व्यंग्य वाण
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व्यंग्य वाण
विजय कुमार
पिछले रविवार को मैं समाचार पत्र के साथ चाय की चुस्कियां ले रहा था कि शर्मा जी आ टपके। उन्हें देखकर मैं चौंका। प्राय: पैंट–कमीज पहनने वाले शर्मा जी आज कलफदार कुर्ते–पाजामे में पूरे बगुला भगत लग रहे थे।
– क्या बात है शर्मा जी, आज ये नई वेशभूषा कैसे..?
– बात ये है वर्मा, कि मैंने भी अब जनसेवा करने का निश्चय कर लिया है। इसलिए वेश बदलना आवश्यक है।
– जनसेवा से वेश का क्या संबंध है ?
– तुम नहीं समझोगे, पर मैंने सुना है कि पार्टी के कई बड़े लोग तुम्हारे मित्र हैं। तुम्हें मेरे साथ उनके पास तक चलना होगा।
– पर जनसेवा का पार्टी से क्या लेना–देना है शर्मा जी ?
– तुम बिल्कुल भोंदू हो वर्मा। मैं इस बार अपने क्षेत्र से विधायक का चुनाव लड़ना चाहता हूं। चुनाव जीत कर ही तो जनसेवा होगी।
– पर शर्मा जी, आप जहां रहते हैं, वहां आपने कोई सामाजिक काम तो कभी किया नहीं है। लोग आपको वोट क्यों देंगे ?
– काम भले ही न किया हो, पर वहां का जातीय समीकरण तो मेरे पक्ष में है, और एक बार विधायक बन गया, तो जनसेवा और पेट भर मेवा साथ–साथ चलेगा।
– तो आपका उद्देश्य जनसेवा के नाम पर मेवा खाना है ?
– वर्मा जी, आजकल सब यही कर रहे हैं।
– पर यदि इस क्षेत्र से कोई और प्रबल दावेदार हुआ, तो.. ?
– तो वे मुझे पड़ोस वाले क्षेत्र से टिकट दे दें। वहां मेरी ससुराल है। उनका भी पूरे क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। मुझे तो जनसेवा करनी है, मैं वहां कर लूंगा।
– यानि आप जनसेवा किये बिना मानेंगे नहीं ?
– बिल्कुल नहीं। इसके लिए 25 लाख रु0 का प्रबंध मैंने कर लिया हैं। इतना ही मेरे मित्र और ससुराल वाले दे देंगे, और पार्टी ने टिकट दे दिया, तो कुछ खर्चा वह भी तो करेगी ?
– क्या एक विधानसभा के चुनाव में इतने पैसे लगते हैं ?
– कई लोग तो इससे भी अधिक खर्च करते हैं वर्मा जी।
– पर इतना खर्च करके उन्हें मिलता क्या है ?
– तुमने फिर भोंदूपने की बात की। एक बार जीतने की देर है, फिर तो वारे–न्यारे होते देर नहीं लगती। देखो, पक्ष में हों या विपक्ष में, नये बनने वाले बाजार में दुकान, नई कालोनी में प्लॉट, गांव का साप्ताहिक बाजार, जंगल, खनन, थाने आदि के ठेकों में नेताओं का हिस्सा रहता ही है। फिर इतने मंत्रालय और समितियां हैं, यदि किसी मालदार विभाग में पहुंच गये, तो पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाई में जाते देर नहीं लगती।
– अच्छा.. ?
– और क्या, यदि किसी एक दल को बहुमत न मिले, तो मोलभाव में भी अच्छे दाम मिल जाते हैं। गाड़ी, लेपटॉप, दावत, भत्ते, देश–विदेश की यात्रा और खरीद–फरोख्त अलग से हो जाती है। अब तो राज्यसभा में बड़े–बड़े धनपति जाने लगे हैं। वे एक वोट के लिए कई करोड़ रुपये दे देते हैं। चारों ओर से होने वाली इस धनवर्षा से पूरे खानदान के अगली–पिछली कई पीढ़ियों के संकट कट जाते हैं। खैर, जनसेवा के रास्ते तो बहुत से हैं, तुम जान कर क्या करोगे ? तुम तो बस मुझे अध्यक्ष और मंत्री जी से मिलवा दो।
– देखिये शर्मा जी, मेरी इस काम में कोई रुचि नहीं है। इसलिए आप मुझे क्षमा करें।
– वर्मा, ये ठीक नहीं है। तुम सोचते हो कि मेरे पास कोई और जुगाड़ नहीं है। मैं किसी न किसी तरह पार्टी वालों से मिल ही लूंगा। और यह भी सुन लो कि यदि इस पार्टी ने मुझे टिकट नहीं दिया, तो मैं उस पार्टी से ले लूंगा। अन्यथा निर्दलीय लड़ने का रास्ता तो है ही। जब मैंने निश्चय कर लिया है, तो जनसेवा करके ही रहूंगा।
शर्मा जी तो नाराज होकर चले गये, पर मुझे समझ आ गया कि चुनाव के दिनों में पार्टी के कार्यालयों में भीड़, नारेबाजी और मारपीट क्यों होती है। मुझे यह डर भी लगा कि यदि सब लोग जनसेवक हो गये, तो सेवा लेने के लिए क्या बाहर से लोग बुलाने पड़ेंगे ?
