राज्य समाचार
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महाराष्ट्र /द.बा.आंबुलकर
कांग्रेसियों की नई 'लूट कमेटी'
राज्य में सत्तारूढ़ सोनिया कांग्रेस-पवार कांग्रेस की गठबंधन सरकार ने प्रदेश का यह हाल कर दिया कि देश-विदेश के करोड़ों श्रद्धालुओं का श्रद्धा स्थल शिर्डी स्थित साईं संस्थान भी राजनीतिक चालों से बच नहीं सका। साईं भक्तों को श्रद्धा-सबूरी का संदेश देने वाला यह संस्थान आज राजनीतिक लूट का अड्डा बन चुका है।
उल्लेखनीय है कि भक्तों ने चढ़ावे से लगभग पांच सौ करोड़ रुपयों की राशि साईं संस्थान को समर्पित की है। संस्थान के भवन एवं जमीन- जायदाद को जोड़ दें तो साईं संस्थान के पास लगभग 1000 करोड़ रुपयों से अधिक की पूंजी जमा है। इसके अलावा प्रतिदिन हजारों एवं पर्व विशेष पर लाखों की संख्या में आने वाले भक्तों का योगदान भी निरंतर जारी है। यही आर्थिक समृद्धि स्थानीय से लेकर प्रदेश तक के राजनेताओं को शिर्डी की ओर खींचती है।
मंदिर संस्थान की व्यवस्था आज से दस साल पहले तक प्रशासक के नाते राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव द.म.सुखथनकर देखते थे। विगत दस वर्षों में शिर्डी साई संस्थान का जिस प्रकार एवं जिस गति से महत्व बढ़ता गया तथा वहां समर्पित पूंजी भी बढ़ती गयी, उस कारण कांग्रेसियों ने राजनीतिक चालें चलनी शुरू कर दीं। इस क्रम में शिर्डी संस्थान को प्रशासक के स्थान पर सीधे शासन से जोड़ने के विशेष प्रयास के पहले चरण में 2004 में कांग्रेस की पहल पर राज्य के तत्कालीन विधि मंत्री गोविंदराव आदिक ने शिर्डी संस्थान से संबद्ध एक विशेष कानून बनवाया, जिसमें 2005 में संशोधन भी किया। ऐसा करके सत्तारूढ़ नेताओं ने यह सुनिश्चित कर लिया कि साईं प्रबंधन संस्थान में अपने समर्थकों को ही नियुक्त किया जाए। इसके बाद सोनिया और पवार कांग्रेस की गठबंधन सरकार सत्तारूढ़ हुई तो इन दोनों दलों ने साईं प्रबंधन संस्थान के 16 स्थानों को आपस में (8-8 स्थान) बांटकर लूट शुरू कर दी। मंदिर प्रतिष्ठान से संबद्ध नियम एवं प्रावधानों के तहत प्रबंध समिति के सदस्यों का कार्यकाल 23 अगस्त, 2007 को समाप्त हुआ, पर शासन- प्रशासन के दुरुपयोग से मौजूदा सदस्य अब तक अपनी सदस्यता बरकरार रखे हुए थे।
यह सारी सच्चाई तथा उसका विवरण तब सार्वजनिक हुआ जब राज्य सरकार के द्वारा की गई मनमानी तथा साईं भक्तों की श्रद्धा से खिलवाड़ के खिलाफ शिर्डी के ही सजग नागरिक राजेन्द्र गोंदकर तथा संदीप कुलकर्णी ने मुम्बई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ में विशेष याचिका दायर कर न्याय की गुहार लगाई। उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ ने 13 मार्च, 2012 को शिर्डी साई संस्थान के पदाधिकारियों की मौजूदा प्रबंध समिति बर्खास्त करते हुए राज्य सरकार को अगले 15 दिनों में नई समिति नियुक्त करने का निर्देश दिया। उच्च न्यायालय के इन निर्देशों के बाद फिर मुम्बई से लेकर दिल्ली तक सोनिया कांग्रेस और पवार कांग्रेस में सरगर्मी तेज हुई। इसमें संस्थान के सदस्यों की संख्या, उनके अधिकार एवं नामों को लेकर दोनों पक्ष आपस में जोर आजमाते रहे। इसके बाद नये सिरे से गठित की गई प्रबंध समिति के सदस्यों के घोषित नामों को लेकर शुरुआत में ही कई तरह के विवाद खड़े हो गए हैं। कांग्रेस द्वारा मनोनीत सदस्यों में जहां प्रदेश सरकार में मंत्री राधाकृष्ण बिखे पाटिल के समर्थकों की बहुतायत है, तो पवार कांग्रेस के सदस्यों में अजित पवार ने बड़ी चतुराई से अपने समर्थकों का जमावड़ा कर दिया है। ऐसे हालात में साईं संस्थान प्रबंधन समिति के नये सदस्यों की नियुक्ति को लेकर मूल याचिकाकर्त्ताओं द्वारा मुम्बई उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ में पुन: चर्चा जारी रखी गयी है। याचिकाकर्त्ताओं द्वारा अब इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि सदस्यों के नाम बदलने के अलावा इस सारी प्रक्रिया में अन्य कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है, जबकि याचिकाकर्त्ताओं द्वारा सदस्यों में बदलाव के अलावा उनकी चयन प्रक्रिया तथा प्रशासनिक जवाबदेही आदि के विषय भी बुनियादी तौर पर उठाए गए थे। इस मामले के मूल याचिकाकर्त्ताओं ने अलग से दिए गए शपथ पत्र में औरंगाबाद उच्च न्यायालय का ध्यान इस बात की ओर भी आकृष्ट किया गया है कि साईं मंदिर न्यास की प्रबंध समिति के लिए प्रस्तावित नई समिति के तीन सदस्यों पर पहले से ही आपराधिक मामले दर्ज हैं। उच्च न्यायालय को चाहिए कि वह इन मामलों की जांच पहले करे।
जम्मू–कश्मीर /विशेष प्रतिनिधि
देश विरोधियों को भी
स्वतंत्रता सेनानी वाली पेंशन?
