नागमणि देखकर भोलानाथ की आंखें चमक उठीं। उसने नागमणि जीवन में पहली बार देखी थी। कालू की निशानी मानकर उसने उसे सीने से लगा लिया।
जल्द ही सारे गांव में यह बात आग की तरह फैल गई कि भोलानाथ के पास दुर्लभ नागमणि है। जब यह जमींदार ने सुना तो वह नागमणि लेने को लालायित हो उठा। उसने भोलानाथ के आगे नागमणि के बदले अपार धन देने का प्रस्ताव रखा लेकिन भोलानाथ ने उसे ठुकरा दिया। जमींदार बहुत नाराज हुआ लेकिन भोलानाथ अपने प्रिय कालू की अनमोल निशानी को किसी भी कीमत पर दे न सका।
इस घटना के बाद जल्द ही एक दूसरी घटना घटी। गांव के किनारे वाली नदी में भयंकर बाढ़ आ गई। ऐसा लगता था जैसे सारा गांव डूब जाएगा। उस रात भयानक तूफान आया। घनघोर बादल छाए थे। मूसलाधार बारिश हो रही थी। नदी उफान पर थी। गांव वाले भयभीत थे। लग रहा था मानो सूरज उगने से पहले ही सब कुछ समाप्त हो जाएगा। ऐसे समय में भोलानाथ के घर का दरवाजा खटका। उसने दरवाजा खोलकर देखा तो सामने कुछ गांव वालों के साथ मन्दिर का पुजारी खड़ा था। भोलानाथ के पूछने पर पुजारी ने बताया कि गांव वालों से ग्राम देवता नाराज हैं। उन्होंने मेरे स्वप्न में आकर कहा कि आज रात यह गांव बाढ़ में डूब जाएगा। मेरे प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा कि यदि नदी को कोई अनमोल वस्तु अर्पित करो तो विपत्ति टल जाएगी।
पुजारी की पूरी बात सुनकर भोलानाथ को गुस्सा आ गया। वह समझ गया कि वे लोग अनमोल वस्तु के रूप में नागमणि लेने आए हैं। उसने उन लोगों को नागमणि देने मना कर दिया। पुजारी व गांव वाले हताश होकर वापस लौट गए और भोलानाथ बिस्तर पर आकर लेट गया। उधर नदी में हिलोरें उठ रही थीं और इधर भोलानाथ के मन में। वह गहरे विचारों में खोया था। एकाएक वह उठा और घर के बाहर निकल आया। बाहर घनघोर अंधेरा छाया था। चारों ओर पानी ही पानी था। ऐसा लग रहा था कि सबेरा होने से पहले ही गांव नष्ट हो जाएगा। भोलनाथ के हाथ में नागमणि थी। वह उसके उजाले के सहारे नदी की ओर बढ़ते हुए काली रात में खो गया।
अगली सुबह जब सूरज की किरण फूटी तो मौसम सुहावना था। नदी का जल शान्त था। मानो कुछ हुआ ही न हो। गांव के सभी लोग खुशियां मना रहे थे। लेकिन इस खुशी में एक व्यक्ति शामिल नहीं था और वह था भोलनाथ। भोलानाथ कहां चला गया था किसी को नहीं मालूम।
तपस्वी बालक
ध्रुव
आज से कई हजार साल पहले उत्तानपाद नाम के एक प्रसिद्ध राजा थे। उनकी पत्नी का नाम सुनीति था। वह धार्मिक और पतिव्रता थीं।
जब कई वर्षों तक सुनीति के कोई संतान नहीं हुई तब उनके आग्रह पर राजा ने दूसरा विवाह कर लिया। सुरुचि राजा की दूसरी पत्नी बनी। अब राजा सुरुचि को अधिक चाहने लगे।
सुरुचि का स्वभाव अच्छा न था। वह सुनीति से ईर्ष्या करती थी। सुरुचि को प्रसन्न रखने के लिए ही सुनीति महल के बाहर साधारण मकान में रहने लगी।
