माओवादी आवरण में चर्च?
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माओवादी आवरण में चर्च?

by
Apr 28, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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मंथन

दिंनाक: 28 Apr 2012 15:38:58

देवेन्द्र स्वरूप

माओवाद की प्रयोग भूमि चीन ने माओवाद और उसके जन्मदाता माओत्से तुंग को न जाने कब का दफना दिया है। वहां अब माओ का जन्मदिन पहले की तरह धूमधाम से मनाना बंद कर दिया गया है। चीन के वर्तमान शासक माओवाद से अपने पूर्ण संबंध विच्छेद की घोषणा खुलेआम कर चुके हैं। पड़ोसी देश नेपाल में माओवाद के आवरण में सक्रिय भारतविरोधी सैनिक संगठन को चीन ने अपना समर्थन देना सार्वजनिक तौर पर ठुकरा दिया। पर, भारत में माओवाद का खूनी झंडा छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड नामक तीन जनजातीयबहुल राज्यों में दिन ब दिन ताकतवर होता जा रहा है। गरीब परिवारों से जीविकोपार्जन की खोज में शामिल हुए पुलिस जनों की हत्या कर वे सर्वहारा क्रांति का दावा कर रहे हैं। विडम्बना यह कि महानगरीय सुविधाओं का भरपूर उपभोग करने वाले समृद्ध और अभिजात्य परिवारों के अंग्रेजीदां लोग इन खूनी हत्यारों की वकालत करके समतामूलक क्रांति का सपना देख रहे हैं।

सिर्फ नाम का माओवादी

यदि चीन ने माओवाद को दफना दिया है तो भारत के पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी क्षेत्र से खूनी क्रांति की जो लहर उठी थी, वह भी पानी के बुलबुलों की तरह विलीन हो चुकी है। उस लहर के जन्मदाता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने उस क्रांति की असफलता को न जाने कब का स्वीकार कर लिया, पर नक्सलवाद का मुहावरा अभी भी हमारे मीडिया की जुबान पर चढ़ा हुआ है। उक्त तीनों राज्यों में पुलिस बलों पर होने वाले हमलों, जिला अधिकारियों के अपहरण की घटनाओं को मीडिया माओवादी या नक्सलवादी गतिविधियों के नाम से प्रचारित करता है। राज्य सरकारों की ओर से कोई कड़ा कदम उठते ही शहरी बुद्धिजीवी या मानवाधिकारवादी सरकारी दमन की निंदा करने और अन्याय व शोषण के विरुद्ध संघर्ष कर रहे सशस्त्र आतंकवादियों की वकालत करने के लिए दौड़ पड़ते हैं। पर यह नहीं बताते कि अपने बच्चों का पेट पालने के लिए पुलिस बल में भर्ती होने वाले गरीब वर्ग के सिपाहियों की हत्या से समतामूलक समाज का निर्माण कैसे संभव है? कैसे अपहरण और रक्तपात की घटनाओं से वैकल्पिक समाज की रचना खड़ी हो सकती है? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि इस माओवादी क्रांति का उपकरण इन तीनों राज्यों के दुर्गम व जनजातीय क्षेत्रों व उसमें रहने वाले लोगों को ही क्यों बनाया जा रहा है?

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक समाचार श्रृंखला (8 अप्रैल, 2012 से) के अनुसार छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ क्षेत्र में नारायणपुर के इकोनार नामक ग्राम में माओवादियों के एक अड्डे पर हेलीकाप्टरों को गिराने और राकेट लांचर बनाने की जानकारी देने वाला साहित्य मिला। 5 अप्रैल को सीमा सुरक्षा बल का एक हेलीकाप्टर 'ध्रुव' झारखंड में दो घायल सैनिकों को लेकर लातेहर से रांची जा रहा था, कि नीचे से उस पर दो गोलियां चलायी गयीं। वह हेलीकाप्टर क्षतिग्रस्त हो गया। देरी से पहुंचने के कारण घायल सैनिकों में से एक सत्य प्रकाश जायसवाल को रांची के अपोलो अस्पताल में मृत घोषित कर दिया गया। संजय पासवान नामक दूसरे सैनिक का वहां अभी इलाज चल रहा है। इसके पहले भी 6 सितम्बर, 2010 को झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में सारडा वन्य क्षेत्र में सीमा सुरक्षा बल के एक हेलीकाप्टर पर गोलियां चलायीं गयीं। 19 अक्तूबर, 2011 को रांची के नजदीक एक 'ध्रुव' हेलीकाप्टर रहस्यमय परिस्थितियों में जमीन पर आ गिरा। इस घटना में दो चालक और एक तकनीकी सहायक मारे गये। इस दुर्घटना की जांच रपट को अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है, किंतु माओवादी संगठन के क्षेत्रीय कमांडर कुंदर पहान ने इस घटना का श्रेय अपने दल को दिया है।

