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इतिहास दृष्टि

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Apr 16, 2012, 12:00 am IST
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दिंनाक: 16 Apr 2012 13:26:26

इतिहास दृष्टि

डा.सतीश चन्द्र मित्तल

पाश्चात्य का अंधानुकरण उचित नहीं

पुरानी नींव, नया निर्माण

15 अगस्त, 1947 को मिली भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय राजनीतिक गलियारे तथा सामाजिक रचना में परानुकरण की दौड़ इतनी तीव्र गति से हुई जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यह परानुकरण या पाश्चात्य अंधानुकरण भारत की प्रगति तथा सफलता का मापदंड बन गया। गत 65 वर्षों के अनुभवों के आधार पर यह सहज रूप से कहा जा सकता है कि तत्कालीन राजनेताओं तथा प्रशासकों का देश के आधुनिकीकरण तथा प्रगति के लिए कल्पित मापदंड सर्वथा थोथा तथा भारतीय चिंतन के विपरीत था। संभवत: महात्मा गांधी, सरदार पटेल, डा.अम्बेडकर जैसे  राष्ट्रवादी नेता यदि कुछ और समय जीवित रहते तो भारत की प्रगति का मार्ग सर्वथा भिन्न होता। देश के तत्कालीन नेताओं ने आधुनिकीकरण का अर्थ पाश्चात्य अंधानुकरण समझा तथा इससे भारत का चित्र सुंदर, स्वस्थ, सुखद तथा भारतीयता के अनुकूल होने की बजाय अधिक विकृत, भ्रामक तथा देश की स्वाभाविक उन्नति में बाधक हो गया।

आधुनिकीकरण का अर्थ

आधुनिकीकरण एक सामान्य शब्द है जिसका प्रयोग तीव्र सामाजिक परिवर्तन के लिए किया जाता है। इसका अंग्रेजी शब्द 'मॉडर्न' लैटिन भाषा से लिया गया है। इसका प्रयोग छठी शताब्दी में समकालीन तथा प्राचीन लेखकों की रचनाओं का अंतर समझाने के लिए किया जाता था। बाद में अंग्रेजी भाषा में भी इसका प्रयोग होने लगा। 17वीं शताब्दी में इस शब्द का प्रयोग सीमित अर्थों में तथा तकनीकी दृष्टि से किया जाता था। 19वीं शताब्दी में आधुनिक (मॉडर्न) शब्द एक सामान्य शब्द बन गया, जिसका प्रयोग तकनीकी, आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक संदर्भ में विकसित देशों की विशेषताओं के लिए किया जाने लगा। वस्तुत: आधुनिकीकरण एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें निरन्तर नवीन परिवर्तन होते रहते हैं। परंतु यह सतत् परिवर्तन की प्रक्रिया विकासशील भी हो सकती है तथा सापेक्षिक भी।

प्रमुख समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास ने भारत के संदर्भ में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को संस्कृतिकरण के संदर्भ में बताया है। उन्होंने इसे सांस्कृतिक गतिशीलता के रूप में देखा। सांस्कृतिक परिवर्तन को भारतीय समाज की एक अन्तर्जनित प्रक्रिया माना तथा पश्चिमीकरण को एक बाहरी प्रक्रिया। प्रमुख इतिहासकारों ने ब्रिटिशकालीन आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में सांस्कृतिक आक्रमणों, राजनीतिक परिवर्तनों के साथ पाश्चात्य विचारों तथा शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में सर्वोच्च स्थान दिया।

पश्चिमी अंधानुकरण के आयाम

स्वतंत्रता के पश्चात देश के नेतृत्व ने भारत के स्वाभाविक विकास के स्थान पर इसे तीव्र गति से पश्चिमीकरण की ओर धकेला। इस कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पश्चिमीकरण की आंधी चली। यह भारत की प्रगति तथा उन्नति का मापदंड बन गया। पश्चिम की भौंडी नकल ने उसकी आध्यात्मिकता तथा सांस्कृतिक पहचान को ही भ्रामक तथा गतिहीन बना दिया। पश्चिमीकरण की दौड़ ने भारतीय जनमानस को दिशाहीन बना दिया। कुछ उदाहरण देकर इसे स्पष्ट करना उचित होगा।

