साहित्यिकी
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साहित्यिकी
सिख पंथ के दसवें गुरु श्री गोबिन्दसिंह जी का व्यक्तित्व अपने पूर्ववर्ती गुरुओं से कई अर्थों में अलग और विलक्षण था। उन्होंने एक ओर जहां खालसा पंथ की स्थापना कर सिख पंथ को एक नया आयाम दिया, वहीं उनके द्वारा रचित विपुल साहित्य मातृभूमि भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना को आत्मसात करने के लिए प्रेरित भी करता है। कुछ समय पूर्व प्रकाशित पुस्तक 'गुरु गोबिन्दसिंह के काव्य में संस्कृति और राष्ट्रीयता' में इसी तथ्य और सत्य को उभारने का प्रयत्न किया गया है। लेखक जीत सिंह 'जीत' ने गुरु गोबिन्द सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में विद्यमान विलक्षणताओं को पूरी सिद्धता से प्रस्तुत किया है। कुल चार अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में क्रमश: गोबिन्द सिंह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व, संस्कृति के स्वरूप और उसके प्रमुख उपकरण, संस्कार, पर्वोत्सव और ललित कलाओं के साथ ही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में गुरु गोबिन्दसिंह के संदेश को संकलित कर संक्षिप्त रूप में व्याख्यायित किया गया है।
पुस्तक के पहले अध्याय में उस युग के परिवेश के बारे में लेखक ने प्रकाश डाला है जिसमें गुरु गोबिन्द सिंह का जीवन आगे बढ़ा। उस समय की परिस्थितियां बहुत प्रतिकूल थीं, भारत की मूल चेतना पीछे छूट रही थी, मुस्लिम शासकों की हिंसा और प्रताड़ना से जनमानस बुरी तरह शोषित हो रहा था। ऐसे समय में अवतरित हुए गुरु गोबिन्द सिंह ने जन सामान्य की दबी-कुचली चेतना को झकझोर कर उसमें नई चेतना का संचार किया। उनके व्यक्तित्व में समाए संत-सिपाही, साहित्यकार, पथ प्रदर्शक, कुशल नायक और समाज सुधारक जैसे रूपों ने आवश्यकता के अनुसार जनमानस का उत्साहवर्धन किया। गुरु गोबिन्द सिंह के साहित्यिक अवदान की चर्चा करते हुए लेखक कहते हैं कि 'गोबिन्द सिंह उच्च कोटि के काव्य सृजक थे। उन्होंने जीवन पर्यन्त युद्ध की संघर्षमय स्थितियों के बीच व्यस्त रहते हुए भी कभी साहित्य प्रेम को शिथिल नहीं होने दिया। इतना ही नहीं, दशमग्रंथ की रचना कर गुरु गोबिन्द सिंह ने तत्कालीन निरुत्साहित जनता में नया उत्साह, नई स्फूर्ति और अदम्य साहस का संचार किया।'
पुस्तक के दूसरे अध्याय में 'संस्कृति: स्वरूप एवं प्रमुख उपकरणों- धर्म, दर्शन और भक्ति' की विस्तार से चर्चा की गई है। गुरु गोबिन्द सिंह की रचनाओं में भारतीय संस्कृति के इन मूलभूत तत्वों की गहन विवेचना की गई है, लेखक ने उदाहरण सहित इसे प्रस्तुत किया है। उदाहरणस्वरूप जीव-ब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या करते हुए गोबिन्द सिंह जी ने दशम ग्रंथ में लिखा है-
जैसे एक नद से
तरंग कोट उपजत है,
पान के तरंग सभै
पान ही कहाहिगे।
पुस्तक के चौथे अध्याय में गुरु गोबिन्द सिंह के कृतित्व में निहित राष्ट्रीयता की भावना को उदाहरण सहित प्रस्तुत किया गया है। लेखक निष्कर्ष रूप में लिखते हैं कि 'दशम ग्रंथ में राष्ट्र और राष्ट्रीयता के व्यापक परिप्रेक्ष्य का आकलन करते हुए इनके भौतिक स्वरूप को राष्ट्रमूर्ति की एक विराट छवि के रूप में प्रत्यक्ष अनुभव किया गया है।' कहा जा सकता है कि यह पुस्तक गुरु गोबिन्द सिंह जी को समग्रता में समझने का सरल-सहज मार्ग दिखाती है।
पुस्तक का नाम – गुरु गोबिन्दसिंह के काव्य में
संस्कृति और राष्ट्रीयता
लेखक – जीत सिंह 'जीत'
प्रकाशक – अनिल प्रकाशन
2619 न्यू मार्केट
नई सड़क,नई दिल्ली -06
मूल्य – 200 रुपए
पृष्ठ – 146
राष्ट्रीय चेतना के समक्ष सवाल
