मुद्दों से परे ठौर तलाशती कांग्रेस
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मुद्दों से परे ठौर तलाशती कांग्रेस

by
Apr 15, 2012, 12:00 am IST
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चर्चा सत्र

दिंनाक: 15 Apr 2012 22:25:33

चर्चा सत्र

द राजनाथ सिंह “सूर्य”

संसद का बजट शुरू होने के साथ मनमोहन सिंह की सरकार अपने निर्णयों को थोपने के प्रयास में निरंतर “बैकफुट” पर ही दिखी। उसकी साख लगभग शून्य हो गई है। सेना का विवाद हो या मंत्रियों के घोटाले या संवैधानिक संस्थाओं  के प्रतिवेदन, सभी एक ही बात का संकेत दे रहे हैं कि देश आर्थिक संकट और प्रशासनिक अराजकता में घिर गया है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का बजट पेश करते समय अगले महीने तक महंगाई कम होने का दावा गत तीन वर्ष से निरर्थक साबित हुआ है। गठबंधन में शामिल दलों के सामने घुटने टेकते-टेकते सरकार रेंगने की स्थिति में आ गई है। सरकार चलाने की ही प्राथमिकता के कारण सुरक्षा एजेंसियों का जिस प्रकार दुरुपयोग किया जा रहा है उससे आजिज आकर एक उच्च न्यायालय ने तो यहां तक कह दिया है कि सीबीआई को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

मौन का बाना

सोनिया गांधी मौन हो गई हैं और राहुल गांधी, जो विधानसभा चुनाव के समय उत्तर प्रदेश की गली-कूचे में घूमे थे, वे हार के लिए औरों के सिर ठीकरा फोड़ने का उपक्रम कर रहे हैं। राजनीतिक दृष्टि से दिशाहीन और प्रशासनिक दृष्टि से संकल्पहीन कांग्रेस जितना छटपटा रही है उतनी ही उसकी जकड़न बढ़ती जा रही है। इस स्थिति के बावजूद कांग्रेस में राहुल को अधिक जिम्मेदारी देने अर्थात कार्यकारी अध्यक्ष बनाने की चर्चा छेड़कर प्रभावी बने रहने की आकांक्षा में “परिवार” के संरक्षण की रटंत भी शुरू हो गई है, क्योंकि कांग्रेस में अर्से से उन्हीं का महत्व बढ़ा है जिनके बारे में यह कहावत बनी है कि-नाचै गावै तोड़े तान-तेहि कै दुनिया राखे मान। देश की सभी दृष्टि से दयनीय स्थिति बनाने के बावजूद कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव को प्राथमिकता बनाकर चल रही है। लेकिन जिस प्रकार उसके गठबंधन में शामिल दल उसकी कमजोरी का लाभ उठाने में लगे हैं उससे तो यही संकेत मिलता है कि उनके सामने रेंगने के बावजूद उसके गले में अटक गया जनक्षोभ का फंदा कसता ही जायेगा।

क्या कांग्रेस सब कुछ अनजाने में कर रही है या उसके ग्रह-नक्षत्र खराब हैं कि उसका हर निर्णय उल्टा प्रभाव डाल रहा है? यह भ्रम कुछ लोगों को हो सकता है, लेकिन एक के बाद एक संसदीय सत्र को अनावश्यक रूप से हंगामेदार बनाकर देश के सामने खड़ी विकराल समस्याओं से ध्यान बंटाने के लिए 2009 के बाद से बराबर ऐसा ही होना सोची-समझी रणनीति का हिस्सा मालूम पड़ता है। जैसे लोकपाल के मसले में दांव-पेंच करके संसद का शीतकालीन सत्र सत्ता पक्ष ने निरर्थक कर दिया वैसे ही संभवत: आतंकवाद विरोधी केंद्र स्थापित करने की घोषणा कर राज्यों के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ की। लेकिन सहयोगी दलों ने उसे झुकने पर मजबूर कर दिया और अब मनमोहन सिंह आम सहमति की भाषा बोलने लगे हैं। कांग्रेस ऐसे मुद्दों को उभार रही है ताकि भारत की अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होते जाने, भ्रष्टाचार के भस्मासुरों की जमात बढ़ती जाने, प्रशासनिक व्यवस्था चौपट होने तथा एक के बाद एक संवैधानिक संस्थाओं के खिलाफ सत्ता की स्वेच्छाचारिता से सरकार को कटघरे में खड़ा करने का अवसर न मिल सके। लेकिन उसकी रणनीति असफल रही। निर्वाचन आयोग पहली संस्था नहीं है जिस पर केंद्रीय मंत्रियों तक ने आक्षेप लगाये हैं, इससे पूर्व मुख्य सतर्कता आयोग और महालेखा परीक्षक पर मंत्रियों ने आक्षेप किए हैं। स्थिति तो यहां तक पहुंच गई है कि स्वयं प्रधानमंत्री ने न्यायालय को लक्ष्मण रेखा न लांघने का परामर्श दे डाला।