कुछ दिनों बाद सुनीति ने ध्रुव को और सुरुचि ने उत्तम को जन्म दिया। राजा दोनों पुत्रों को बहुत प्यार करते थे।
ध्रुव और उत्तम बड़े होने लगे। दोनों भाइयों में आपस में बड़ा प्रेम था। लेकिन सुरुचि ध्रुव को बिल्कुल नहीं चाहती थी। उसे उत्तम के साथ ध्रुव का खेलना भी पसंद नहीं था।
एक दिन ध्रुव अपने पिता की गोद में आकर बैठ गया। पिता प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। इतने में सुरुचि अपने बेटे उत्तम के साथ वहां आई। ध्रुव को राजा की गोद में बैठा देख उसे बहुत क्रोध आया। उसने ध्रुव को राजा की गोद से उतारकर बुरा-भला कहा, 'यदि तुझे राजा की गोद में ही बैठना था तो मेरी कोख से पैदा हुआ होता। फिर कभी तूने ऐसा किया तो मैं तुझे मार डालूंगी।'
छह वर्षीय ध्रुव रोता हुआ अपनी मां के पास चल दिया। उत्तम भी स्नेहवश उसके पीछे-पीछे जाने लगा किन्तु मां ने बलपूर्वक उसे रोक लिया। यह सब देखकर राजा को दुख तो बहुत हुआ लेकिन वह कुछ कह नहीं सके।
उधर, ध्रुव ने अपनी मां के पास पहुंचकर सब बातें बता दीं। मां ने उसे प्यार से गोद में उठाकर समझाया, 'बेटा, भगवान सबसे बड़ा है। वही तुम्हें सबसे ऊंचा आसन देगा।'
यह बात ध्रुव के मन बैठ गई। एक रात वह मां को सोता हुआ छोड़कर भगवान की खोज में निकल पड़ा। वह चलते-चलते एक बीहड़ वन में पहुंच गया। वहां उसे नारदजी मिले। उन्होंने ध्रुव को भगवान के दर्शन करने के लिए तपस्या का मार्ग बताया।
बालक ध्रुव उसी वन में तपस्या करने लगा। वह नारदजी द्वारा बताया गया 'ँ़ नमो भगवते वासुदेवाय'- बारह अक्षरों का मंत्र रात-दिन जपने लगा।
ध्रुव तपस्या में इतना लीन हो गया कि उसे जंगली जानवरों का भी भय नहीं रहा। धीरे-धीरे उसने खाना-पीना भी छोड़ दिया। अब वह केवल हवा पर ही जीवित रहने लगा।
ध्रुव की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भी घबरा उठे। उन्होंने उसे समझा-बुझाकर तपस्या से डिगाना चाहा, पर ध्रुव अटल रहा।
कुछ दिनों में ध्रुव ने एक ही सांस में कई-कई बार मंत्र जपने का अच्छा अभ्यास कर लिया। अब उसने हवा का प्रयोग भी बंद कर दिया। यह उसकी कठिन परीक्षा की घड़ी थी। लेकिन ध्रुव इसमें भी खरा उतरा।
अंत में प्रसन्न होकर भगवान ने उसे दर्शन दिए और अमर पद प्रदान किया।
चारों ओर ध्रुव की चर्चा होने लगी। ध्रुव की खोज करता हुआ उत्तम भी वहीं पहुंच गया। उसने भाई के चरणों में अपना सिर रख दिया और अपनी मां की ओर से क्षमा भी मांगी।
ध्रुव ने भाई उत्तम को गले लगाया। तब तक उनके माता-पिता तथा अनेक नागरिक भी वहां पहुंच गए। ध्रुव ने उन सब को प्रणाम करके आशीर्वाद लिया और उनके साथ वापस आ गया।
राजा ने ध्रुव को राजसिंहासन पर बैठाया। वह स्वयं वन में तपस्या करने चले गए।
आज हम आकाश में उत्तर दिशा की ओर जो ध्रुव तारा देखते हैं, वह अडिग है। कहा जाता है कि यह तारा ध्रुव के अमर पद का प्रतीक है।
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