इतिहास दृष्टि
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स्वामी विवेकानंद सार्ध शताब्दी पर विशेष
19वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध भारत में नारी जीवन की त्रासदी का काल था, जबकि इसका उत्तरार्द्ध नारी जागरण तथा चेतना की बेला थी। उस काल में भारत में स्त्री की दशा सुधारने तथा उन्नत करने के अनेक प्रेरक तथा स्फूर्तिदायक प्रयत्न हुए, जिसमें अनेक समाज सुधारकों तथा विभिन्न धार्मिक–सामाजिक आंदोलनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन समाज सुधारकों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडित ईश्वर चंद विद्यासागर, पंडित विष्णु शास्त्री का योगदान सर्वश्रेष्ठ था। इसके साथ ही महादेव गोविंद रानाडे तथा रमाबाई ने स्त्री शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे विद्वान ने नारी जीवन की पीड़ा को अपने प्रसिद्ध 14 उपन्यासों के माध्यम से व्यक्त किया। इन सभी प्रयत्नों के बीच स्वामी विवेकानंद ने अपने अल्प जीवन काल (1863-1902) में विश्व गगन पर भारतीय नारी जीवन की श्रेष्ठता तथा दिव्यता को प्रस्थापित ही नहीं किया, बल्कि उसमें आवश्यक सुधारों के लिए भारतीय समाज को प्रेरित भी किया।
मातृत्व: ईश्वर का दिव्य रूप
स्वामी विवेकानंद के चिंतन में भारतीय नारी को पवित्रतम स्थान पर प्रस्थापित करने में नि:संदेह उनकी मां भुवनेश्वरी देवी का अद्वितीय स्थान है, जो स्वयं सादगी, सात्विक वृत्ति, धर्म–परायणता तथा संवेदनशीलता की प्रतिमूर्ति थीं। जिन्होंने उन्हें मातृभक्त बना दिया था, यह उनके भगिनी निवेदिता के लिखे पत्रों से ज्ञात होता है। साथ ही स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा मां काली ने उनमें नारी शक्ति की अलौकिक भावना को जगा दिया था।
स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन– ध्येय धर्म एवं आध्यात्मिकता के पश्चात दूसरे स्थान पर स्त्री जीवन से संबंधित समस्याओं पर चिंतन बताया। अत: उन्होंने देश–विदेश में दिए अपने भाषणों में स्त्री की दशा तथा दिशा पर अनेक बार चर्चा की। उन्होंने भारतीय समाज का मूल आधार नारी की प्रतिष्ठा तथा नारी को संस्कारों का सर्वोच्च स्थल बताया। वे भारतीय नारी को संस्कृति का रक्षक तथा सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की अनुक्रमणिका मानते थे। उन्होंने नारी को किसी भी राष्ट्र का सर्वोत्कृष्ट तापमापक यंत्र माना है।
मां के स्थान की श्रेष्ठता बतलाते हुए स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषणों में कहा, 'भारत में स्त्री जीवन का आरंभ और अंत मातृत्व में ही होता है। विश्व में 'मां' नाम से पवित्र और कोई नाम नहीं हो सकता। मातृत्व में ही स्वार्थ–शून्यता, सहिष्णुता तथा क्षमाशीलता का भाव निहित है। मातृत्व ईश्वर का दिव्य रूप है।' उन्होंने स्त्री जीवन की पूर्णता मातृत्व में बतलाई, वे मातृत्व में सभी श्रेष्ठ गुणों का प्रकटीकरण बतलाते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि मातृत्व निश्चय ही पितृत्व से उच्च तथा महान है।
अतीत में भारतीय नारी
स्वामी विवेकानंद ने प्राचीन काल की भारतीय नारी का दिव्य तथा भव्य चित्रण किया है। उन्होंने विवाह को एक पवित्र बंधन बतलाते हुए कहा, 'विवाह इन्द्रिय सुख के निमित्त नहीं वरन् मानव वंश को आगे चलाने के लिए है। विवाह का भारतीय आदर्श यही है। समाज में उसी प्रकार के विवाह का प्रसार होता है जिसमें समाज का अधिक से अधिक कल्याण साधित हो सके। अत: पति–पत्नी को समाज और देश के कल्याण साधन के निमित्त अपने व्यक्तिगत आनंद और सुख की आहुति देने हेतु सदा तत्पर रहना चाहिए।'