सरोकार
पीपल और दादी
n मृदुला सिन्हा
अपने सत्तर वर्षीय जीवन का आकलन करते हुए ऐसा लगता है कि पेड़-पौधे, नदी-पोखर, चांद-सूरज, हवा-बयार यहां तक कि कई पशु-पक्षियों को देखते ही सिर झुकाना दादी ने बचपन में ही सिखा दिया। उनके साथ गांव के एक छोर से दूसरे छोर तक निकलते समय न जाने कितनी बार सिर झुकाना पड़ता था। हमारा सौभाग्य था कि उस गांव में नदी-तालाब, ब्रह्म बाबा से लेकर सभी देवी-देवताओं के मंदिर थे। उनके पास से गुजरते हुए शीश झुकाना हमारी परंपरा थी। परंपराओं को बार-बार दुहराने से वह संस्कार बन जाती हैं। अभ्यास ही तो संस्कार है।
हां तो! उस दिन दादी के साथ गांव में घूमते हुए दादी ने ब्रह्म स्थान आने पर दूर से ही प्रणाम किया और मुझे भी सिर झुकाकर प्रणाम करने के लिए कहा। गांव के बगीचे में भिन्न-भिन्न प्रकार के फलों के वृक्ष थे। मैं एक-एक के आगे सिर झुकाती प्रणाम करती रही। दादी बहुत आगे बढ़ गई थीं। पीछे मुड़कर चिल्लाई-'कहां रुक गई? क्या करती रही?' मैं दौड़कर उनके पास गई। हांफती हुई बोली-'आपने ही तो पेड़ों को प्रणाम करने के लिए कहा था। वहां तो बहुत पेड़ थे।'
दादी की हंसी फूट गई। बोलीं-'अरी बाबली! बगीचे के किनारे पीपल का पेड़ था न! उसे ही प्रणाम करना था। औरों को नहीं।'
'क्यों! आम, लीची, कटहल और अमरूद के पेड़ों को क्यों नहीं। वे सब भी हमें मीठे फल देते हैं न! मैंने शिकायत की।
दादी ने कहा-'चल घर चलकर आराम से बताती हूं। पहले इस बड़े वृक्ष को प्रणाम कर।'
मैंने देखा तालाब के किनारे बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष था। वैशाख का महीना था। उस विशाल वृक्ष पर अनगिनत कोमल-कोमल, हरे-हरे पत्ते थे। मैंने सिर झुकाकर प्रणाम किया। वहां से हटने का मन नहीं कर रहा था। घर पहुंचकर दादी ने कहा-'पीपल के वृक्ष पर ब्रह्म बाबा बसते हैं। उनकी पूजा होती है।'
क्यों? और कैसे? के उत्तर दादी के पास नहीं होते थे। उनकी दादी ने जो कहा उन्होंने शत-प्रतिशत सच मान लिया था। अनेकानेक वृक्षों को छोड़कर मात्र पीपल के पेड़ पर ही ब्रह्म बाबा का निवास होने का कारण वे नहीं बता पाईं। पर शनिवार को पीपल में जल डालना, विवाह के दिन कन्या को ले जाकर पीपल के वृक्ष की पूजा करवाना उन्होंने बदस्तूर जारी रखा।
मेरे विवाह के दिन भी सुबह-सुबह मां से कह रहीं थीं-'जल्दी करो। मन्दिरों में जाना है। ब्रह्म बाबा को सबसे पहले पूजना है।' गीत गाती हुई महिलाओं का झुंड और पूजा करने के लिए मां के साथ हम सब ब्रह्म बाबा के पास पहुंच गईं। महिलाएं गाने लगीं-
झुमर खेले अइली ब्रह्म रउरे अंगना,
मांग टिकवा हेरायल ब्रह्म यही अंगना
ब्रह्म दीउन आशीष घर जायब अपना।'
अब जाकर बात समझ में आई कि पृथ्वी पर जन्म लेने वाला पहला वृक्ष पीपल ही है। और यह भी कि पीपल का वृक्ष सबसे अधिक ऑक्सीजन छोड़ता है। इसलिए तो ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के समय सबसे पहले पीपल की सृष्टि की। मनुष्य को जिन्दा रखने के लिए प्राणवायु (ऑक्सीजन) की जरूरत होती है। वह ऑक्सीजन देने वाला पीपल है। सदियों से भिन्न-भिन्न प्रकार से उसकी पूजा का आशय है कि हम पीपल का वृक्ष अपने आसपास लगाते रहें। कहीं उग गया तो उसे काटें नहीं। जहां मनुष्य वहां, पीपल चाहिए।
पीपल के वृक्ष में लगे फूल कोई नहीं देख सकता। फल आते हैं। फल है तो फूल भी होगा और बीज भी। बीज के बड़े छोटे दाने होते हैं। छोटे से बीज में छुपी होती है पीपल वृक्ष की विशाल काया। पीपल वृक्ष की आयु भी लम्बी होती है। यूं तो कई स्थानों पर पीपल की छोटी पौध को लगाया जाता है। अधिकांश स्थानों पर पौध अपने-आप जम जाती है। कोई उसे काटता नहीं, इसलिए वहीं जमकर बड़ा होता है। गर्मी हो या सर्दी पीपल के वृक्ष में आसपास के लोग पानी भी डालते हैं। अक्सर मकानों के प्लास्टर फाड़ कर चौदहवीं मंजिल पर भी पीपल उग आता है। हिन्दू उन्हें काटने से भी भय खाते हैं। पीपल पर ब्रह्य बाबा का निवास जो है। मुझे दादी ने ही बताया था- पीपल के पेड़ पर ही मलंग बाबा रहते हैं।