सर्वप्रथम यह पश्चिमी अंधानुकरण भारत के संविधान के निर्माण में हुआ। पंडित नेहरू की प्रारंभ से इच्छा थी कि भारत के संविधान को ब्रिटेन के संविधान विशेषज्ञ सर आइवर जेनिंग्स से बनवा लिया जाए, पर यह संभव न हुआ। डा.राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान की मूल प्रति पर हस्ताक्षर करते हुए भी आपत्ति जताई, क्योंकि इसकी मूल प्रति अंग्रेजी में है। संविधान को 'इंडिया दैट इज भारत' कहा गया, जो पाकिस्तान के बनने के पश्चात भी भारत की हिन्दुत्व की पहचान के विपरीत था। इस संविधान में भारतीय गौरव को दर्शाने वाले 22 चित्र लगाये गये, जिसमें राम, कृष्ण, शिवाजी, रानी झांसी आदि के चित्र थे, जो बाद में गायब कर दिये गये। आज जो संविधान है, वह उन चित्रों सहित नहीं है। भारतीय संविधान का 75 प्रतिशत भाग अंग्रेजों द्वारा भारत के लिए बनाए गए 1935 के अधिनियम तथा शेष पाश्चात्य देशों की नकल मात्र है, जिसमें भारत की आत्मा तथा संस्कृति नदारद है। रही–सही कसर आपातकाल के दौरान 1976 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने संविधान की मूल उद्देशिका को बदलकर पूरी कर दी। संभवत: इसीलिए भारत के 99 प्रतिशत लोग संविधान नहीं पढ़ते।

आर्थिक जगत में

आर्थिक जगत में देश के नेताओं ने भारतीय संस्कृति की मूल चिंतन धारा को छोड़कर आर्थिक शोषण का मार्ग अपनाया। पश्चिम की भौंडी नकल की। महात्मा गांधी का हिंद स्वराज के स्वप्नों को धता बताकर, भारतीय ग्रामों को गंदगी के ढेर बताकर, देश का शहरीकरण, कुटीर उद्योगों को नष्ट कर भारी औद्योगिकीकरण तथा कृषि का वाणिज्यीकरण किया। ग्रामों पर आधारित कृषि प्रधान देश तेजी से उजड़ा। अत्यधिक मशीनीकरण से देश में बेरोजगार नवयुवकों की फौज खड़ी हो गई। अमीर तथा गरीब का अंतर बेहिसाब बढ़ा। सोवियत रूस की नकल पर पंचवर्षीय योजना तथा उनका बढ़ा–चढ़ाकर असंतुलित मूल्यांकन किया गया। परिणामत: भारत विश्व में भुखमरी, गरीबी, किसानों द्वारा आत्महत्याओं में पीड़ादायक आंकड़ों की स्थिति में पहुंच गया। भारत घोटालों, कालेधन तथा भ्रष्टाचार में विश्व में अग्रणी हो गया।

सांस्कृतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में

पाश्चात्यकरण की होड़ में भारत के सांस्कृतिक जीवन मूल्य, वैशिष्ट्य और आध्यात्मिकता उपहास का विषय बना दिए गये। विश्व के एकमात्र हिन्दू देश भारत में हिन्दू ही साम्प्रदायिक बताया  जाने लगा। भारत की संस्कृति अब मिली–जुली संस्कृति कही जाने लगी। स्वार्थों के लिए मुस्लिम तथा ईसाई तुष्टीकरण बढ़ा। 'सेकुलर' के नाम पर हिन्दू संतों तथा भक्तों को प्रताड़ित तथा अपमानित किया गया। उच्च संस्कृति का प्रकटीकरण भौंडे तथा नग्न चलचित्रों, कलाकृतियों में किया गया। पाश्चात्य अंधानुकरण के लोभी भारतीय चिंतन के विशेषज्ञ बन गए।

