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सुरक्षा और विकास का स्वर्ण युग

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May 5, 2012, 12:00 am IST
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कश्मीर में कर्मयोगी सम्राट अवन्तिवर्मन का राज्यकालसुरक्षा और विकास का स्वर्ण युग

दिंनाक: 05 May 2012 17:00:36

 

गौरवशाली इतिहास-3

कश्मीर में कर्मयोगी सम्राट अवन्तिवर्मन का राज्यकाल

नरेन्द्र सहगल

शांति, विकास और न्याय की दृष्टि से कश्मीर के इतिहास में अवन्तिवर्मन का अठ्ाइस वर्षों का शासनकाल विशेष महत्व रखता है। इस पूरे कालखंड में सम्राट अवन्तिवर्मन ने कोई युद्ध नहीं किया। रणक्षेत्र में अपना समय बिताने के स्थान पर उसने अपने राज्य के विकास कार्यों की ओर ध्यान दिया।

प्रारंभ से ही कश्मीर में बाढ़ इत्यादि प्राकृतिक प्रकोपों के कारण कृषि पर बुरा असर पड़ता था। पैदावार कम होने की वजह से अनेक बार कश्मीर के लोगों को अकाल का सामना करना पड़ा था। इस समस्या ने अवन्तिवर्मन के शासनकाल में और भी उग्र रूप धारण कर लिया। उत्पादन कम होने के कारण भयानक अकाल पड़ा।

उस समय सुय्या नाम के एक कुशल इंजीनियर ने अवन्तिवर्मन के पास संदेश भेजकर इस सारी समस्या को जड़ से समाप्त करने हेतु अपनी सेवाएं अर्पित कीं। इस योग्य इंजीनियर ने सारे प्रदेश में उन स्थानों का निरीक्षण किया था, जहां से वर्षा का पानी रुककर बाढ़ का रूप लेता था।

लोकशक्ति का सदुपयोग

अवन्तिवर्मन ने इस युवा इंजीनियर को यह कार्य सम्पन्न करने की सहर्ष आज्ञा प्रदान की। इस योजना हेतु पर्याप्त धन भी राजकोष से दिया गया। दंत कथा के अनुसार सुय्या ने धन (मोहरों) आदि के कई गट्ठर बनाए और उन्हें सब के सामने नदियों के अवरोधों में पानी की गहराई में फेंक दिया। अकाल से पीड़ित भूखे और निर्धन लोगों को जब यह पता चला कि सुय्या धन को नदी में फेंक रहा है तो वह उसे खोजने एवं लूटने हेतु पानी में उतरने लगे। रुपयों की तलाश में उन्होंने नदी के पत्थरों को निकालकर बाहर फेंकना प्रारंभ किया। इस तरह से अवरोध निकल गए और पानी का बहाव तेज होने के कारण बाढ़ का प्रकोप समाप्त हो गया।

उपरोक्त दंत कथा से इतना समझना होगा कि सुय्या नामक इंजीनियर ने लोकशक्ति के बल पर इस समस्या का समाधान निकाला। नदी के दोनों किनारों पर पक्के बांध बनाए गए और जलधारा व्यवस्थित हुई। अनेक सिंचाई योजनाएं बनीं। कृषि सुधार हुआ और उत्पादन बढ़ा। फलस्वरूप मूल्यों में भारी गिरावट आई। सुय्या ने अपनी सूझबूझ से वितस्ता (झेलम) नदी के बहाव को भी व्यवस्थित करने में सफलता प्राप्त कर ली।

आज की प्रसिद्ध बहुद्देशीय नदी घाटी योजना की पृष्ठभूमि सुय्या ने अनेक वर्षों पूर्व तैयार कर डाली थी। इन सब राष्ट्रीय गतिविधियों में अवन्तिवर्मन ने पूर्ण सहयोग दिया। अपनी प्रजा की भलाई एवं देश के सामूहिक विकास कार्यों में उसकी तत्परता और व्यस्तता इतनी रही कि उसे ललितादित्य की भांति सैनिक अभियानों के लिए समय ही नहीं मिल सका।

प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा

अवन्तिवर्मन के भावुक मन में प्राकृतिक सम्पदा के प्रति विशेष लगाव था। यही कारण है कि पर्वतों, नदियों, वनों एवं पशु पक्षियों के साथ उसकी सहानुभूति और स्वाभाविक प्रेम के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। उसके द्वारा दिये गए सरकारी आदेशों और कार्यान्वित की गई भिन्न-भिन्न योजनाओं से उसके अन्तर्मन में छिपी पीड़ा की झलक मिलती है। उसके शासन में जीव हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध था।

आधुनिक युग में प्रकृति संरक्षण की जितनी भी योजनाएं और प्रकल्प चल रहे हैं अवन्तिवर्मन और उसके इस क्षेत्र के विशेषज्ञ सुय्या को इनका अग्रदूत मान लेना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दोनों ने अपने सभी साधनों और शक्तियों को प्रकृति की अमूल्य निधि की सुरक्षा में लगा दिया था।