प्रसिद्ध राष्ट्रवादी विचारक प्रो. कुलदीप चंद अग्निहोत्री वर्षों से अनेक सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहने के साथ ही राष्ट्र की मूल चेतना को चुनौती देने वाली षड्यंत्रकारी ताकतों और सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाते रहे हैं। भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक चिन्हों और हिन्दू संस्कृति के मेरुदंड कहे जाने वाले साधु-संतों को आतंकवाद से जोड़ने की विदेशी और विघटनकारी ताकतों की साजिश को तार-तार करते अनेक लेखों का संकलन कर उन्होंने पुस्तकाकार में 'राष्ट्रीय चेतना को चुनौती' शीर्षक से प्रकाशित किया है। प्रस्तुत पुस्तक में प्रोफेसर कुलदीप चंद अग्निहोत्री ने मुख्यत: दो अध्यायों (1) 'आतंकवाद में संघ को फंसाने की साजिश' और (2) 'भारत में चर्च की रणनीति और सोनिया कांग्रेस' के द्वारा अनेक ज्वलंत प्रश्नों पर गंभीर चिंतन किया है। लेखक द्वारा उठाए गए तकर्ों से यह स्पष्ट होता है कि किस तरह से कुछ लोग अपने देश भारत की पहचान, मूल संस्कृति को बदनाम और कलंकित करने की साजिश रच रहे हैं। इससे भी पीड़ादायक बात यह है कि सत्ता और राजनीति से जुड़ी कुछ ताकतें भी उनका साथ दे रही हैं। ऐसे में आम आदमी को बेहद सजग रहने की आवश्यकता है।
मामला चाहे 2007 में समझौता एक्सप्रेस में हुए बम विस्फोट का हो, हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट का या फिर अजमेर शरीफ में विस्फोट का, उन स्थितियों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि किस तरह जबरदस्ती उन्हें हिन्दू संगठनों से जोड़ने का प्रयास किया गया। इस दौरान केन्द्र सरकार की भूमिका भी संदिग्ध रही। इन आतंकवादी घटनाओं में समर्पित हिन्दू संगठनकर्ताओं और रा.स्व.संघ जैसे देशभक्त संगठन के पदाधिकारियों को जोड़ने के पीछे भी केन्द्र सरकार का यही षड्यंत्र दिखता है कि किसी भी कीमत पर हिन्दू संगठनों की छवि देश के सामने कलंकित की जाए। हालांकि इतने प्रयासों के बाद भी किसी भी संघ कार्यकर्ता का नाम ऐसी गतिविधियों से जुड़े होने का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है।
पुस्तक के दूसरे अध्याय में लेखक ने कांग्रेस की मानसिकता पर चर्च के बढ़ते प्रभाव और नेहरू-गांधी के आदर्शों और मूल्यों के क्षरण को विस्तार से व्याख्यायित किया है। कहना उचित होगा कि आज की कांग्रेस केवल नाम की कांग्रेस रह गई है, उसमें देश पर मर-मिटने की भावना मिट गई है। इस पर अमरीका और विदेशी ताकतों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। सोनिया के नेतृत्व वाली कांग्रेस और अमरीका का गठजोड़ किस तरह से राष्ट्रवादी शक्तियों के विरुद्ध काम कर रहा है, इसका खुलासा विकीलीक्स में भी हो चुका है। इन सभी बातों से लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'यह सरकार आतंकतादियों से देश की सुरक्षा करने में ही अक्षम है, दूसरे यह कि वह मुस्लिम वोटों के लालच में उनका तुष्टीकरण कर आतंकवाद को सामाप्त ही नहीं करना चाहती है।'
लेखक द्वारा निकाला गया यह निष्कर्ष जहां एक ओर केन्द्र मे सत्तारूढ़ सरकार की मानसिकता और नीति को हमारे सामने लाता है, वहीं देश की चेतना और संप्रभुता के समक्ष उपस्थित इन चुनौतियों से संघर्ष करने के लिए राष्ट्रप्रेमी नागरिकों को सदैव जागरूक रहने की प्रेरणा देता है। पुस्तक के अंत में दिए गए परिशिष्ट में कई महत्वपूर्ण साक्षात्कार भी पठनीय हैं।
पुस्तक – राष्ट्रीय चेतना को चुनौती
लेखक – कुलदीप चंद अग्निहोत्री
प्रकाशक – ज्ञानगंगा
205-सी, चावड़ी बाजार
दिल्ली-110006
मूल्य – 200 रु.
पृष्ठ – 160
राजनीति के तीन चेहरे
डा. तारादत्त 'निर्विरोध'
एक थे चम्पू, एक थे चमचू, एक थे चमचेलाल,
तीनों ने मिल देश को, किया बहुत बेहाल।
चम्पूजी ने तिकड़म सीखी, नेताजी कहलाए।
रिश्वत पाई बड़े हो गए, लाखों नोट कमाए।
छोटे गांवों से कस्बों तक, दली खूब ही दाल,
सबको कर्जदार कर डाला, होकर मालामाल।
देश को किया बहुत बेहाल।
चमचूजी यशभागी निकले, पूर्व जन्म के 'त्यागी' निकले,
उद्घाटन–चाटन से जागे, चले सभी के आगे–आगे,
बड़े शहर की रौनक देखी, बदले तुरंत खयाल,
जितना हाथ लगा खा बैठे, चले ताल बेताल।
देश को किया बहुत बेहाल।
चमचेलाल चतुर सैलानी, अनपढ़–गंवार मगर थे ज्ञानी,
नेता को रोशन कर डाला, दुनिया को बेघर कर डाला,
बाहर से फक्कड़ जैसे थे, भीतर से खुशहाल,
खुद चांदी से चमकें, पत्नी सोने की टकसाल
देश को किया बहुत बेहाल।
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