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कश्यपमर्ग से कश्मीर

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Apr 16, 2012, 12:00 am IST
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कश्यपमर्ग से कश्मीर

दिंनाक: 16 Apr 2012 12:36:54

नीलमत पुराण में लिखित कश्मीर घाटी की उत्पत्ति का आधुनिक संदर्भ में कथामय रोचक वर्णन

 नरेन्द्र सहगल

नैसर्गिक सौंदर्य से ओत-  प्रोत हिमालय की गगनस्पर्शी चोटियों की गोद में स्थित टसुरम्य कश्मीर घाटी का वास्तविक नाम कश्यपमर्ग था। यह पावन भूमि समुद्रतल से 5000 फीट ऊंची होने के कारण भारत मां का मस्तक कहलाती है। स्वर्ग की कल्पना को साकार करने की क्षमता रखने वाली इस घाटी का निर्माण मनुष्य ने किया होगा ऐसा विश्वास सत्य को झटका देने के समान है। अवश्य ही इस मोक्ष भूमि को विधाता ने स्वयं अपने सुंदर हाथों से गढ़ा होगा, या फिर किसी महान संत-महात्मा ने अपनी घोर तपस्या से इस सुंदर स्थान का निर्माण किया होगा। नीलमत पुराण के श्लोक क्रमांक 292 में इसी सत्य को प्रकट किया गया है। अर्थात् सर्वप्रथम प्रजापति महर्षि कश्यप ने अति घोर तपस्या करके कश्मीर का निर्माण किया था। वे सर्वहितकारी थे।

नीलमत पुराण में वर्णित कथा के अनुसार भारत का प्राय: सारा क्षेत्र एक भयानक जल प्रलय के परिणामस्वरूप पानी से भर गया। कालांतर में भारत के सभी प्रांत पानी निकल जाने के कारण मनुष्यों के जीवन-यापन के योग्य हो गए और वहां सारी सामाजिक व्यवस्थाएं स्थापित हो गईं। परंतु भारत के उत्तर में हिमालय की गोद में एक विशाल क्षेत्र अभी जलमग्न ही था। इस अथाह जल ने एक बहुत बड़ी झील का रूप बना लिया। तत्पश्चात् इस झील में ज्वालामुखी फटने जैसी क्रिया हुई और झील के किनारे वाली पर्वतीय चोटियों में अनेक दरारें पड़ने से झील का पानी बाहर निकल गया।

सती देश

एक सुंदर स्थान उभरकर आया, क्योंकि यह स्थान (प्रदेश) अग्नि की शक्ति ज्वालामुखी विस्फोट से बना था और अग्नि की शक्ति को पौराणिक मतानुसार सती कहते हैं। इसलिए पौराणिक भूमि विशेषज्ञों ने इस प्रदेश का नाम सती देश रखा।

इस भूखंड के मनोहर रूप एवं अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य ने देवताओं तक को भी चकाचौंध कर दिया। अपने सेवा भाव और लोकोपकारी कार्यों के लिए प्रसिद्ध पौराणिक महर्षि कश्यप ने अपने प्रबल आत्मविश्वास और अजेय भुजबल के आधार पर आगे बढ़कर इस भूखंड को लोगों के निवास योग्य बनाने का निश्चय किया और अपने श्रमिक दलबल (मजदूर भाई) के साथ पर्वतों की कटाई एवं भूमि का समतलीकरण प्रारंभ कर दिया। सारा कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया परंतु पानी को स्थाई रूप से बहने का मार्ग देने के लिए एक नदी की आवश्यकता थी।