अलगाववादियों–माओवादियों की साठगांठ

झारखंड के ही चाईबासा में सीआरपीएफ के अभियानों के उपनिरीक्षक भानु प्रताप सिंह ने बताया, 'विभिन्न माओवादी विरोधी अभियानों के तहत हमने कई बार छापा मारा और सबूत पाए कि मारे गये लड़ाके पूर्वोत्तर के आतंकवादी संगठनों के थे। इससे साफ संकेत मिलता है कि पूर्वोत्तर के सशस्त्र उग्रवादियों और झारखंड के माओवादी संगठनों के बीच साठगांठ हैं।' अर्द्धसैनिक बल के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'हमें सूचना मिली है कि मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का एक गुट झारखंड में सक्रिय माओवादी गिरोहों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने के लिए यहां आया हुआ है।' यह सर्वज्ञात है कि पूर्वोत्तर भारत में सशस्त्र संघर्ष का मुख्य स्रोत चर्चप्रेरित नागा दल हैं। 'यीशु के लिए वृहत्तर नागालैंड' की स्थापना उनका अंतिम लक्ष्य है। भारत की स्वतंत्रता के समय से ही चर्च ने पूर्वोत्तर भारत में चर्च नियंत्रित पृथक ईसाई राज्य बनाने का सपना बुना। उसी ने अपने अकूत विदेशी साधनों के बल पर पूर्वोत्तर भारत में अनेक सशस्त्र गुटों को खड़ा किया है। झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के जनजातीय क्षेत्र भी लम्बे समय से चर्च की मतान्तरण गतिविधियों का केन्द्र रहे हैं।

संघ परिवार चर्च की इस मतान्तरण नीति का विरोध करता है इसलिए चर्च संघ परिवार को अपना सहज शत्रु मान बैठा है। इस क्षेत्र में  कार्यरत वनवासी कल्याण आश्रम की एकांतिक साधना के फलस्वरूप राष्ट्रभक्त, सांस्कृतिक जनजातीय नेतृत्व उभरा है, जो चर्च के लिए भारी चिंता का कारण बन गया है। राजनीतिक धरातल पर भाजपा के उभार को उसने अपने लिए खतरे की घंटी मान लिया है। इसके प्रतिकार के लिए उसने दक्षिण अमरीका के कैथोलिक चर्च द्वारा आविष्कृत 'लिबरेशन थियोलॉजी' नामक सशस्त्र संघर्ष की रणनीति भारत में प्रारंभ की है। इस रणनीति के अन्तर्गत एक ओर तो चर्च भोली-भाली जनजातियों को आधुनिक शस्त्रों का प्रशिक्षण देकर सशस्त्र संघर्ष के रास्ते पर धकेल रहा है, दूसरी ओर भाजपा शासित राज्यों में चर्चों पर सुनियोजित हमलों का झूठा प्रचार करके स्वयं को आक्रामक हिन्दुत्व के निरीह शिकार के रूप में प्रदर्शित करता है। इसके साथ ही अल्पसंख्यकवाद के नाम पर मुस्लिम कट्टरवाद के साथ गठबंधन कर रहा है। यह आश्चर्य की बात नहीं तो और क्या है कि जब पूरे विश्व में ईसाई जगत इस्लामी जिहाद और पृथकतावाद से जूझ रहा है तब भारत में मुल्ला- पादरी गठबंधन का दृश्य देखने को मिल रहा है।

चर्च का षड्यंत्र?