जम्मू-कश्मीर में न केवल अलगाववादी नेताओं को सुरक्षा तथा अन्य सुख सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं, बल्कि कितने ही ऐसे लोगों को भी पेंशन दी जा रही है जिन्होंने महाराजा की सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था, 'डोगरो कश्मीर छोड़ो' के नारे लगाए थे तथा कश्मीर को 'आजाद' बनाने के लिए अलगाववादी आंदोलनों में भाग लिया था। एक सरकारी रपट के अनुसार जम्मू- कश्मीर में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले 888 व्यक्तियों को स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन दी जा रही है। यह पेंशन 1500 रुपए से लेकर 15000 रुपए मासिक तक दी जा रही है। गत 3 वर्षों में कुल मिलाकर 37 करोड़ रु. से अधिक की राशि स्वतंत्रता सेनानी पेंशन वितरित की गई। यहां स्वतंत्रता सेनानी पेंशन प्राप्त करने वालों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है। इनमें सबसे अधिक उन व्यक्तियों के नाम हैं जिन्होंने इस राज्य तथा भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में भाग लिया या फिर 'कश्मीर छोड़ो' आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। इस श्रेणी में पेंशन प्राप्त करने वालों की संख्या 600 से अधिक है, जिनमें से 500 के लगभग तो श्रीनगर जिले के ही हैं। दूसरी सूची में सौ से अधिक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं जिनका संबंध आजाद हिन्द सेना से था। इस श्रेणी में आने वाले लगभग सभी जम्मू संभाग से हैं, इनमें भी विधवाओं की संख्या अधिक है। तीसरी श्रेणी में चार-पांच ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें गोवा के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए पेंशन दी जा रही है। ये भी प्राय:जम्मू संभाग से ही संबंधित हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि इस सूची में लद्दाख, डोडा तथा पुंछ के किसी भी व्यक्ति का नाम शामिल नहीं है।
इस सूची को लेकर कई प्रश्न खड़े हो रहे हैं। कारण, कश्मीर घाटी में एक लम्बे कालखण्ड तक नेशनल कांफ्रेंस, मुस्लिम कांफ्रेंस नामक दलों के कार्यकर्त्ता महाराजा हरि सिंह की सरकार के विरुद्ध ही विद्रोह कर रहे थे। जब पूरे देश में अंग्रेज साम्राज्य के विरुद्ध आंदोलन हुआ तो 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' की नकल करते हुए कश्मीर घाटी में मुस्लिम कांफ्रेंस तथा कुछ अन्य ने 'डोगरो कश्मीर छोड़ो' का आंदोलन चलाया। इसीलिए प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस अभी भी महाराजा के विरुद्ध आंदोलन करने वालों का सम्मान करती है, क्योंकि इस श्रेणी में दी जा रही पेंशन की राशि केन्द्र सरकार द्वारा दी जाती है।
दूसरा प्रश्न यह भी उभरकर सामने आ रहा है कि 'कश्मीर छोड़ो' का यह आंदोलन लगभग 70 वर्ष पहले हुआ था। तब इस आंदोलन में भाग लेने वालों की आयु कम से कम 20-25 वर्ष तो होनी चाहिए, तो क्या 90 वर्ष से अधिक आयु के यह मुजाहिद (स्वतंत्रता सेनानी) इतनी बड़ी संख्या में अब भी जीवित हैं? इसीलिए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि स्वतंत्रता सेनानियों की इस सूची में उन लोगों को भी शामिल किया गया है जो 1953 से लेकर 1975 तक शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के अलगाववादी संगठन 'जनमत संग्रह मोर्चा' के सक्रिय कार्यकर्त्ता थे। 1975 में कांग्रेस के समर्थन से पुन: सत्ता संभालने के पश्चात नेशनल कांफ्रेंस नाम को फिर अपना लिया गया। इन आशंकाओं के कारण यह व्यापक छानबीन के बाद ही पता चल पाएगा कि सूची में शामिल लोग वास्तव में स्वतंत्रता सेनानी थे या विद्रोही।
उ.प्रे. /शशि सिंह
विकास पीछे, पाकर्ों की राजनीति आगे
सपा-बसपा में शह मात का खेल, जनता से किए वादे भूली सरकार