कश्यप ने शंकर से सहायता मांगी। शंकर ने तुरंत नदी बनाने के लिए विशेषज्ञों के दलों को भेजा। कश्यप ने खुदाई का मुहूर्त्त करने के लिए शंकर से ही आग्रह किया। शंकर ने अपने त्रिशूल से धरती में पहली चोट करके एक वितस्ती (बलिश्त) जितनी भूमि खोद कर खुदाई अभियान प्रारंभ किया। अत: वितस्ती मात्र स्थान से निकलने के कारण इस नदी का नाम वितस्ता पड़ा (जिसे आज झेलम कहते हैं)। इस प्रकार इस नदी ने पत्थरों की बड़ी-बड़ी शिलाओं को हटाकर, तोड़कर, अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त किया और अनेक क्षेत्रों की प्यास बुझाती हुई एवं कृषि भूमि को उपजाऊ बनाती हुई सिंधु नदी में जा मिली।

जब यह क्षेत्र पूर्ण रूप से समतल हो गया और वितस्ता (झेलम) नदी के घाट इत्यादि बनकर तैयार हो गए तब महर्षि कश्यप ने भारत के अन्य प्रांतों से लोगों को यहां आकर बसने का विधिवत निमंत्रण भेजा। उनके निमंत्रण को शिरोधार्य करते हुए भारत के कोने-कोने से सभी वर्गों एवं जातियों के लोग पहुंचे। योग्यतानुसार, नियमानुसार एवं क्रमानुसार कश्यप मुनि के ऋषि मंडल (स्टाफ) ने सबको भूमि आवंटित कर दी। कश्यप की नाग जाति एवं अन्य वर्गों के लोगों ने नगर-ग्राम बसाए और देखते ही देखते सुंदर घर, मंदिर आदि बन गए। यह सारा कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद अब प्रश्न खड़ा हुआ कि इस प्रदेश का शासन किसे सौंपा जाए। तो सर्वसम्मति से जनता ने कश्यप के पुत्र नील को राजा घोषित कर दिया।

इस प्रकार नील कश्मीर देश के प्रथम राजा हुए। उन्होंने बड़ी कुशलता से प्रदेश का प्रशासन संभाला।

कश्मीर में इन्द्र और शची

अब कश्मीर की ख्याति दूर-दूर तक पहुंची। इस ख्याति को सुनकर एक अन्य राजा इन्द्र (स्वर्ग नामक प्रदेश के अध्यक्ष) को भारत के इस सबसे बड़े और मनोरम पर्वतीय स्थान (हिल स्टेशन) पर घूमने की इच्छा हुई। राजा नील के द्वारा दी गई सुविधाओं के कारण यह क्षेत्र संसार का बहुत बड़ा पर्यटन केन्द्र बन चुका था। अत: इन्द्र अपनी पत्नी शची के साथ यहां घूमने आए। राजा नील ने उनके ठहरने, घूमने इत्यादि की उत्तम व्यवस्था की।

एक दिन सायं जब इन्द्र और शची एक झील के किनारे घूमते हुए प्रसन्न मुद्रा में मग्न थे तो अचानक सांग्रह नामक एक राक्षस ने कामवासना से ग्रसित होकर शची को छीनने हेतु इन्द्र पर आक्रमण कर दिया। राक्षस सांग्रह की सहायता हेतु कुछ अन्य राक्षस भी पहुंच गए। आक्रमण प्रबल था। इन्द्र ने पहले तो सुरक्षात्मक रुख अपनाया, फिर अपने वज्र से उस राक्षस को समाप्त कर दिया। इन्द्र और शची अपने प्रदेश में आ गए।

उसी वक्त नील का एक गश्ती दल वहां से निकला। उसने राक्षस की लाश के पास ही उसके बच्चे को देखा। वह बच्चा अपने मृत पिता के पास खड़ा रो रहा था। सैनिकों ने उस बच्चे को उठाया और राजा नील को सौंप दिया। नील ने उसे अपनी संतान की तरह पाला, पढ़ाया, लिखाया। बच्चा क्योंकि झील के किनारे बिखरे पानी में से उठाया गया था इसलिए नील ने उसका नाम जलोद्भव रखा। राजा ने इस बालक की शिक्षा की पूरी एवं योग्य व्यवस्था की। एक प्रशासक के द्वारा इस प्रकार अनाथ बच्चे को गोद लेने की आदर्श प्रथा से कश्मीर घाटी की संस्कृति और समाज व्यवस्था का परिचय प्राप्त होता है।