शिक्षा, साहित्य तथा भाषा

पाश्चात्यकरण के कारण युगों–युगों से भारतीय समाज को प्रेरित करने वाली संस्कृत भाषा को कुछ लोग 'मातृ भाषा' के स्थान पर 'मृत भाषा' भी कहने का दुस्साहस करने लगे। महात्मा गांधी ने जीवन भर अंग्रेजी भाषा का विरोध किया, अब वही अंग्रेजी प्रारंभिक स्तरों पर  छोटे–छोटे शिशुओं तथा बालकों पर थोपी जा रही है। शिक्षा जगत में मौलिकता को समाप्त कर रटंत शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। जो काम मैकाले और मार्क्स न कर सके, ये पाश्चात्यकरण के लोभी भारतीय करने लगे हैं। पाठ्य पुस्तकों में से वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत का अध्ययन हटा दिया गया है। उन्हें गीता के ज्ञान में भी साम्प्रदायिकता की 'दुर्गंध' आने लगी है। इतिहास की पुस्तकों में बालीवुड तथा क्रिकेट आ गया है। विद्यालयों में प्रार्थना, वंदेमातरम् के निर्वासन के प्रयास भी किए जाते रहे हैं।

सामाजिक जीवन

आधुनिकीकरण के आवरण में पाश्चात्य अंधानुकरण की विष वेल सर्वाधिक फैली। पंम्परागत संस्थाओं तथा संस्कार व्यवस्था का महत्व कम हो गया। देश के नेताओं ने इतिहास में पहली बार जातिगत जनगणना तथा देश की राजनीति में जातियों के आधार पर व्यावहारिक रूप से भारत के अन्य भक्तों, संतों तथा सामाजिक सुधारकों के प्रयत्नों को विफल करने का कुप्रयास किया है। नैतिक मूल्यों का तीव्र गति से हृास हुआ। पाश्चात्यकरण के प्रभाव में भारतीयों की मानसिकता की चिंता न कर समलैंगिकता को प्रोत्साहन दिया गया। इसी कारण विवाह विच्छेद, वेश्यावृत्ति, यौन अपराध बढ़े हैं। सामाजिक असुरक्षा, महिलाओं से बलात्कार, बाल अपराध तीव्रता से बढ़े हैं। आश्चर्य है कि अब भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा तथा कांग्रेस नेता ममता शर्मा किसी लड़के के किसी लड़की को 'सैक्सी' कहने का अर्थ सुंदर अथवा 'चार्मिंग' मानती हैं। संभवत यह पाश्चात्य जगत में या बॉलीवुड क्षेत्र में सम्मान तथा आदरयुक्त हो, परंतु भारतीय चिंतन में कभी भी सही नहीं माना गया। यह तब जबकि राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान शाखा के अनुसार केवल एक वर्ष (2009-10) में नाबालिगों का यौन शोषण 186 प्रतिशत बढ़ा है।

विश्वव्यापी दृष्टि

वस्तुत: आधुनिक या कहें पाश्चात्य शब्दावली 'भूमंडलीकरण' भारत के लोक जीवन का अंग नहीं है। उपभोक्तावाद, वाणिज्यीकरण, व्यापारिक लूट, परस्पर भूमंडलीय तनाव तथा संघर्ष भारत के वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे सुखिन: भवन्तु वाले चिंतन में स्थान नहीं पाते। पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत में पाश्चात्य अंधानुकरण कभी भी इतना तीव्र गति से नहीं हुआ जितना स्वतंत्रता के पश्चात्। वस्तुत: यह पाश्चात्यकरण भारत की विशिष्ट पहचान के लिए विनाशकारी होगा। भारतीयों को आधुनिकीकरण के लिए अपनी नूतन सूझ-बूझ तथा पुरातन गरिमा को कभी नहीं भुलाना चाहिए। आधुनिक कार्य योजना में शिक्षा, भाषा, संस्कृति, आध्यात्मिकता तथा संस्कार की पुरातन दृष्टि के साथ नवनिर्माण करना चाहिए। आवश्यक है कि पूरब-पूरब ही रहे, पश्चिम न बने। आवश्यक है कि देश की युवा शक्ति स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद के मार्ग पर चलकर भारत राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने तथा राष्ट्रोत्थान के कार्य में आगे +ɪÉä*n

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