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प्रदूषण से पस्त प्रकृति

by
May 12, 2012, 12:00 am IST
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प्रदूषण से पस्त प्रकृति

दिंनाक: 12 May 2012 16:14:09

गवाक्ष

शिवओम अम्बर

20 मई प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले सुमित्रा नन्दन पन्त की जन्मतिथि है। कौसानी (उत्तराखण्ड) के रमणीय परिवेश में शैशव व्यतीत करने वाले पन्त जी आगे चलकर छायावाद के चार मणि-स्तम्भों में परिगणित हुए। उन्हें अपनी भाषा की सहज ध्वन्यात्मकता के कारण विशेष सम्मान मिला। डा. हरिवंश राय बच्चन उन्हें 'कवियों में सौम्य सन्त पन्त' कहकर पुकारते थे। अपने अन्तिम दिवसों में उन्होंने अरविन्द-दर्शन की व्याख्या करते हुए 'लोकायतन' जैसे महाकाव्य की भी रचना की, किन्तु हिन्दी साहित्य के सुधी भावक उन्हें प्रकृति के लावण्य पर रीझने वाले, उसमें किसी परमसत्ता की प्रतिच्छवि देखने वाले, उसकी विविध मुद्राओं को चित्रात्मक भाषा में शब्दायित करने वाले गीत-कवि के रूप में ही जानते और मानते रहे। विद्यार्थी जीवन में न जाने कितनी बार इन पंक्तियों को गुनगुनाने का आनन्द लिया है –

स्तब्ध ज्योत्स्ना में जब संसार

चकित रहता शिशु–सा नादान,

विश्व की पलकों पर सुकुमार

विचरते हैं जब स्वप्न अजान

न जाने नक्षत्रों से कौन

निमन्त्रण देता मुझको मौन ?

नक्षत्रों के निर्वाक्‌ आमन्त्रण को अपने अहसास में जीने वाले इस कृती कवि ने खुरदरी कहलाने वाली खड़ी बोली को जो श्रुति-माधुर्य दिया, परिनिष्ठित हिन्दी में कोमल-कान्त पदावली की जैसी सृष्टि की, वह अनूठी है। महाप्राण निराला ने अगर बादल राग गाया, प्रसाद जी ने हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों की चर्चा की, महादेवी 'नीरभरी दु:ख की बदली' बनकर सहृदयों के हृदयों तक पहुंचीं, तो पन्त जी पर्वतपुत्री गंगा के व्यक्तित्व के साथ अनायास आत्मीयता जोड़ सके और उसके माध्यम से जीवन को भी रेखांकित कर सके, जीवन-दर्शन को भी गा सके –

सैकत शैय्या पर दुग्ध धवल

तन्वंगी गंगा ग्रीष्म–विरल

लेटी है श्रान्त क्लान्त निश्चल।

आज की परिस्थितियों में जब पन्त जी के प्रकृति-चित्रण की तरफ दृष्टि डालता हूं, चित्त अवसादग्रस्त हो जाता है। विविध पक्षियों के कलरव से गुंजित, पर्वतों की हिम-शोभा और नदियों के अविरल प्रवाह से समन्वित किसी उल्लासित गीत की लय जैसी प्रकृति आज मानव निर्मित प्रलय के प्रहारों से आक्रान्त है। पर्वतों पर स्थित वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई, अवैध खनन, तीर्थों के 'पिकनिक स्पॉट' बनने से हुआ भयावह प्रदूषण सर्वत्र दिग्भ्रमित मानवीय प्रगति के आत्मघाती आचरण का अभिव्यंजन बन रहा है। न जाने कितने पक्षियों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं और हम नितान्त संवेदनहीन बने  सब कुछ देख रहे हैं। वैज्ञानिक बता रहे हैं कि मोबाइल टावरों से उठती ध्वनि-तरंगें पक्षियों के लिये अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हो रही हैं। नलों में ही आज जब पानी मुश्किल से आता है तब गर्मी में पक्षियों के लिये जगह-जगह पानी रखने की प्रथा स्वाभाविक ही अव्यावहारिक लगेगी, बकौल मुनव्वर राणा –

नये कमरों में अब

चीजें पुरानी कौन रखता है

परिन्दों के लिये शहरों में

पानी कौन रखता है?

सुर्ख सुबहें, चम्पई दोपहरियां और सुआपंखियां शामें गीतों-नवगीतों के संकलनों में समाहित हो गई हैं, वास्तविक जगत में एक विराट् अवसादग्रस्त एकरसता भर शेष है। सही कहते हैं माहेश्वर तिवारी कि हमारे तथाकथित प्रगतिकामी नायकों ने हमसे भारी कीमत वसूली है –

सुबहें – दोपहरें – संध्याएं

छीन रहे हैं लोग,

धरती की उत्सवप्रियताएं

छीन रहे हैं लोग!

