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नकल के रोग से कब मुक्त होगी हमारी परीक्षा प्रणाली?

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Apr 16, 2012, 12:00 am IST
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नकल के रोग से कब मुक्त होगी हमारी परीक्षा प्रणाली?

दिंनाक: 16 Apr 2012 13:42:54

n  लक्ष्मीकान्ता चावला

बीते सप्ताह हरियाणा के सोनीपत में नकल में सहयोग न देने पर छात्र द्वारा एक अध्यापक की हत्या के मामले ने हमारी शिक्षा व्यवस्था में लगे नकल के घुन की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया है। उधर, 11 अप्रैल को उत्तर प्रदेश बोर्ड की इंटरमीडिएट परीक्षा का एक प्रश्न पत्र कई स्थानों पर लीक हो जाने और खुलेआम बिकने से भी हमारी परीक्षा प्रणाली पर सवाल खड़े होते हैं। पंजाब, हरियाणा. उ.प्र. जैसे राज्यों में तो परीक्षा के दिनों में कई शिक्षण संस्थाओं में नकल का बोलबाला रहता है। कहीं विद्यार्थी और उनके परिजन नकल के लिए दोषी पाए जाते हैं और बहुत सी ऐसी घटनाएं भी देखने-सुनने को मिलती हैं जहां विद्यार्थी अध्यापकों की मदद से नकल करते हैं। यह मदद कहीं-कहीं तो अध्यापकों और स्कूल प्रबंधकों की सक्रियता के साथ चलती है और कुछ स्थानों पर इनका मौन समर्थन व सहयोग रहता है।

प्रति वर्ष इन दिनों समाचार पत्रों में नकल करने, करवाने तथा शिक्षा अधिकारियों द्वारा विद्यार्थियों पर मुकदमे बनाने के समाचार मिलते रहते हैं। हरियाणा में इस वर्ष लगभग चौबीस सौ विद्यार्थियों पर परीक्षा में अवैध साधनों का प्रयोग करने के कारण मुकदमे दर्ज हुए। अमृतसर का एक समाचार है कि एक केन्द्र निरीक्षक के जाने के बाद स्कूल प्रबंधक ने उत्तर पुस्तिकाओं के बंडल की सील तोड़कर विद्यार्थियों को फिर से लिखने का अवसर दिया। कहीं-कहीं तो परीक्षा के दौरान गोली भी चल गई और शहरों से दूर कुछ क्षेत्रों में परीक्षा केन्द्रों के आस-पास पुलिस की मदद से भीड़ को हटाना पड़ा।

हम सबका यह स्वभाव है कि बीते समय को कुछ ज्यादा अच्छा मानते हैं। इसलिए प्राय: यह सुनने को मिलता है कि आज से दो-तीन दशक पहले तक नकल नहीं की जाती थी और उसे बुरा भी माना जाता था। लंबे अध्यापन कार्य के अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकती हूं कि तीन दशक पहले भी नकल करने-कराने वालों का बोलबाला था, यद्यपि नकलचियों की संख्या कम थी। प्रभावशाली व्यक्तियों के बच्चों तथा शिक्षण संस्थानों में कार्य कर रहे अध्यापकों और कर्मचारियों के परिवारों तक ही नकल का लाभ सीमित था। उन दिनों भी इसके लिए सिफारिश चलती थी। जो परीक्षा केन्द्रों पर 'सुपरवाइजर' और अधीक्षक नियुक्त होकर आते थे उनकी सेवा पूजा वैसी ही की जाती थी, जैसी आजकल पोलिंग बूथों पर नियुक्त होकर आने वाले कुछ अधिकारियों की सेवा की जाती है। चुनाव आयोग के प्रभावी होने के बाद पोलिंग बूथों पर तो नियंत्रण हो गया, लेकिन शिक्षण संस्थाओं पर नहीं हो सका। यह कड़वा सच है कि जिन संस्थाओं का प्रबंध सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक दलों के नेताओं से जुड़ा रहता है वहां अधिक रोक-टोक नहीं रहती। आप जानते ही हैं कि सैंया कोतवाल हो जाएं तो डर रहता नहीं।

मेरा अभिप्राय यह नहीं कि हर संस्था और हर अध्यापक नकल करवाते हैं, लेकिन यह सच है कि जो अध्यापक इस कार्य में अपने उच्चाधिकारियों अथवा शिक्षा केन्द्र के प्रबंधकों को उनकी इच्छा पूरी करने में सहयोग नहीं देते, उन्हें बहुधा परेशान किया जाता है और कोई उपाय न मिले तो ऐसे कर्मचारियों को परीक्षा केन्द्रों से दूर रखा जाता है।