स्वामी विवेकानंद ने अमरीका में भारतीय नारी के प्राचीन आदर्शों को आर्य ग्रंथों के माध्यम से उद्धृत करते हुए उसे सहधर्मिणी बतलाया, जिसमें विवाह के अवसर पर पवित्र अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती थी। वे जीवन भर इसमें साथ–साथ आहुति देते हुए प्रार्थना करते हैं। यह अग्नि तब तक जलती रहती थी जब तक वे साथ–साथ रहते तथा किसी एक की मृत्यु होने पर उसके शरीर का दाह संस्कार भी इसी अग्नि से किया जाता था। कालांतर में इसमें परिवर्तन हुआ। (देखें पत्र 'ब्रोकलियन स्टैण्डर्ड यूनियन', 21 जनवरी, 1895)
स्वामी विवेकानंद ने स्त्री तथा पुरुष में किचिंत् भी भेद को स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने बताया कि हजारों वर्षों से भारत की स्त्री का सम्पत्ति पर अधिकार था तथा पति की मृत्यु हो जाने पर वह ही सम्पत्ति की पूर्ण अधिकारिणी होती थी। दोनों में पूर्णत: समानता के अवसर तथा पूर्ण संतुलन था।
स्वामी विवेकानंद ने भारत की आदर्श नारियों का अपने भाषणों में बार–बार वर्णन किया है। भारतीय स्त्री चरित्र को आदर्श मां सीता के चरित्र से उत्पन्न बताया है। मां सीता का चरित्र 'पवित्रतम से भी पवित्र' बताया। गार्गी को विश्व की श्रेष्ठतम बुद्धिमान महिलाओं में वर्णित किया है। सावित्री को आध्यात्मिक शक्ति तथा निर्भीकता का स्वरूप बताया तथा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को शारीरिक क्षमता तथा बल का द्योतक बताया है।
वर्तमान में भारतीय नारी
भारत में महिलाओं के उच्च सम्मान तथा गरिमा की अनुभूति विश्व के लोगों को तब हुई जब 11 सितम्बर, 1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण में 'अमरीका के बहनों और भाइयों' कहकर सम्बोधित किया। आश्चर्यचकित हो सम्मेलन में उपस्थित एक अमरीकी महिला एस.के.ब्लैडगेल्ट ने देखा कि सम्मेलन में उपस्थित 7000 लोगों का समस्त समुदाय ताली बजाते–बजाते खड़ा हो गया। संभवत यह विश्व समाज की भारतीय महिला तथा भारतीय जनमानस के प्रति सम्मान में पहली अभिव्यक्ति थी।
स्वामी विवेकानंद को भारत की महिलाओं की उच्चतम स्थिति विश्व के अन्य स्थानों पर रहने वाली महिलाओं से लगी। उन्होंने कहा कि पाश्चात्य देशों में चचेरे भाई और बहन के बीच विवाह पूर्ण रूप से वैध है। जबकि भारत में यह गैरकानूनी ही नहीं, बल्कि व्यभिचार जैसे एक गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। वे इस बात से बड़े आश्चर्यचकित थे कि ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज, हार्वर्ड तथा येल विश्वविद्यालयों के द्वार स्त्रियों के लिए तब भी बंद थे, जबकि भारत में उससे 20 वर्ष पूर्व (कोलकाता विश्वविद्यालय में) स्त्रियों के लिए द्वार खोल दिये गये थे।
आर्यों और 'सेमेटिक' लोगों में महिला संबंधी विचार स्वामी विवेकानंद को एक–दूसरे के बिल्कुल विपरीत लगे। सेमेटिक लोग उपासना में स्त्रियों की उपस्थिति घोर विघ्न स्वरूप मानते हैं। स्त्रियों को किसी प्रकार का धार्मिक कार्यों का अधिकार नहीं है। यहां तक कि आहार के लिए पक्षी मारना भी उनके लिए निषिद्ध है। जबकि आर्यों में सहधर्मिणी के बिना कोई भी धार्मिक कार्य नहीं होता। स्वामी विवेकानंद ने भारतीय समाज की अन्य देशों की वर्तमान स्थिति बतलाते हुए कहा कि भारत में स्त्री कहते ही मातृत्व का ध्यान आता है जबकि पश्चिम में स्त्री सिर्फ पत्नी है। उनको आश्चर्य हुआ कि विदेशों में पुत्र भी अपनी माता का नाम लेकर पुकारता है। इसके साथ जहां उन्होंने एशिया में ईसाई बिशपों के समकालीन दिनों में हरम की बात कही, वहीं मुस्लिम महिलाओं की अवस्था और भी ज्यादा दुखद बतलाई (देखें, द कम्पलीट वर्क्स आफ स्वामी विवेकानंद, भाग दो, 2005, कोलकाता पृ.506)