सिर्फ प्रश्नचिन्ह

शायद मनमोहन सिंह की सरकार पहली सरकार होगी जिसके आचरण पर सभी संवैधानिक संस्थाओं ने प्रश्नचिन्ह लगाये हैं। इन संस्थाओं के प्रतिवेदनों और प्रमुखों की अभिव्यक्तियां इस बात का संकेत हैं कि यूपीए सरकार सत्ता में रहने का संवैधानिक अधिकार खो चुकी है। फिर भी कांग्रेसी मंत्रियों द्वारा अहंकार युक्त आचरण इसलिए किया जा रहा है क्योंकि देश की सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली “सुपर कैबिनेट” (जिसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की संज्ञा दी गई है) द्वारा प्रस्तावित कानूनों का सत्ता में भागीदारों द्वारा भी विरोध करने के कारण उनके कोप का भाजन न बनना पड़े। कृषि मंत्री शरद पवार सार्वजनिक रूप से खाद्य सुरक्षा कानून को अव्यावहारिक बताकर उसका विरोध कर रहे हैं, तो ममता बनर्जी आतंक विरोधी केंद्र की स्थापना के सवाल पर विरोध करने वाले मुख्यमंत्रियों की अगुआई कर रही हैं। इसके पूर्व सांप्रदायिक दंगों संबंधी भेदभावयुक्त कानून लाने के प्रस्ताव का भी विरोध हो चुका है। क्या कारण है कि संविधान के संघीय ढांचे को ध्वस्त कर केंद्रीय सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए कांग्रेस आतुर है? कारण यही है कि अधिकांश राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार है। जब तक राज्यों में भी कांग्रेसी सरकारें रही हैं उसे संवैधानिक व्यवस्था में अपरोक्ष बदलाव वाले कानूनों की आवश्यकता नहीं थी। आज तो उसकी यह स्थिति भी नहीं रह गई है कि वह संसद से किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का प्रस्ताव भी पारित करा सके। संसद के शीतकालीन सत्र में उसे एक विधेयक अपनी आकांक्षा के अनुरूप पारित कराने में समर्थकों और सहयोगियों के भी विपरीत हो जाने से  असफलता मिलने पर उसने संभवत: राजाज्ञा के जरिए ही अपना वर्चस्व बनाने का जो आत्मघाती कदम उठाया है उससे उसकी पोल और भी खुल गई है।

नेतृत्व में समझबूझ नहीं

कांग्रेस इस समय जनाक्रोश, राजनीतिक क्षेत्र में अकेलेपन और न्यायालय में लंबित मामलों से घिर गई है। ऐसे में उसे जिस सामंजस्यपूर्ण ढंग से आचरण को प्राथमिकता देनी चाहिए उसको संघर्षपूर्ण बनाया जा रहा है, क्योंकि उसके नेतृत्व में समझबूझ का सर्वथा अभाव है। यदि उसके नेतृत्व में केंद्रीय सत्ता चल रही है तो उसके दो कारण हैं। एक तो पूर्वजों की कमाई और दूसरे, विकल्प का बिखराव। संसद के पिछले सत्र में वह विपक्ष के बिखराव  को तूल देने में सफल नहीं हो सकी। अब अगले सत्र में उसकी पूर्वजों की पूंजी का भंडार भी खाली होने जा रहा है। सोनिया गांधी कांग्रेस को दिशाहीनता की ओर इतनी दूर तक धकेल चुकी हैं कि बार-बार दीवार पर उभरने वाली लिखावट दिखाई नहीं पड़ रही या फिर वह शुतुरमुर्ग की तरह बालू में सिर छिपाकर अपने को सदैव के लिए सुरक्षित समझ रही हैं। कांग्रेस परिवार के प्रभाव से जनमानस को मोहित करने में असफल होने के बावजूद प्रियंका की छत्रछाया में जाने के लिए उत्सुक दिखाई पड़ रही।

मनमोहन सिंह की सरकार पहली सरकार है जो अल्पमत में होते हुए भी तानाशाही चलाना चाहती है। लोकतंत्र समझदारी और भागीदारी से ही चल सकता है, मोहक नारों से नहीं। 2009 में दुबारा सरकार बनाने के बाद उसे यह गुमान हो गया कि अब उसका कोई बाल बांका नहीं कर सकता, लेकिन तीसरा वर्ष पूरा होते-होते अब उसके 2014 में फिर सत्तासीन होने की संभावना तो क्षीण हो ही गई है, इसी वर्ष के अंत में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में आलाकमान की मर्जी वाला उम्मीदवार खड़ा करना भी नामुमकिन हो गया है। गांवों में कहावत है- “अकल बुद्धि सब हरी, कहो तो कचबच कचबच करी”। कांग्रेस इस समय कचबच ही कर रही है, क्योंकि उसकी बुद्धि कुंद हो गई है। इसलिए उसने संसद के बजट सत्र को कचबच कचबच वाला सत्र बनाने की हरसंभव कोशिश की थी।द

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