यह सच है कि नकल की बीमारी छूत के रोग की तरह बढ़ती जा रही है। पर अब यह सोचने का समय है कि जो सुविधाएं बच्चों को बहुत संजीदगी के साथ भारत सरकार ने शिक्षा अधिकार के रूप में दी हैं, उनके साथ नकल करना-करवाना कहीं मजबूरी तो नहीं हो जाएगा? सरकार ने प्रत्येक स्कूल में जो निर्देश भेजे हैं उन्हें दीवार पर लिखने के लिए सात सौ रुपए प्रति स्कूल भी दे दिए हैं और आदेश यह है कि इन निर्देशों को मोटे शब्दों में वहां लिखा जाए जहां सभी पढ़ सकें। इस आदेश का पालन भी अक्षरश: हो गया है।

बच्चे को वर्ष में कभी भी स्कूल में प्रवेश दे दिया जाए, जन्मतिथि प्रमाणपत्र और पिछला स्कूल छोड़ने का कोई प्रमाणपत्र नहीं है तो भी विद्यार्थी को दाखिला मिलेगा ही। कुछ वर्ष पहले तक यह नियम था कि लड़का लगातार छह दिन और लड़की दस दिन तक स्कूल में न आए तो उसका नाम काटा जा सकता था। पर अब कानून यह बना कि स्कूल में न आने वाले विद्यार्थी का नाम भी नहीं काटा जाएगा तथा आठवीं तक किसी भी बच्चे को परीक्षा में अनुत्तीर्ण नहीं करना है। यानी उसे अगली कक्षा में स्थान मिलेगा ही। अर्थात् आठवीं तक कोई भी बच्चा स्कूल में अधिकतर अनुपस्थित रहे अथवा हर वर्ष पढ़ाई में पीछे रहकर निश्चित मापदंड भी पूरे न कर पाए, फिर भी वह एक सोपान पार करके अगली श्रेणी में पहुंच जाएगा। यह नियम बनाने वालों ने इसके दुष्परिणामों कक्षा पर शायद विचार किया नहीं। नौवीं एवं दशमी कक्षा में ये बच्चे किस योग्यता के साथ अपना भविष्य संवार सकेंगे और दसवीं में बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण कर पाएंगे? यह प्रश्न सुरसा के मुंह की तरह शिक्षा जगत के सामने खड़ा है, पर कोई भी उत्तर देने को तैयार नहीं।

नि:संदेह यही नियम निजी स्कूलों के लिए भी है। पर कौन नहीं जानता कि उन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे समय पर और नियमित रूप से विद्यालय में आते हैं, पढ़ते हैं और अपनी संस्था द्वारा ली जाने वाली मासिक परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं। उनके मात-पिता भी इस कार्य में सहयोग देते हैं। इसके विपरीत अधिकतर सरकारी स्कूलों में बच्चे और उनके माता-पिता यह समझते हैं कि जब इच्छा हो उनके बच्चे स्कूल में जाएं, क्योंकि अध्यापकों को यह पूछने का अधिकार ही नहीं रहा कि अनुपस्थिति का कारण क्या है। सरकार ने कड़वे करेले पर नीम यह कहकर चढ़ा दी कि परीक्षा के दिन भी विद्यार्थी अनुपस्थित रहे, तो जब वह स्कूल में आए तब उसकी परीक्षा ली जाए। जिस देश में असंख्य बच्चे केवल पेट की आग बुझाने और दोपहर के भोजन की प्रतीक्षा में शिक्षा केन्द्रों में जाते हैं वे ऐसा अनुशासनहीन, अनियमित वातावरण में पढ़ने के लिए कितना ध्यान देंगे या मेहनत करेंगे यह सभी अनुमान लगा सकते हैं।

