बात बेलाग
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बात बेलाग
कांग्रेस के 'युवराज' को नहीं मालूम कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी की दुर्गति क्यों हुई। इसलिए 20 हजार या उससे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवारों को बुला कर दिल्ली में दो दिन का दरबार जमाया। सभी को एक प्रश्नावली दी गई, जिसमें हार के कारण और सुधार के लिए सुझाव समेत 13 सवाल पूछे गए। है न मासूमियत की पराकाष्ठा? पिछले कई साल से 'युवराज' खुद 'मिशन यूपी' की कमान संभाले हुए थे। कभी किसी वंचित की झोपड़ी में रात गुजारने का नाटक कर रहे थे तो कभी दाड़ी बढ़ाकर अल्पसंख्यकों को रिझा रहे थे। कांग्रेस की वंशवाद की परम्परा के मुताबिक नेताओं के परिजनों को तो उदारतापूर्वक टिकट बांटे ही गए, एक-तिहाई टिकट अन्य दलों से आए दलबदलुओं को भी दिए गए। फिर ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यक कोटे का कार्ड भी चला गया, पर कोई दांवपेच काम नहीं आया। मतदाताओं ने घोषणाओं और वायदों के बजाय पुराने अनुभव को कसौटी बनाया और कांग्रेस को हाशिये पर ही रहने दिया। हैरत नहीं होनी चाहिए कि हार की इस समीक्षा में भी चाटुकारिता चरम पर दिखी। सभी उम्मीदवारों ने 'युवराज' की मेहनत की जम कर प्रशंसा की और चुनावी दुर्गति का ठीकरा संगठनात्मक कमजोरी के सिर फोड़ दिया। नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रीता बहुगुणा जोशी प्रदेश अध्यक्ष पद से पहले ही इस्तीफा दे चुकी हैं, सो अब वह स्वीकार हो जाएगा। सख्ती का संदेश देने के लिए कुछ और नेताओं पर भी गाज गिर सकती है। पर इस सवाल से सभी मुंह चुरा रहे हैं कि संगठनात्मक कमजोरी पहले 'मिशन यूपी' के दौरान क्यों नहीं दिखी? यह भी कि मजबूत संगठन बनाने वाला कोई बाहर से आएगा क्या?
पंजाब का दंगल
उत्तर प्रदेश एकमात्र राज्य नहीं है, जहां कांग्रेस की चुनावी दुर्गति के बाद रार मची हुई है। पंजाब में हर चुनाव में सरकार बदल जाने की परम्परा रही है। सो, कांग्रेस सत्ता के सपने देख रही थी, लेकिन मतदाताओं ने शिरोमणि अकाली दल-भाजपा सरकार के सुशासन पर मुहर लगाते हुए उन्हें चकनाचूर कर दिया। लोकतंत्र का तो तकाजा है कि हार के बाद आत्ममंथन किया जाए, पर सत्ता की मलाई हाथ आते-आते दूर छिटक जाना कांग्रेसियों के गले नहीं उतर रहा। इसलिए चुनाव में अपने-अपने परिजनों को टिकट दिलवाने के लिए साठगांठ कर लेने वालों में अब मोर्चाबंदी हो गयी है। फिलहाल सबके निशाने पर प्रदेश अध्यक्ष कैप्टन अमरेन्द्र सिंह हैं, जो अपनी राजसी जीवन शैली के चलते वैसे भी अक्सर विवादों में रहते हैं। कैप्टन के विरुद्ध पंजाब कांग्रेस में नाराजगी कितनी ज्यादा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजेन्द्र कौर भट्ठल समेत ज्यादातर पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एकजुट हो गए हैं। इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि इनके आपसी रिश्ते मधुर हैं, पर वह कहावत है न कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है।
सौदेबाजी बेनकाब
दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी हैं जो मजहबी नेता हैं, पर उनकी छवि अल्पसंख्यक मतों के सौदागार की बनकर रह गयी है। हर चुनाव से पहले वह किसी राजनीतिक दल से सौदेबाजी कर उसे सेकुलर और अल्पसंख्यक हितैषी होने का प्रमाणपत्र देते हैं। इस बार भी यही हुआ। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले बुखारी ने मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी को यह प्रमाणपत्र दिया। एवज में उनके दामाद को सहारनपुर की मुस्लिम बहुल सीट से टिकट दिया गया, पर वह बुरी तरह हार गए। इसके बाद सपा ने उन्हें विधान परिषद का टिकट दे दिया, पर सौदेबाजी शायद ज्यादा की हुई थी। सो बुखारी बिदक गए। सपा के बड़बोले मुस्लिम नेता आजम खां से उनका छत्तीस का आंकड़ा पुराना है। इसलिए नाराजगी जगाते हुए उन पर भी निशाना साध लिया। आजम भी कहां चूकने वाले थे सो पोल खोल दी कि बुखारी अपने दामाद के लिए राज्य में मंत्री पद के साथ-साथ अपने चहेतों के लिए राज्यसभा और विधान परिषद् भी चाहते हैं। मुलायम से मुलाकात के बाद बुखारी कह रहे हैं कि बात मान ली गई है, लेकिन सौदेबादी तो बेनकाब हो ही गयी है।
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