      वह गंगा, जिसके छवि-अंकन में पन्त जी को शब्द-साधना की सार्थकता महसूस हुई थी, जो हमारी सांस्कृतिक चेतना की अविराम धारा थी, जिसमें स्नान और अवगाहन ही नहीं, जिसका दर्शन, स्पर्श और जिसके जल का एक बार आचमन भी अद्भुत शान्ति की सृष्टि करता था, वह आज उत्तराखण्ड से लेकर पश्चिम बंगाल तक जिस स्थिति में है, उसके लिये “मानस” की इसी पंक्ति का बिम्ब जागता है –

ज्यों मलेच्छ बस कपिला गाई।

न जाने कितनी अर्थराशि गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर भ्रष्टाचार के सर्वग्रासी मुख में समा गई, कुछ समर्पित सन्त आज भी उसके उपचार की कामना लेकर उपवास कर रहे हैं, किन्तु हर धार्मिक आयोजन में उसके जल का प्रयोग करने वाली और उसकी भयावह स्थिति के प्रति पर्याप्त उदासीन हमारी स्वार्थ केन्द्रित अहंमन्यता वन्यता के स्तर पर आ गई है और गंगा जराजीर्ण होती जा रही है –

खुद में मंगल–पर्व जो खुद में थी त्योहार

वो गंगा है इन दिनों इक दारुण चीत्कार।

प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त छायावादी बिम्ब-विधान को एक तरफ रखकर उन्मत्त आक्रोश की हुंकार में बदल जाते, अगर आज वह अपने परिवेश में पुन: आकर अपनी कविताओं के विषय की विडम्बना का साक्षात्कार कर पाते। उनकी जन्म-तिथि पर उनका पावन स्मरण करते हुए उनके चरणों में अश्रुमयी कविता का अर्घ्य अर्पित करता हूं –

नागफनियों की गली इठला रही है,

वैष्णवी तुलसी यहां कुम्हला रही है।

अर्थ की लिप्सा कला की कुलवधू को,

नग्नता की हाट में बिठला रही है।

फिर कहीं से दर्द के सिक्के मिलेंगे,

ये हथेली आज फिर खुजला रही है।

—————————l   l    l——————-

सच्चे मोती सुख सागर के

समकालीन कविता की एक महत्वपूर्ण विधा है – क्षणिका। क्षण भर में पढ़ी जा सकने वाली कविता-कणिकाओं में चिन्तन-दर्शन और गहन अनुभूति के अभिव्यंजन के अद्भुत समीकरणों का संयोजन संभव है। युवा कवि धर्मेन्द्र गोयल के सद्य: प्रकाशित संकलन 'सच्चे मोती सुख सागर के' (प्रकाशक – अनिल प्रकाशन, 2619, न्यू मार्केट, नई सड़क, दिल्ली – 110006, मूल्य – 150/- रु.) में समाहित अनेकानेक क्षणिकाएं इसका साक्ष्य देती हैं। डा. कुंअर बेचैन ने सही कहा है कि धर्मेन्द्र की ये क्षणिकाएं व्यक्ति का व्यक्ति से, समाज से, प्रकृति से, पशु-पक्षियों से तथा अन्य सभी चीजों से व्यवहार कैसा हो, यह सिखाने का कार्य करती दिखाई देती हैं और विपरीत परिस्थितियों से बच निकलने की प्रेरणा देती है। वस्तुत: प्राचीन काल से ही हमारे साहित्य में काव्य-सूक्तियों और जीवनमूल्यों के वाहक दर्शन-सूत्रों की पर्याप्त मान्यता रही है। कलात्मक सौन्दर्य से युक्त सूक्तियां ऐसी सीपियां होती हैं जिनमें महार्घ मोतियों का निवास होता है। कवि के भावलोक में लहरा रहे सुख-सागर में अवगाहन करके ही इनकी उपलब्धि हो सकती है।

सात्विक संस्कारों को देने वाले, पारिवारिक परिवेश में जीने वाले और आध्यत्मिकता को घुट्टी में पीने वाले धर्मेन्द्र की क्षणिकाओं में एक धर्मप्राण वातावरण में गुंजित -अनुगुंजित शास्त्रीय उक्तियों के काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण की विनम्र चेष्टा है। कहीं-कहीं अनूठी वाग्विभा के कारण ये अन्यन्त प्रभावोत्पादक बन गई हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

मन – वचन – तन

तीनों से करो प्रभु का भजन

भगवान का चिन्तन, मन का भजन है

नाम का गुण–गान, वाणी का भजन है

निष्काम भाव से सेवा, तन का भजन है।

सुषुप्ति में लीन आत्मा को जागृत करने की संकीर्तन – ध्वनियों की तरह है अधिकांश क्षणिकाएं, जो कर्णकटु, कोलाहल से आक्रान्त आज के अवसाद को आस्थापरक आश्वासन देती हैं, भाषा के भोजपत्र पर मंगल-कामना का स्वस्तिक आरेखित करती हैं।

साहित्यिकी

चक्र समय का

घमंडीलाल अग्रवाल

घूमा करता चक्र समय का

बदले दृश्य तमाम!

कभी अंधेरा, कभी उजाला

कभी रात या भोर,

कभी हंसी है, कभी उदासी

बिखरे चारों ओर,

वसुंधरा पर कहीं किसी को

मिलता नहीं विराम!…

आने वाला जाया करता

यूं ही चलती सृष्टि

आंखों को मिल ही जाती है

पल–पल नूतन दृष्टि,

उठने वाला नीचे गिरता

जेब में हो गर दाम!…

कुछ भी स्थिर नहीं जगत में

होता रहता नष्ट,

एक जगह कब ठहरा बोलो

मन के भीतर कष्ट,

आए आस, निराशा भागे

बनते बिगड़े काम!…

साथी कोई नहीं निभाता

पथ में पूरा साथ,

स्वार्थ–सिद्धि के लिए मित्र भी

दें हाथों में हाथ,

सपनों में भर रंग हंसो नित

मिट जाए कोहराम!…

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