इस जलोद्भव को नील ने कश्मीर की मुख्य धारा से मिलाकर भारतीय राष्ट्रीयता में एकरस करने का पूरा प्रयास किया। परंतु देशभक्ति और समाजसेवा जैसे गुणों से जलोद्भव दूर भागता गया। आखिर था तो राक्षस ही, अपने राक्षसी संस्कारों के कारण वह कश्मीर की धरती के साथ जुड़ न सका। उसकी इस अराष्ट्रीय मनोवृत्ति को विदेशी शक्तियों ने प्रोत्साहित कर दिया। वह अब पूरी शक्ति के साथ कश्मीर के सद्भाव और वहां की सांस्कृतिक धरोहर को तहस-नहस करने में जुट गया। उसके भय से कश्मीर के मूल निवासी अपना सब कुछ वहीं छोड़कर भारत के अन्य प्रांतों में पलायन कर गए।

गांधार, अभिसार, जुहूण्डूर, शक, खस, तंगड़, भांडो, मद्र, अंतगिरि और बहिगिरी इत्यादि जातियों और क्षेत्रों के लोगों पर इस पापी और विदेशों के इशारे पर नाचने वाली इसकी मंडली ने अत्याचार किए। जलोद्भव की अलगाववादी गतिविधियां इतनी आगे बढ़ गईं कि स्थानीय प्रशासन भी अस्त व्यस्त हो गया। चारों ओर हाहाकार मच गया। देशभक्त लोगों पर अमानवीय अत्याचार होने लगे।

राक्षसी मंडली

इन अराष्ट्रीय तत्वों की विध्वंस लीला के फलस्वरूप मद्र क्षेत्र से कश्मीर तक का सारा क्षेत्र उजड़ गया। भारत का यह हिस्सा अब भारतीयता से शून्य हो गया क्योंकि यहां के मूल निवासी ही वहां पर भारतीयता को बचाकर रखे हुए थे। इन्हें पलायन हेतु बाध्य करना यह आतंकवादियों की सबसे बड़ी सफलता थी। यही देशभक्त नागरिक उस राक्षसी मंडली के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थे।

इस सारी परिस्थिति का सामना नील ने पूरी शक्ति के साथ किया। परंतु वह इसे नियंत्रित नहीं कर सका। उसने कश्मीर की देशभक्त प्रजा को पलायन करने से भी रोकने का प्रयास किया। किंतु जलोद्भव के द्वारा प्रारंभ की गई विनाशलीला के आगे सबने यही उचित समझा कि यहां रहे तो पूर्णत: समाप्त कर दिए जाएंगे। अत: यहां से कहीं अन्यत्र चले जाना ही श्रेयस्कर माना गया। उस समय कश्यप ऋषि भारत भ्रमण के लिए गए हुए थे। जब उनको कश्मीर में चल रही अराष्ट्रीय गतिविधियों और विदेशी षड्यंत्रों का समाचार मिला तो वे अपने सारे प्रवास कार्यक्रमों को रोककर तुरंत कश्मीर पहुंचे।

सारी स्थिति का जायजा लेने के पश्चात् उन्होंने तुरंत घोषणा की अब मैं भ्रमण एवं तीर्थ यात्रा पर नहीं जाऊंगा। अब कश्मीर को सेना के हवाले करना होगा। मैं इसकी व्यवस्था करूंगा। जिन्होंने भी इस देश का विध्वंस किया है, प्रजा पर अत्याचार किया है, स्त्रियों पर बलात्कार किए, हत्याएं की हैं, मैं उनसे हत्याओं का हिसाब मांगूंगा। इस प्रकार ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि कश्मीर देश से पलायन करके गई देशभक्त जनता वापस अपने घरों में सुख पूर्वक एवं सम्मानपूर्वक लौट सके। कश्यप मुनि ने नील को पूर्ण सैनिक सहायता का आश्वासन दिया और स्थानीय प्रशासन में घुसे हुए जलोद्भव के समर्थकों को निकाल बाहर करने का ठोस सुझाव दिया।