चर्च ने हिन्दुत्व विरोधी हिंसक गतिविधियों के लिए माओवाद का आवरण धारण कर लिया है। यह सत्य 2007 में 81 वर्षीय स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की उनके आश्रम में घुसकर सुनियोजित हत्या से उजागर हो गया। हत्या के तुरंत बाद एक माओवादी संगठन ने जोर-शोर से इसका श्रेय लेने की घोषणा कर दी। स्वामी लक्ष्मणानंद का पूरा जीवन जनजातियों की सेवा के लिए समर्पित था। किसी भी सच्चे माओवादी गुट का उनसे विरोध का कोई कारण नहीं था। जनजातियों में स्वामी जी की लोकप्रियता को चर्च अपने मतान्तरण कार्यक्रम में बड़ी बाधा मानता था, इसलिए वह उन्हें अपने रास्ते से हटाने पर तुला हुआ था। उनकी हत्या के अपराध पर पर्दा डालने के लिए चर्च ने एक नन के साथ बलात्कार की झूठी कहानी गढ़ी, जो न्यायालय में गलत प्रमाणित हुई। स्वामी लक्ष्मणानंद हत्याकांड के बाद यूरोपीय संघ ने कंधमाल क्षेत्र में जो विशेष रुचि दिखलाई, उससे भी स्पष्ट है कि उनकी हत्या में असली  माओवादियों का नहीं, चर्च के छद्म माओवादियों का ही हाथ था। यह भी साफ हुआ है कि कंधमाल क्षेत्र में मतान्तरित ईसाई कबीले एवं मतान्तरण को अस्वीकार करने वाले जनजातीय समूह में लम्बे समय से संघर्ष चल रहा था। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या को चर्च अपनी विजय के रूप में देख रहा है। इसके फलस्वरूप बीजू जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन का टूटना उसकी सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता है।

छत्तीसगढ़ में डा.विनायक सेन के समर्थन में यूरोप के दस नोबल पुरस्कार विजेताओं के संयुक्त वक्तव्य का आयोजन केवल चर्च ही कर सकता था, भारत के किताबी माओवादी यह कदापि नहीं कर पाते। विनायक सेन के मुकदमें की सुनवाई के समय यूरोपीय पर्यवेक्षक दल का भारत आगमन एवं न्यायालय में उपस्थित रहने का आग्रह भी विनायक सेन की गतिविधियों में चर्च की गहरी रुचि का प्रमाण है। इसी 14 मार्च को कंधमाल क्षेत्र में ही दो इटलीवासियों-क्लाउडियो कोलनगेलो और पाउलो बोसुस्को के अपहरण और रिहाई के पूरे घटनाक्रम का गहरा अध्ययन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रहा जा सकता कि इन दोनों इतालवी नागरिकों की कंधमाल क्षेत्र में उपस्थिति संदेहास्पद है। क्लाउडियो को तो अपहरणकर्त्ताओं ने एक निरीह पर्यटक बताकर 24 मार्च को ही रिहा कर दिया। पर पाउलो बोसुस्को को अपने कब्जे में बनाये रखा। यह व्यक्ति पिछले 19 वर्ष से उड़ीसा में 'टूरिस्ट वीजा' पर रह रहा है और एक अनधिकृत टूरिस्ट एजेंसी चलाता है। उसके बारे में बताया गया है कि वह उड़ीसा के चप्पे-चप्पे के बारे में जानकारी रखता है और धाराप्रवाह उड़िया भाषा बोलता है। वह माओवादियों के संघर्ष को अन्याय और शोषण के विरुद्ध न्यायपूर्ण संघर्ष मानता है। उड़ीसा में चल रही माओवादी हिंसा के प्रति उसकी सहानुभूति के अनेक समाचार प्रकाश में आये हैं। तो क्या ये लोग वेटिकन और उड़ीसा के चर्च के बीच सम्पर्क का काम कर रहे हैं?