दादी तो ब्रह्य बाबा के बारे में अधिक नहीं बता सकीं। उनके लिए पीपल पर ब्रह्य बाबा हैं, बस! उन्हें और कोई शोध करने की जरूरत भी नहीं थी। पत्ते तो हर वृक्ष के डोलते हैं। पर पीपल की कोमल-कोमल असंख्य पत्तियों का डोलना पूछिए मत। नजरें नहीं हटतीं। विचित्र थरथराहट होती है। किसी फिल्मी गीतकार ने लिखा-
'पीपल के पतवा सरीखे डोले मनवा, कि जिअरा में उठेल हिलोर।'
हिलोर उठना पानी का स्वरूप है, हिलकोरे उठना। इस गीत में तो मन की स्थिति की तुलना पीपल के पत्ते के डोलने से कर दी। कहीं पीपल, कहां नदियां। तालाब किनारे अवश्य पीपल का पेड़ लगाने की परंपरा है।
दादी शनिवार के दिन अवश्य पीपल के वृक्ष में जल देती थीं। उनका कहना था शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्री हरि और फलों में सभी देवता निवास करते हैं। शनिवार को सभी देवता जागृत हो जाते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल, भगवान विष्णु का जीवंत और पूर्णत: मूर्तरूप है। गीता में भगवान ने कहा है-'समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं।'
सभी वेदों में पीपल के भिन्न-भिन्न रूपों का वर्णन है। आधुनिक विज्ञान में भी पीपल विश्व का अनूठा वृक्ष है। यह लोकमंगलकारी है। यह दिव्य और संरक्षक है। यह उपास्य भी है। इसलिए तो लोकमन ने पीपल को देवता के रूप में ही स्वीकार किया है, विभिन्न प्रकार से पूजा करते हुए।
दादी भी अजीब थीं। एक ओर तो पीपल की पूजा करती-करवाती थीं। दूसरी ओर रात को उसके नीचे अकेले जाने नहीं देती थीं। उन्होंने कहा था- 'श्मशान घाट में भी पीपल का वृक्ष होता है। अपने परिजनों की अंत्येष्टि के बाद थोड़ी सी अस्थियां (फूला) बीनकर उसी पीपल के वृक्ष में बांध दी जाती है। उसे घर नहीं लाते। वहीं से ले जाकर गंगा जी में विसर्जन करते हैं।'
दादी की बात तो मन में जम गई। लेकिन काफी पढ़ने-जानने-सुनने के बाद भी पीपल का महत्त्व और बढ़ा है। अपने पार्क के कोने का पीपल भी विशाल होता जा रहा है। प्रतिदिन निहारती हूं। चंचल हैं कोमल पत्तियां। पीपल की पत्तियों का गुण उनका हिलते रहना है। चंचलमना ये पत्तियां बिना हवा के भी हिलती हैं। तभी तो हमारी लोकसंस्कृति इन्हें पूजती है। जीवन को चलायमान बनाए रखने का संदेश देता है पीपल।
दादी की मृत्यु पर बाबूजी बहुत रोए थे। मैंने सोचा-'दादी को जलायेंगे नहीं।' पर वे भी दादी को जला कर आए। मैंने उनके लौटते ही पूछा था-'दादी की हड्डियां बीन कर पीपल के पेड़ में लटकाया?'
प्रथम तो मेरी उस जानकारी पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। जल्द समझ में बात आ गई कि मुझे दादी ने बताया था। वे सिसकते हुए बोले- 'आज नहीं। अभी तो आग भी नहीं बुझी। तीसरे दिन अपनी मां की अस्थियां चुनूंगा। पीपल के वृक्ष में लटकाऊंगा। फिर गंगा ले जाऊंगा।'
बाबूजी फिर बहुत रोए थे। अपने को शांत करते हुए बोले -'मेरी मां मरी नहीं। तुममें जीवित रहेगी।'
तब उनकी बात समझ में नहीं आई थी। अब बाबूजी और मां भी नहीं रहीं। दादी मेरे अंदर जीवित है। पीपल जीवित है, हू-ब-हू उसी रूप में जैसा दादी ने अंकित किया था। दादी और पीपल। दोनों दीर्घायु हैं। स्मृति में दादी भी अब पीपल जैसी ही लगती हैं। पीपल वृक्ष की कथाएं बताने वाली दादी भी तो अब कथा ही बन गई हैं। n
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