स्वामी विवेकानंद पाश्चात्य देशों में अविवाहित युवा स्त्रियों के कष्टों तथा दुरावस्था से अत्यंत दुखी थे। उन्होंने एक स्थान पर मिशनरियों तथा चर्च की महिलाओं की भी चर्चा की। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि जब कोई नारी अपने लिए पति खोजने का अधिक से अधिक प्रयत्न करती है तो वह सभी समुद्रतटीय स्थानों पर जाती है और किसी पुरुष को पकड़ पाने के लिए सब प्रकार के छल–छद्म से काम लेती है। जब वह अपने प्रयत्नों में असफल हो जाती है, जैसा कि अमरीका में कहते हैं– 'ओल्ड मैड' हो जाती है, तो वह चर्च में सम्मिलित हो जाती है। उनमें से कुछ चर्च के काम में उत्साह प्रदर्शित करती हैं पर अधिकांश चर्च नारियां दुराग्रही होती हैं। वे यहां पादरियों के कठोर शासन में रहती हैं। वे और पादरी मिलकर पृथ्वी को नरक बनाते हैं और धर्म की मिट्टी पलीत करते हैं। (देखें– विवेकानंद साहित्य, भाग चार, पृ.250-51)
भविष्य में भारतीय नारी
स्वामी विवेकानंद समकालीन भारतीय महिलाओं की दुरावस्था से ही दु:खी नहीं थे बल्कि पराधीनता में जकड़ी भारत मां की अवस्था से भी क्षुब्ध थे। वे धर्म तथा आध्यात्म के अद्भुत प्रवक्ता होने पर भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के क्रियाकलापों से अप्रसन्न थे। उनकी राष्ट्र की कल्पना सुस्पष्ट थी। वे भारत को एक माता के रूप में देखते थे। वे भारत को केवल मिट्टी, पत्थर या भोगभूमि न मानकर इसे पुण्यभूमि, तपोभूमि तथा साधना भूमि मानते थे। उन्होंने उस पराधीनता के काल में भारत मां की आराधना करते हुए कुछ समय के लिए अन्य सभी देवी–देवताओं को भूलने को कहा। उन्होंने सिंहनाद करते हुए कहा था, 'आगामी पचास वर्षों तक तुम लोग एकमात्र 'जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी' की आराधना करो। इन वर्षों में दूसरे देवताओं को भूल जाने में कोई हानि नहीं है। दूसरे देवतागण सो रहे हैं । इस समय तुम्हारा एकमात्र देवता है तुम्हारा राष्ट्र। सभी स्थानों में इसका हाथ है। उसके सतर्क कर्ण सभी जगह मौजूद हैं। यह सभी स्थानों पर विद्यमान है।'
यह कहना अनुचित न होगा कि स्वामी विवेकानंद बीमारी की अवस्था में भी महिलाओं के पिछड़ेपन तथा दुरावस्था से चिंतित रहे। भगिनी निवेदिता को एक पत्र में उन्होंने लिखा 'दो शब्द कभी मत भूलो –नारी तथा व्यक्ति।' स्वामी विवेकानंद ने भारत की दो महत्वपूर्ण बुराइयां बताईं–महिलाओं से तिरस्कारपूर्ण व्यवहार तथा गरीबों को जातीय बंधनों में पीसना। परंतु उनको पूरा विश्वास था कि भारतीय नारी अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझा लेगी। उन्होंने महिलाओं को निर्भीक होकर कार्य करने का संदेश दिया। साथ ही चेतावनी भी दी कि आधुनिक भारतीय नारी आधुनिक विज्ञान का अध्ययन तथा उपयोग करे, परंतु अपनी प्राचीन सम्मानजनक तथा अतुलनीय बनाने में उसे पूर्णत: भयमुक्त करने में समाज तथा सरकार सहयोग करे।
स्वामी विवेकानंद की एक शिष्या भगिनी निवेदिता ईसाई होने के उनके बारे में नारी सुलभ भाव-भीने शब्द हैं, 'धन्य है वह देश जिसने उन्हें जन्म दिया। धन्य-धन्य हैं वे लोग जो उस समय पृथ्वी पर जीवित थे। धन्य-धन्य-धन्य है वे जिन्हें उनके चरणों में बैठने का सौभाग्य मिला।'
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