अपहरण की रणनीति

24 मार्च को क्लाउडियो की रिहाई के साथ ही सत्तारूढ़ बीजू जनता दल के एक युवा विधायक झीना हिकाका का अपहरण कर लिया गया। यद्यपि इस अपहरण के पीछे माओवादी गुटों की आपसी स्पर्धा बताई जा रही है। कहा जा रहा है कि दो इतालवी नागरिकों का अपहरण उड़ीसा स्टेट आर्गनाईजिंग कमेटी के द्वारा किया गया, जबकि विधायक हिकाका का अपहरण आंध्र-उड़ीसा बॉर्डर स्पेशल जोनल कमेटी ने कराया। पहली कमेटी का प्रवक्ता सत्यसाची पांडा है जबकि दूसरी कमेटी का प्रवक्ता जगबंधु नामक व्यक्ति है। किंतु दोनों की कार्यशैली और रणनीति समान ही दिखायी दे रही है। सव्यसाची पांडा और जगबंधु दोनों ही सरकार के सामने अपनी शर्तें एक आडियो कैसेट के माध्यम से रखते हैं। वह आडियो कैसेट कुछ चुने हुए पत्रकारों को भेज दिया जाता है जो उसे प्रचारित करते हैं। दोनों ही गुट अपहरण का उपयोग अपने बंदी कार्यकर्त्ताओं की रिहाई के लिए करते हैं। वे सुरक्षा बलों की प्रतिरोधात्मक कार्रवाई को रुकवाना चाहते हैं। अपने सार्वजनिक संगठनों पर से सरकारी अंकुश को हटवाना चाहते हैं। सव्यसाची पांडा अपनी पत्नी शुभाश्री दास उर्फ मिली पांडा की रिहाई के लिए व्याकुल थे। शुभाश्री ने एक साक्षात्कार में बताया कि सव्यसाची से उनका प्रेम विवाह 1999 में सम्पन्न हुआ। उसके पांच साल बाद वे माओवादी आंदोलन का हिस्सा बने। सव्यसाची पर कई माओवादी महिलाकर्मियों के साथ बलात्कार के आरोप हैं। शुभाश्री ने इन आरोपों का खंडन नहीं किया। शुभाश्री अब जेल से रिहा कर दी गयी है। पाउलो को भी पिछले सप्ताह मुक्त कर दिया गया। किंतु विधायक हिकाका को माओवादियों की प्रजा अदालत के सामने पेश कर उन्हें विधायक पद से त्यागपत्र देने का निर्देश दिया गया, जिसे उस अदालत में मान लेने के बाद उन्हें भी गत 26 अप्रैल को छोड़ दिया गया। ऐसा क्यों? यदि माओवादी सचमुच जनजातियों का राजनीतिक सशक्तिकरण करना चाहते हैं तो उन्हें 37 वर्षीय हिकाका के विधायक बनने पर प्रसन्नता होनी चाहिए और उन्हें जनजातियों में अधिक सेवा कार्य करने की प्रेरणा देनी चाहिए। किंतु हिकाका पर विधायकी छोड़ने का दबाव डालने का अर्थ है कि जनजातियों में हिकाका की लोकप्रियता चर्च के मतान्तरण कार्यक्रम में बाधक बन रही है, इसलिए वे उसे मैदान छोड़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में सुकमा जिले के प्रशासक (कलेक्टर) एलेक्स पाल मेनन का दिन- दहाड़े भरी सभा में से अपहरण अभी भी रहस्य से घिरा है। घटनास्थल पर ही उनके दो अंगरक्षकों की हत्या कर दी गयी। कहा जाता है कि मेनन बहुत साहसी और लोकप्रिय अधिकारी हैं। उनकी रिहाई के लिए जो शर्तें अपहरणकर्त्ताओं ने सरकार के सामने रखी हैं, वे उनकी रणनीति को स्पष्ट करती हैं। उन्होंने सुरक्षाबलों की माओवादी विरोधी कार्रवाई को तुरंत बंद करने, अबूझमाड़ क्षेत्र से सैनिक छावनी को हटाने और सेना को दी गयी जमीन को वापस लेने की मांग की है। इन मांगों के पीछे उनकी सामरिक रणनीति विद्यमान है। अग्निवेश आदि कई बिचौलिये उनके समर्थन में सक्रिय हो गये हैं। सरकार और माओवादियों ने अपने-अपने पक्ष से वार्ताकारों के नाम प्रस्तुत कर दिये हैं। इस वार्ता में से क्या निकलता है, यह अभी देखना बाकी है। कलेक्टर मेनन के नाम से प्रकट होता है कि वे ईसाई मतावलम्बी हैं? उनके अपहरण के पीछे चर्च की क्या रणनीति हो सकती है, इसकी तह तक पहुंचना भी आवश्यक ½èþ*n

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