लगता है उत्तर प्रदेश पाकर्ों और मूर्तियों की राजनीति से आगे नहीं निकल पाएगा। मायावती जब शासन में थीं तो उनकी पूरी राजनीति इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती थी। नतीजा राज्य में अराजकता का राज हो गया। कानून-व्यवस्था ध्वस्त हो गई और प्रकारांतर से गुंडे और भ्रष्टाचारी समानांतर सरकार संचालित करने लगे थे। इस सब के खिलाफ नारा देकर, विकास का सपना दिखाकर सत्ता में आई सपा भी अब उसी मकड़जाल में उलझकर रह गई है। नतीजा, विकास की राजनीति की बजाय फिर से मूर्तियों और पाकर्ों की राजनीति तेज होती जा रही है। जनता की आशा एक महीने में ही धूमिल होने लगी है। फिर शुरू हो गया है शह और मात का खेल, एक-दूसरे को नीचे दिखाने के लिए सपा-बसपा फिर लड़ने लगी हैं। विकास का एजेंडा फिर पीछे हो गया है।
सत्ता प्राप्ति के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक बयान दिया था कि लखनऊ और नोएडा में हजारों करोड़ रुपये खर्च कर बनवाए गए पाकर्ों और स्मृति स्थलों में पड़ी खाली जमीनों पर शिक्षा संस्थान और अस्पताल बनवाए जाएंगे। बात सुनने में अच्छी है लेकिन मूल बात नीयत की है। सूत्रों का कहना है कि सरकार में बैठे लोगों की नीयत ठीक नहीं है, चुनाव में इतने अधिक वादे कर लिये हैं कि उन्हें पूरा करना मुश्किल लग रहा है। इसलिए जानबूझकर इस तरह की बातें की जा रही हैं जिससे लोग वादों की बात भूल जाएं और विकास का मुद्दा झगड़ों में उलझ जाए।
उधर, मायावती को तो मानो इसका ही इंतजार था। पाकर्ों में अतिरिक्त निर्माण कार्य का सरकारी बयान सामने आया तो उन्होंने चेतावनी दे डाली कि अगर ऐसा हुआ तो देशभर में इसकी भयंकर प्रतिक्रिया होगी। चुनावी मैदान में लड़ाई हार चुकीं मायावती इसी बहाने अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाना चाहती हैं। सत्ता में रहते तानाशाही व्यवहार के कारण अपने कार्यकर्त्ताओं से दूर जा चुकीं मायावती को यह अवसर अनुकूल लगता है। उन्होंने अपने तेवर ढीले कर लिये हैं ताकि बसपा से जुड़ा अब तक उपेक्षित वर्ग और कार्यकर्त्ता फिर उनसे जुड़ सके। लेकिन उनसे तंग आ गए लोगों में उनके इस बयान से उत्साह का संचार होता नहीं दिखा।
उधर, अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने से सत्ता की दौड़ में पिछड़ गए शिवपाल यादव (मुलायम सिंह के भाई) और बड़बोले कैबिनेट मंत्री आजम खां इस मामले को और हवा देते दिख रहे हैं। हालांकि इन दोनों में भी आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है, फिर भी मायावती को उत्तेजित करने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते। तभी तो दोनों अलग-अलग बयान देकर बसपा को मैदान में आने का निमंत्रण देते घूम रहे हैं। आजम खां ने कहा कि पाकर्ों और मूर्तियों वाले बड़े पाकर्ों में हर हाल में अस्पताल और शिक्षा संस्थान बनाए जाएंगे, तो शिवपाल ने कहा कि दलित महापुरुषों के नाम पर भारी घोटाला हुआ है, इसकी जांच होगी। यही नहीं, मायावती पर दबाव बढ़ाते हुए इन सबके निर्माण कार्य से जुड़े करीब सौ अधिकारियों को हटा दिया गया है। बताते हैं कि उनमें से कई को इस बात के लिए तैयार किया जा रहा है कि वे मायावती के खिलाफ सुबूत देने के लिए अपने आपको तैयार करें। यह भी कहा जा रहा है कि इन सब निर्माण कार्यों में पचास हजार करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है। बहरहाल बसपा के एजेंडे में विकास तो था ही नहीं, पर जिस सपा ने चुनाव में बड़े-बड़े वादे किए थे, उसने भी इस तरह की लड़ाई में उलझकर विकास की बात को भुला दिया है। सरकार को बेरोजगारी भत्ता, लैपटाप, स्कूलों में अध्यापकों की भर्ती में पारदर्शिता जैसे वादों की याद ही नहीं आ रही है।
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