सम्राट अवन्तिवर्मन के इस श्रेष्ठ कार्य की प्रशंसा कल्हण ने राजतरंगिणी में बड़े ही मार्मिक शब्दों में की है। वह कहता है कि 'इस समय शाड़य मछली बिना डर के ठंडे पानी को छोड़कर नदी तट पर आकर अपनी पीठ पर सूरज की धूप ले लिया करती थी।'

जनकल्याण का युग

अवन्तिवर्मन ने विकास, निर्माण और जनकल्याण के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रजा को उन्नति के पूरे अवसर और सुविधाएं उपलब्ध करवाईं। उसने अपने मित्रों, सम्बंधियों और मंत्रिमण्डल के सदस्यों को भी निर्माण कार्यों में जुट जाने हेतु प्रेरित किया। प्रधानमंत्री सुरा ने प्रसिद्ध डल झील के तट पर एक विशाल शूरवीर मंदिर और अति सुन्दर शूर मठ भी बनवाया।

सम्राट ललितादित्य के समय बने विशाल मार्तण्ड मंदिर को और भी भव्य स्वरूप देकर विश्व प्रसिद्ध धर्मस्थल बनाने में अवन्तिवर्मन का बहुत योगदान रहा। इस कलाप्रेमी सम्राट के समय कश्मीर में सम्पन्न हुए निर्माण कार्य ही वर्तमान पर्यटन स्थलों का आधार हैं। अवन्तिवर्मन के समय धर्मपरायणता और प्रकृति के संरक्षण के प्रति जागरूकता थी। अवन्तिवर्मन ने स्वयं भी अनेक मठ, मंदिर अपनी देखरेख में बनवाए। उसके द्वारा बनवाए गए दो वैभवशाली मंदिर अवन्तीश्वर और अवन्तीस्वामिन के खंडहर आज भी हमारे देश के प्राचीन वैभव के ऊंचे शिखरों का परिचय देते हैं। जो भी पर्यटक पहलगांव आता है, वह अवन्तिपुर में इन मंदिरों के दर्शनार्थ जरूर जाता है।

राजदरबारी षड्यंत्र विफल

अवन्तिवर्मन का दायां हाथ कहे जाने वाला उसका प्रधानमंत्री सुरा एक चतुर, कुशल और निष्ठुर मनोवृत्ति वाला अधिकारी था। राजदरबार में विद्रोह के षड्यंत्र चल रहे थे। अवन्तिवर्मन के विरुद्ध विषवमन करके उसकी प्रशासनिक व्यवस्था को चूर-चूर करने के उद्देश्य से राजा के भाइयों ने ही विद्रोह की चिंगारी को सुलगा दिया। इन लोगों ने राजदरबार की एक नर्तकी को अवन्तिवर्मन के कत्ल के लिए तैयार कर लिया। योजनानुसार नर्तकी अपने वस्त्रों के नीचे एक तेज कटार छिपाकर ले गई। उसके शर्मीले अंदाज को देखकर प्रधानमंत्री सुरा चौकन्ने हो गए। उन्होंने राजा को भी इशारे से नर्तकी के घृणित इरादों का संकेत दे दिया।

अवन्तिवर्मन और सुरा दोनों चाहते तो नर्तकी को यमलोक पहुंचा सकते थे। परंतु दोनों के मन में नारी के प्रति मातृभाव था। प्रधानमंत्री सुरा के इशारे से राजदरबार के एक सुरक्षाकर्मी ने नर्तकी को गिरफ्तार कर लिया। नर्तकी ने तेज कटार अपने पेट में मारनी चाही परंतु सफल नहीं हुई। प्रधानमंत्री सुरा इस षड्यंत्र की तह में जाना चाहते थे। इसी मंतव्य से उसने नर्तकी को राजा से प्राणदान देने का आग्रह किया।

प्राणदान मिल गया, नर्तकी भाव विभोर हो उठी। उसने सारे षड्यंत्र को उगल दिया। राजा के दोनों भाइयों ने राजदरबार से भागने की कोशिश की, सुरा ने स्वयं आगे बढ़कर एक भाई को दबोच लिया। दूसरा भाई राजदरबार के एक सैनिक के द्वारा मार दिया गया। सुरा की सूझबूझ से राजा के प्राण बचे और षड्यंत्र विफल हो गया।

विदेश प्रेरित देशद्रोह

इस षड्यंत्र को समाप्त करने के बाद सुरा ने एक और अराष्ट्रीय व धर्मविरोधी कार्रवाई को तहस-नहस किया। उन दिनों कश्मीर में डामर नाम की एक जाति विदेशियों के विशेषतया अरबों, तुकर्ों के इशारे पर सामाजिक अव्यवस्था फैलाने के इक्के-दुक्के कृत्य करती रहती थी। धार्मिक एवं सहिष्णु होने के कारण अवन्तिवर्मन एवं सुरा दोनों का प्रभाव समाज पर बढ़ता जा रहा था। इसी को समाप्त करने हेतु डामरों ने धार्मिक स्थलों, मंदिरों इत्यादि की जमीनों पर जोर-जबरदस्ती से कब्जे करने प्रारंभ कर दिए।