अब बात फिर नकल की है। विद्यार्थियों को दसवीं श्रेणी तक पहुंचना है और बोर्ड की परीक्षा में अगर अध्यापकों के अधिक विद्यार्थी असफल हो जाएं तो उनको वार्षिक तरक्की मिलेगी नहीं। क्या यह नहीं होगा कि वार्षिक वेतन वृद्धि को सुरक्षित रखने के लिए अब नकल कुछ ज्यादा ही करवाई जाएगी? केन्द्र सरकार को शिक्षा का अधिकार तो देना ही चाहिए था और वह पूरे देश को मिल भी गया, पर नियम बनाने वालों ने यह ध्यान नहीं रखा कि जिन बच्चों को लक्ष्य करके यह अधिकार दिया गया है वे किस आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्थिति में रहते हैं। शिक्षाविदों को भारत सरकार के मानव संसधान मंत्रालय को यह समझा देना चाहिए कि जो निर्देश स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए दिए, लिखवाए और पढ़ाए जा रहे हैं उनसे विद्यार्थियों का एक बड़ा वर्ग अनुशासनहीन हो जाएगा। योग्यता में पीछे रह जाएगा। वह वर्ग साक्षर जरूर हो जाएगा, पर शिक्षित नहीं। जिन बच्चों का शैक्षिक स्तर स्कूलों में ही पिछड़ जाएगा वे उच्च शिक्षा के लिए कालेज और विश्वविद्यालयों तक प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करके कैसे पहुंचेंगे, नकल की बैसाखियों के सहारे स्कूल बोर्ड तक तो किसी तरह ये छात्र-छात्राएं पहुंच जाएंगे। उसके पश्चात् कौन उन्हें आगे बढ़ने के लिए सहारा देगा और कौन उनकी इस असमर्थता के लिए उत्तरदायी होगा? यह अभी से विचार हो जाए तो बेहतर रहेगा, अन्यथा खेत चुग जाने के बाद पछताना पड़ेगा। फिर वही होगा, स्कूलों में नकल, अखबारों में समाचार, नकल के केश भुगतते बच्चे और माता-पिता। और नकल करवाने वाली संस्थाओं में परीक्षा केन्द्र बना रहे, इसके लिए सिफारिश करते कुछ ताकत वाले अपना जौहर दिखाते रहेंगे। पर राष्ट्र की जो क्षति होगी उसे कौन पूरा करेगा, यह राष्ट्र के जागरूक शिक्षाविदों को विचार करना चाहिए। n

डा. अखिलेश साह

नि:स्वार्थ सेवा के सारथी

बिहार के गोपालगंज जिले के उचकागांव प्रखण्ड अन्तर्गत लाइन बाजार के रहने वाले डा. अखिलेश साह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। साह विगत 15 वर्ष से असहाय एवं गरीब रोगियों का नि:शुल्क इलाज कर रहे हैं। 1 सितम्बर, 1971 को जन्मे डा. साह बचपन से ही मानवता की सेवा के लिए कृत संकल्पित थे और अपने सपनों को उन्होंने दृढ़ इच्छा शक्ति और कठिन परिश्रम से प्राप्त करके ही दम लिया।

फुलवरिया, उचका गांव तथा बड़का गांव प्रखण्ड के दर्जनों ऐसे गांव हैं, जहां प्राथमिक स्वास्थ्य तक की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए आम लोगों को आए दिन जूझना पड़ता है। गरीबी और अशिक्षा के कारण यहां के लोग किसी बीमारी का इलाज कराने के लिए किसी बड़े डाक्टर के पास जाने से कतराते हैं। डा. साह को कई बार इन दूर-दराज के गांवों में रोगियों के इलाज के लिए जाना पड़ता था। यहां की दयनीय अवस्था को देखकर डा. साह का मन द्रवित हो गया और उन्होंने इन गांवों के लोगों की सेवा करना ही अपना उद्देश्य बना लिया। आज के दौर में एक सामान्य चिकित्सक पैसे के लिए रोगी के जीवन के साथ खिलवाड़ करने में नहीं चूकता है। ऐसे में डा. साह का प्रयास यहां के आम लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। साह स्वयं यह स्वीकारते हैं कि वे किसान परिवार से संबंध रखते हैं और स्वयं इन समस्याओं से जूझ चुके हैं। उनके पिताजी स्व. बेचू साह ने अपना सब कुछ दांव पर लगाकर बेटे के सपनों को साकार किया। डा. साह ने बनारस की आयुवेर्दिक चिकित्सा परिषद् से बी.ए.एम.एस. की उपाधि ली है। डा. साह कहते हैं, वे बाबा विश्वनाथ की कृपा से लोगों की सेवा कर पा रहे हैं। पैकौली नारायण, सेलार, अमठा, सिसवनिया, ब्रह्ममाईन, बरगछिया, बैरिया, विश्पुनपुरा, लाइनबाजार, मगहा, अहिरौली, माड़ीपुर, फुलवरिया, जग्रनाथा, विरोठी आदि गांवों में उनकी सेवा चलती है। जब भी कहीं से कोई बुलावा आता है डा. साह चल पड़ते हैं। रोगी को देखकर दवाई देते हैं और फिर लौट आते हैं। उनकी इस नि:स्वार्थ सेवा के कारण पूरे क्षेत्र में डा. साह की एक अलग पहचान बन चुकी है।  n संजीव कुमार

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