इस प्रकार कश्यप ने नील का उत्साहवर्धन करके कश्मीर को बचाने हेतु सेना के हवाले कर दिया। (अगर उस समय भारत में कांग्रेस की सरकार होती तो प्रधानमंत्री नील को कहते कि पहले जलोद्भव को कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाओ फिर बाकी बात करेंगे और इस राष्ट्रद्रोही जलोद्भव को कश्मीर की सत्ता सौंप कर देशभक्त महाराजा नील को कश्मीर से जम्मू चले जाने का निर्देश दे देते। कश्मीर में धारा 370 लगाकर उसे विशेष दर्जा देकर अराष्ट्रीय तत्वों को इसकी आड़ में अपने षड्यंत्र चलाने की पूरी सुविधाएं प्रदान कर देते।)

परंतु कश्यप ऋषि तो कांग्रेसी नहीं थे, उन्हें किसी वर्ग विशेष के थोक वोट भी नहीं लेने थे। इसलिए उन्होंने तुष्टीकरण की नीति न अपनाकर सख्ती से जलोद्भव की राक्षसी मंडली को जड़ से समाप्त करने का निश्चय किया। उनकी व्यवस्था और योजनानुसार विष्णु और शिव भी अपनी-अपनी सेना के साथ कश्मीर पहुंच गए। जलोद्भव और उसके साथी अपने गुप्त ठिकानों पर छिप गए। जहां से निकल कर वे सेना पर वार करते और फिर भागकर छिप जाते।

सैनिक कार्रवाई

जलोद्भव के इस सारे प्रभाव क्षेत्र को सेना ने घेर लिया। चारों कोनों पर सेना की कमान कश्यप, शिव, विष्णु और वासुकी ने स्वयं संभाल ली। चारों ओर से एक साथ सैनिक कार्रवाई शुरू हो गई। जलोद्भव और इसी तरह के अन्य गुप्त स्थानों पर दुबकी मारकर बैठे उसके साथी जब बाहर निकलकर भागने लगे तो सभी के सभी मारे गए। एक भी जीवित नहीं बचा। विष्णु ने जलोद्भव को देखते ही अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। इस सारे सैनिक अभियान में पलायन किए अनेक नागरिकों ने वहां पहुंचकर सेना की सहायता की, क्योंकि सेना को कश्मीर की स्थानीय भौगोलिक जानकारी नहीं थी।

जलोद्भव की मृत्यु से कश्मीर में अराष्ट्रीय तत्व समाप्त हुए। महाराजा फिर से राज सिंहासन पर बैठे। सारी कश्मीर समस्या जड़ से समाप्त हो गई। पलायन करके गए कश्मीर के सभी लोग वापस अपने घर को लौटे। उन्हें पूरा सम्मान और सुरक्षा प्रदान की गई। सभी ने कश्यप मुनि के प्रति आभार प्रकट किया। कश्यप मुनि ने अपनी स्थगित तीर्थ यात्रा फिर से प्रारंभ की। अब महाराजा नील ने कश्यप मुनि के आदेशानुसार प्रशासन में घुसे आतंकवादी तत्वों को चुन-चुनकर बाहर निकाला। भारत के अन्य क्षेत्रों से गए लोगों को कश्मीर में अपने उद्योग-धंधे प्रारंभ करने की सुविधाएं दीं। पथभ्रष्ट हुए जवानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने के प्रयास युद्ध स्तर पर प्रारंभ हो गए। भारत के नंदन वन कश्मीर की सुरम्य घाटियों में स्वर्ग के सुर फिर गूंजने लगे। आज फिर से भारत के मुकुटमणि कश्मीर में व्याप्त अलगाववाद, अशांति, जिहादी आतंकवाद से उत्पन्न राष्ट्रविरोधी परिस्थितियों को परास्त कर भारत माता के जयघोष गुंजाने के लिए समस्त देशवासियों को इस महत् कार्य में जुटना ½þÉäMÉÉ*n

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