इस प्रकार के जघन्य कार्यों के समय अनेक प्रकार के असामाजिक तत्व भी बहती गंगा में हाथ धोने के लिए आ जाते हैं। डामरों की इस योजनानुसार मंदिर के पुजारियों के कत्ल, सम्पत्ति को लूटना, धार्मिक नागरिकों को परेशान करना एवं गोशाला से गायों को भगाना प्रारंभ हो गया। मंदिरों को तोड़ना और कब्जा करने जैसी घटनाएं बढ़ने लगीं। आज पाकिस्तान और चीन की सहायता से जिहादी आतंकवादी एवं हिंसक नक्सलवादी ऐसी ही राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं।

कूटनीतिक बल प्रयोग

प्रशासन की ओर से प्रत्येक प्रकार की कोशिश नाकाम हो गई। राज्य के सुरक्षा कर्मचारी जितनी सख्ती करते डामर लोग उतने ही उद्दंडी और उपद्रवी हो जाते। राजा ने अपने प्रधानमंत्री सुरा को सेना की मदद से डामरों को कुचल डालने की सलाह दी। मंदिरों, धर्मशालाओं, गोशालाओं यहां तक कि विद्यापीठों तक में घुसे इन राष्ट्रविरोधी तत्वों को खदेड़ना अत्यंत आवश्यक था।

डामरों के अत्याचारों से जनमानस त्राहि-त्राहि कर रहा था परंतु प्रधानमंत्री सुरा अभी सीधे टकराव के पक्ष में नहीं थे। सेना सीमाओं पर तैनात थी। विदेशी हमलावरों का खतरा बढ़ रहा था। इसलिए सुरा मात्र सुरक्षा बलों और अर्धसैनिक बलों के साथ ही इस आतंक को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे। उनके मतानुसार डामरों को कूटनीति एवं बल दोनों से दबाना चाहिए।

राष्ट्रघातक शक्तियां परास्त

प्रधानमंत्री ने एक योजना बना डाली। डामरों के सबसे बड़े नेता थामर को बातचीत के लिए बुलाया गया। डामरों को कुछ जमीन-जायदाद एवं उनके नेताओं को जागीरें देना तय हो गया। यह भी तय हुआ कि डामरों का एक महासम्मेलन होगा जिसमें राजा की ओर से भोज दिया जाएगा। भुतेश (भूथर) स्थित शिव मंदिर के प्रांगण में यह कार्यक्रम होना तय हुआ। निश्चित दिन और समय पर डामरों के सभी छोटे-बड़े नेता अपने चुने हुए कार्यकर्त्ताओं के साथ मंदिर के विशाल प्रांगण में एकत्रित हो गए।

क्योंकि समझौता हो चुका था और सहभोज के अवसर पर डामर अपनी जीत का विजयोत्सव मनाने हेतु आए थे इसलिए सभी बिना शस्त्र इत्यादि के ही आए। और पूर्व योजनानुसार सुरा के आदेश से सुरक्षाबलों ने डामरों को चारों ओर से घेर लिया। चारों ओर से तीरों की बौछार प्रारंभ हो गई। एक भी डामर को जिंदा वापस नहीं जाने दिया। सारा आतंक समाप्त हो गया। इस घटना के पश्चात् अनेक वर्षों तक किसी ने मंदरों की ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं की।

अमानवीय विचारदर्शन का युग

कश्मीर में सुरक्षा, विकास और न्याय का यह स्वर्णयुग तेहरवीं शताब्दी के अंत तक रहा। इस कालखंड में आध्यात्मिक, शैक्षणिक संस्थानों का दूर दराज तक निर्माण हुआ। शैवमत, बौद्धमत, वैदिक संस्कृति एवं संस्कृत भाषा का अंतरराष्ट्रीय केन्द्र था महर्षि कश्यप का कश्मीर। परंतु चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ से विदेशी हमलावरों तुकर्ों, अफगानों और मुगलों के अमानवीय असभ्य और खूनी अभियानों ने मानवीय संस्कृति के इन उद्गम स्थलों को बर्बाद करके कश्मीर का चेहरा बिगाड़ दिया। भारतीय संस्कृति के इन अनूठे प्रतीकों, स्मृतियों और ध्वंसावशेषों को देखकर इन्हें तोड़ने और बर्बाद करने वाले जालिम यवन सुल्तानों और उनके कुकृत्यों का परिचय मिलता है। यह टूटे और बिखरे खण्डहर जहालत और अमानवीय विचार दर्शन का जीता जागता सबूत है। अत: जहालत के इन कलंकित चिन्हों को मिटाकर फिर से सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों का निर्माण हो ऐसी प्रचंड जन इच्छा जाग्रत करने की आवश्यकता है।

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