संसद में सू ची
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संसद में सू ची

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May 5, 2012, 12:00 am IST
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दृष्टिपात

दिंनाक: 05 May 2012 17:21:38

दृष्टिपात

आलोक गोस्वामी

दुनियाभर में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना की प्रतीक बन चुकीं म्यांमार में विपक्ष की नेता आंग सान सू ची ने 2 मई को म्यांमार की संसद में सांसद के तौर पर शपथ लेकर देश की राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ ला दिया। सू ची उस संसदीय तंत्र का हिस्सा बनी हैं, जो उन्हीं फौजी जनरलों ने कायम किया है जिन्होंने तानाशाही के खिलाफ सू ची की लंबी लड़ाई में ज्यादातर वक्त उन्हें नजरबंद रखा था, जिसमें बिना वर्दी के फौजियों की भरमार है। उनके संसद में आने से माना जा रहा है कि सुधार प्रक्रिया में तेजी आएगी।

1962 में फौजी तख्ता पलट से पहले ब्रिटिश उपनिवेश रहे म्यांमार में राजनेताओं की रिहाई और मीडिया पर जकड़ा शिकंजा ढीला होने सहित बड़े बदलावों का इंतजार है। म्यांमार के स्वतंत्रता सेनानी आंग सान की बेहद लोकप्रिय बेटी सू ची से देश में बदलावों का बेसब्री से इंतजार कर रहे बर्मी लोगों ने बहुत उम्मीदें बांधी हुई हैं और उन्हें लोग लोकतांत्रिक आजादी की एकमात्र किरण के रूप में देखते हैं। 1991 में नोबुल शांति सम्मान पा चुकीं सू ची आधी सदी तक राज करने वाले फौजी शासन के पूर्व सदस्यों की बहुलता वाली संसद में  फौजियों के बनाए संविधान में कैसे फिर से आमूल बदलाव करवा पाएंगी, इसके जवाब में उन्होंने कहा कि यह तो वक्त ही बताएगा।

हालांकि संसद का सत्र दो दिन पहले ही खत्म हो चुका था, लेकिन सू ची और उनकी नेशनल लीग फॉॅर डेमोक्रेसी के सभी सदस्यों को पद संभलवाने के लिए सत्र आगे बढ़ाया गया था। म्यांमार का मौजूदा संविधान फौज को राजनीति में ज्यादा असरदार भूमिका देता है। पर विडम्बना यह है कि सू ची को उसी संविधान की शपथ लेनी पड़ी जिसे उनकी पार्टी चुनावी वायदे के तहत बदलना चाहती है।

लीबिया में इस्लामवादियों की बन आई

तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी के रक्तरंजित अंत के बाद बेहद उथल-पुथल के दौर से गुजरे लीबिया में अंतरिम शासकों ने अब अपने ही बनाए कायदों को पलटते हुए इस्लामवादी राजनीतिक दलों को चुनाव में भागीदार होने की छूट दे दी है। जून 2012 में वहां नई सरकार बनाने को चुनाव होने हैं, जिससे पहले अंतरिम सत्ता ने कई नए कानून बनाए हैं।

पहले गद्दाफी की दशकों की तानाशाही के तहत तमाम सियासी पार्टियों पर पाबंदी थी, इसलिए गद्दाफी के अंत के वक्त लीबिया में राजनीतिक तंत्र के कामकाज का दायरा बेहद सीमित था। पिछले महीने वहां की अंतरिम सत्ता परिषद ने यह बात फैलाई थी कि वह मजहब, जनजाति और नस्ल आधारित सियासी दलों के चुनाव में भाग लेने पर पाबंदी लगाना चाहती है। इससे इस्लामवादियों में बेहद बेचैनी थी, क्योंकि उत्तरी अफ्रीका, ट्यूनीशिया, इजिप्ट और मोरक्को में क्रांति के बाद हुए चुनावों में इस्लामवादियों ने बेहतर प्रदर्शन किया था। लीबिया में भी उसका असर दिखने की संभावनाएं हैं। इजिप्ट में एक राजनीतिक ताकत बन चुका 'मुस्लिम ब्रदरहुड' लीबिया में भी प्रमुख भूमिका निभा सकता है।

बहरहाल, मजहब आधारित सियासी दलों के चुनाव में भाग लेने पर लगी पाबंदी हटने से तमाम इस्लामवादी मजहबी पार्टियां चुनाव में उतरेंगी। गद्दाफी के फरमाबरदारों को सबक सिखाने के लिए भी अंतरिम शासकों ने नए फरमान बनाए हैं, जैसे, गद्दाफी के प्रचार तंत्र में भाग लेने का दोषी पाने पर उम्र कैद; गद्दाफी के 200 समथकर्ों, रिश्तेदारों, मंत्रियों और फौजी कमांडरों की संपत्ति कुर्क करना आदि। लीबिया में गद्दाफी की चार दशक की तानाशाही के खिलाफ गुस्सा अब भी उबल रहा है।

शकील मुसीबत में

एबटाबाद (पाकिस्तान) में जिस घर में अल कायदा का अगुआ ओसामा बिन लादेन रह रहा था, उसे ढहाने वाले शकील अहमद यूसुफजई को तालिबानी 'देख लेने' की धमकियां दे रहे हैं। लेकिन शकील को 'अपने किए पर फख्र' है। शकील ने करीब 2.25 लाख रु. देकर पाकिस्तान सरकार से उस घर को ढहाने का ठेका लिया था। लादेन करीब छह साल उस घर में रहा था। दो महीने पहले शकील ने उस घर को ढहाया था और अब उसकी ईंटें और मलबा तमाम पाकिस्तान से वहां आने वाले तमाशबीनों को बतौर यादगार दे रहा है। 47 साल के शकील का कहना है कि उसे पाकिस्तानी तालिबान की धमकी भरी चिट्ठियां मिलती रही हैं, लेकिन वह खुश है कि उसने अपने मुल्क पर लगे दाग की निशानी मिटायी है। 'इस मकान को ढहाकर हमने दुनिया को जताया है कि हम आतंक के खिलाफ हैं', शकील कहता है। उसे उम्मीद है कि मकान का मलबा बेचकर उसके पैसे की वसूली हो जाएगी।

उधर एक सर्वेक्षण ने बताया कि इजिप्ट, पाकिस्तान, तुकर्ी और लेबनान सरीखे मुस्लिम देशों में ज्यादातर लोग अल कायदा संजाल को लेकर नकारात्मक मत रखते हैं। 19 मार्च से 13 अप्रैल के बीच 'प्यू रिसर्च सेंटर के ग्लोबल एटिट्यूड प्रोजेक्ट' द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण के अनुसार, पाकिस्तान में 13 फीसदी लोग ही अल कायदा के प्रति झुकाव के थे जबकि 55 फीसदी के ख्याल उसके विरुद्ध थे, करीब 31 फीसदी ने तटस्थ रुख दिखाया।

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